अक्षपुर नामक नगर में अरिदमन नामक राजा राज्य करते था। उनका प्रियंकर नामक पुत्र था। दिग्यात्रा से वापस लौटते समय अपने गांव के समीप आ पहुंचा। राजमहल और अपनी प्रिया को छोड़े लम्बा समय व्यतीत होने से प्रिया के दर्शन के अति उत्सुक राजा अपनी सेना को पीछे छोड़कर अकेले ही अपनी नगरी में आया। अपना नगर, ध्वज, तोरण वगैरह से सुशोभित होते देखकर अचंभित होकर राजमहल पर आया।
वहाँ अपनी कांता को सर्व अलंकार से शोभित और सत्कार के लिए तैयार खड़ी देखकर राजा ने उसे पूछा कि, ’हे प्रिया! मेरे आने के समाचार तुम्हें किसने दिये?’ उसने कहा, ’कीर्तिधर नामक मुनिराज ने आपके अकेले आने के समाचार दिये थे, जिससे आपके सम्मुख आने के लिये तैयार खड़ी हूँ।’
यह सुनकर अरिदमन राजा ने मुनिराज को बुलाकर पूछा कि, ‘यदि आप ज्ञानी हैं तो मेरे मन की चिंता कहिये।’ तब मुनि ने कहा, हे राजन्! आपने आपके मरण के बारे में सोचा है।
राजा ने पूछा, ‘हे ज्ञानी! मेरी मृत्यु कब होगी?’ मुनि बोले, ‘आज से सातवें दिन बिजली गिरने से आपकी मृत्यु होगी और मरकर अशुचि मे बेइन्द्रिय कीड़े के रूप में उत्पन्न होंगे।’ यह कहकर मुनिराज अपने उपाश्रय पर लौट चले।
राजा यह वृत्तांत सुनकर आकुल-व्याकुल हो गया। उसने अपने पुत्र प्रियंकर को बुलाकर कहा, ‘हे वत्स, यदि मैं अशुचि में कीड़ा बनूं तो तू मुझे मार डालना।’ प्रियंकर ने बात का स्वीकार किया।
राजा सातवें दिन पुत्र, स्त्री एवं राज्यादिक की तीव्र मूर्छा से मरकर अशुचि मे कीड़े के रूप में उत्पन्न हुआ। उस वक्त प्रियंकर उसे मारने लगा, लेकिन वह जीव मरने के लिए राजी न हुआ। इस कारण प्रियंकर ने मुनि को पूछा : ‘मुनिराज! क्या यह मेरे पिता का प्राण है जो दुःखी होते हुए भी मरण नहीं चाह रहा है?’ तब मुनिराज बोले, ’विष्टा में बसे कीड़े तथा स्वर्ग में बसे इन्द्र की जीने की आंकाक्षा समान ही होती है; और उन दोनों को मृत्यु का भय भी समान ही होता है।’
यह सुनकर प्रियंकर राजा ने गुरु को पूछा कि किसीने न देखा, न सुना और न चाहा ऐसा परभवगमन सर्व जीव प्राप्त करते हैं। इस प्रकार मेरे पिता ने कीड़े का भव पाया, तो ऐसी गति में आत्मा किस उद्देश्य से जाती है? गुरु ने कहा, जीवों को जिस प्रकार की लेश्या के परिणाम होते हैं वैसी गति उन्हें प्राप्त होती है। राजा ने पूछा, ‘हे स्वामी! लेश्या कितने प्रकार की होती है?’ तब गुरु ने लेश्या का स्वरूप कहा, ‘हे राजा! आत्मा के परिणाम विशेष से लेश्याएँ छः प्रकार की हैं’।
जो मनुष्य रौद्र ध्यानी हो, सदा क्रोधी हो, सर्व पर द्वेषी हो, धर्म से वर्जित हो, निर्दय हो और निरंतर बैर रखनेवाला हो उसे विशेष रूप से कृष्ण लेश्यावाला जानना।
नील लेश्यावाला जीव आलसी, मंदबुद्धि, स्त्री मे लुब्ध, दूसरों को ठगनेवाला, डरपोक और निरंतर अभिमानी होता है ।
निरंतर शोक में मग्न, सदा रोषवाला, पर की निंदा करनेवाला, आत्मप्रशंसा करनेवाला, रणसंग्राम में भयंकर और दुःखी अवस्थावाले मनुष्य की कापोत लेश्या कही गई है ।
विद्वान, करुणावान्, कार्याकार्य का विचार करनेवाला और लाभ या अलाभ में सदा आनंदी - ऐसे मनुष्य को पीत लेश्या की अधिकता होती है ।
क्षमावान, निरंतर त्याग वृत्तिवाला, देवपूजा में तत्पर, व्रत को धारण करनेवाला पवित्र और सदा आनन्द में मग्न- ऐसा मनुष्य पद्म लेश्यावाला होता है ।
राग द्वेष से मुक्त, शोक और निंदा से रहित तथा परमात्म भाव को पाया मनुष्य शुक्ल लेश्यावाला कहलाता है।
इन छः लेश्या में प्रथम तीन लेश्याएँ अशुभ हैं और अन्य तीन लेश्याएँ शुभ हैं, उन छः का विस्तार से स्वरूप परखने के लिए जामून खानेवाले तथा गाँव में डकैती डालने वाले छ: छ: पुरुष के दृष्टांत हैं जो इस प्रकार है :
