मगध देश में सुग्राम नामक एक गाँव था। उसमें राष्ट्रकूट नामक किसान व उसकी स्त्री रेवती रहते थे। क्रमानुसार उसके भवदत्त और भवदेव नामक दो पुत्र हुए।
एक बार सुस्थित आचार्य से वैराग्यधारी भवदत्त ने दीक्षा ग्रहण की। वे शास्त्र सीखकर गीतार्थ हुए। एक बार उनके गुरु से सुग्राम जाने की मुझे इच्छा है तो मुझे आज्ञा दीजिए।’ गुरु ने आज्ञा दी, सो वे सुग्राम गाँव गये।
वहाँ उनके छोटे भाई भवदेव का नागिला के साथ ब्याह हो रहा था सो कोई जान नहीं पाया कि साधू आये हैं। वे गुरु के पास वापिस लौटे, अन्य साधूओं ने उनकी हँसी, उडायी फलस्वरूप भाई को प्रतिबोध प्राप्त कराने (भाई को दीक्षा दिलाने के लिए) की प्रतिज्ञा की। वे पुनः सुग्राम गाँव पधारे। उस वक्त नागिलाको आभूषण पहनाने का उत्सव चल रहा था ।
आधा शृंगार सजा चुके थे उसी समय भवदत्त आये। उनके आने की खबर सुनकर भवदेव ने आकर उन्हें शीश झुकाया। उनको श्रद्धापूर्वक शुद्ध अन्न-जल की भिक्षा देकर वे प्रतिलाभित हुए। जाते समय भवदत्त ने भवदेव को थोडी दूरी तक साथ चलने को कहा और बोले,
‘हे भवदेव ! तूझे धन्य है कि साधू पर तेरी ऐसी बढ़िया भक्ति है।’ बचपन की बाते करते करते भवदत्त भवदेव को गुरु महाराज जहाँ ठहरे थे वहाँ तक ले आये और गुरु महाराज को प्रणाम करके भवदत्त ने कहा, ‘हे भगवान ! मेरे इस भाई को मैं आपके पास लाया हूँ, उसे दीक्षा लेने की इच्छा है।’ ऐसा कहने पर गुरुजी ने भवदेव को दीक्षा दी। भवदेव भाई को ना न कह सका।
तत्पश्चात् भवदत्त ने एकमुनि और अपने भाई भवदेव को साथ लेकर नमस्कार के अन्यत्र विहार कर दिया। भवदेव भाई के वचन के कारण संयम पालने लगा लेकिन जैसे हस्ती को हस्तीनी की याद सताये वैसे ही उसको नागिला याद आने लगी।
कालानुसार भवदत्त तो तीव्र तपश्चर्या करके कालधर्म पाकर स्वर्ग को गये इसलिये अकेले पड़ने पर भवदेव अन्य साधुओं को वहीं सोता हुआ छोड़कर नागिला का स्मरण करते हुए रात्रि के समय निकल पड़े।
भवदेव चलते चलते सुग्राम गाँव की सिवान में स्थित एक मंदिर में ठहरे। नागिला को भवदेव के आने के समाचार मिले और उसके लिए ही भवदेव चारित्र छोड़ देने के लिए तैयार हुए हैं ऐसा पता चलने पर एक वृद्ध श्राविका को सब बात समझायी।
एक बालक को थोड़ा समझा-सीखाकर तैयार किया था। रात्री पूरी होने पर वृद्ध स्त्री नागिला के साथ भवदेव जहाँ था उस मंदिर में आई। भवदेव ने पूछा, ‘यहाँ नागिला कहाँ रहती है ? वह क्या करती है ?’ उस समय पहले से सीखाया हुआ बालक वहाँ आया और कहने लगा,
‘हे माता ! मुझे आज गाँव में भोजन का आमंत्रण मिला है, वहाँ दक्षिणा भी मिलनेवाली है, सो तू घर चल; विलम्ब मत कर । मुझे प्रथम तो दूध पीकर वमन करके निकाल देना है और वहाँ भोजन-दक्षिणा ले आने के बाद वमन किया हुआ वापिस पी जाऊँगा।’
ऐसा सुनकर भवदेव हँसकर कहने लगे, ’अहो... यह बालक ! ऐसा वमन किया हुआ निंदा के योग्य दूध फिर से पीयेगा?’ यह सुनकर नागिला बोली, मैं आपकी स्त्री नागिला हूँ। पूर्व आपके द्वारा त्याग की हुई मुझे पुनः आप क्यों ग्रहण करना चाह रहे हो।
ऐसा कौन अज्ञानी है जो वमन किये हुए आहार को पुनः ग्रहण करने के भांति छोडी हुई स्त्री को प्राप्त करना चाहे । स्त्री को अनंत दु:ख की खान समान कही है, इसलिये हे मूढाशय ! नवविवाहित वधू भाँति मुझे याद करते हुए आप यहाँ पधारें। लेकिन अब अवस्था से जर्जरित मुझे देखो। संसार में क्या सार है ? और हे साधक ! संसार समुद्र में गिरते प्राणियों के तारक जहाज समान इस दीक्षा का त्याग करके दुर्गति देनेवाली स्त्री को क्यों ग्रहण करना चाहिये।’
आखिर में मुझे कहते हुए आनंद आ रहा है कि मैंने गुरु से आजीवन शीलव्रत ग्रहण किया है क्योंकि स्त्रीयों को शील ही एक उत्तम आभूषण है । इसलिये हे नाथ ! आप गुरु के पास जाओ और शुद्ध चारित्र प्राप्त कर लो।’
स्त्री से प्रतिबोधित और खुश हुए भवदेव नागिला से क्षमा याचना करके अपने गुरु के पास गये। वहाँ उन्होंने अपना दुश्चरित्र सम्यक् प्रकार से छोड़कर पुनः चिरकालपर्यंत शुद्ध चरित्र पाला। कालानुसार वे सैधर्म देवलोक में देवता बने।
इस भवदेव का जीव शिवकुमार के रूप में वितशोका नगरी में पद्मरथ राजा की पटरानी वनमाला की कोख से उत्पन्न हुआ। अपनी इच्छा होने पर भी माँ-बाप की अनुमति न मिलने से शुद्ध श्रावक धर्म पालकर अंत में अनशन ग्रहण किया और भाव चारित्रवान शिवकुमार ब्रह्मदेव लोक में विद्युतमाली देवता बने।
यही भवदेव याने विद्युतमाली का जीव वहाँ से ऋषभदत्त सेठ का पुत्र जंबूकुमार के रूपमें अवतरित हुआ। वह केवलज्ञान प्राप्त करके, मोक्ष जायेंगे और केवली होंगे। उनके पश्चात् अन्य कोई जीव केवलज्ञान इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्रमें नहीं पायेगा। इसलिये मोक्ष भी कोई जीव जंबूस्वामी के बाद नहीं जायेगा।