किसी जंगल में क्षुधा से कृष हुए छ: पुरुषों ने कल्पवृक्ष समान जामून का एक पेड़ देखा जिसकी शाखाएँ पके हुए और रसवाले जामून के बोझ से झुक गई थी। वे सब हर्षित होकर बोले, अरे! सही अवसर पर यह वृक्ष हमारे देखने में आया है, इसलिए अब स्वेच्छा से उसके फल खाकर हमारी क्षुधा को शांत करें ।
उनमें से एक क्लिष्ट परिणामवाला था, वह बोला कि ‘यह दुरारोह वृक्ष उपर चढ़ने में जान का खतरा है, इसलिये क्यों न इसे तेज कुल्हाडी की धार से पेड को जड़ काट डाले और गिराकर आराम से सब फल खालें ।’ ऐसे परिणामी पुरुष को कृष्ण लेश्यवाला समझना चाहिये ।
तत्पश्चात् कुछ कोमल हृदयवाला बोला कि इस वृक्ष को काटने से हमें क्या अधिक लाभ? सिर्फ एक बड़ी शाखा तोड़कर उपर रहे फल खाए जाय।’ ऐसे पुरुष नील लेश्या के परिणामवाले जानने चाहिये ।
इसके बाद तीसरा बोला, ‘इतनी बड़ी शाखाको काटने की क्या जरूरत? उसकी एक प्रशाखा को ही काटी जाये।’ ऐसे पुरुष को कापोत लेश्यावाला जानना चाहिये ।
चौथा बोला, ’इन बेचारी छोटी शाखाओं को काटने से क्या लाभ है? सिर्फ उसके गुच्छ तोड़ने से अपना कार्य सिद्ध हो जायेगा।’ ऐसा मनुष्य तेजोलेश्यावाला जानना ।
पाँचवां बोला, ‘गुच्छे को भी क्यों तोड़ा जाय? उसके उपर रहे भक्षण करने लायक फल ही तोड़कर क्षुधा को शांत कर ले।’ ऐसे पुरुष को पद्मलेश्यावाला जानना चाहिये।
अब छट्ठा बोला, ‘हमें वृक्ष के उपर से फल तोड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। हमारी क्षुधा पूर्ण करने जितने जामून तो पेड़ के नीचे ही गिरे हैं, उनसे ही प्राण का निर्वाह करना ही श्रेष्ठ है । इसलिये इस पेड़ के नीचे की डालियाँ तोड़ने का विचार किसलिए करना चाहिये?’ इस छठे मनुष्य की विचारशैलीवालों को शुक्ल लेश्या के परिणामवाले मानने।
इसी प्रकार डकैती डालनेवाले छः पुरुष का दृष्टांतः धनधान्यादिक से लुब्ध हुए चोरों के छ: अधिपतियों ने एकत्र होकर एक गाँव में डाला डाला। उस समय उनमें से एक बोला,
’इस गाँव में मनुष्य, पशु, पुरुष, स्त्री, बालक, वृद्ध वगैरह जो कोई भी नज़र आये उन्हें मार देना चाहिये।’ इस प्रकार कृष्णलेश्या के स्वभाववाले का वाक्य सुनकर दूसरा नील लेश्यावाला बोला कि, ‘सिर्फ मनुष्यों को ही मारने चाहिये, पशुओं को मारने में हमें क्या लाभ?’
उस समय तीसरा कापोतलेश्या का स्वभावधारी बोला, ’स्त्रियों को क्यों मारनी चाहिये? सिर्फ पुरुषों को ही मारा जाय।’
तत्पश्चात् चौथा तेजोलेश्यावाला बोला, ’पुरुष में भी शस्त्ररहित को मारने से क्या लाभ? सिर्फ शस्त्रधारी को ही मारें।’ यह सुनकर पाँचवा पद्मलेश्यावाला बोला कि, ‘शस्त्रधारी में भी जो हमारे सामने युद्ध करने आये उसे ही मारें, अन्य निरपराधी को क्यों मारने चाहिये?’
अंत मे छठ्ठा शुक्ललेश्यावाला बोला, ‘अहो हो! तुम्हारे विचार कैसे खोटे हैं? एक तो द्रव्य का हरण करने आये हो और बेचारे प्राणियों को मारना चाहते हो? इसलिये यदि तुम द्रव्य ही लेने आये हो तो भले ही द्रव्य लो, लेकिन उनके प्राणों की रक्षा तो करो।’
इस प्रकार छ: लेश्यावाले जीव मरकर भिन्न भिन्न गति पाते हैं। कहा है कि ‘कृष्ण लेश्यावाला नरकगति पाता है, नील लेश्यावाला थावरपना पाता है, कापोत लेश्यावाला तिर्यंच बनता है, पीत लेश्यावाला मनुष्यगति प्राप्त करता है, पद्म लेश्यावाला देवलोक में जाता है और शुक्ल लेश्यावाला जीव शाश्वत स्थान पाता है। इस प्रकार भव्य जीवों को लेश्याओं के विचार जानने चाहिये।
गुरु के मुख से लेश्या के स्वरूप जानकर प्रियंकर राजा ने प्रतिबोध पाया और निरंतर शुभ लेश्या में रहकर श्रावक धर्म स्वीकारा और अंत में सद्गति पाई। अपने पिता अरिदमन राजा की कापोत लेश्या के परिणामवाली कथा सुनकर तथा उनकी कीड़े के रूप में उत्पत्ति की बात महाराज के मुख से जानकर प्रियंकर राजा भले धर्म को देनेवाली शुभ लेश्यावाला बना।