सुदर्शनपुर नामक नगरी में मणिरथ नामक राजा राज्य करता था। युगबाहु नामक उसका एक छोटा भाई था, जिसके मदनरेखा नामक अति रूपमती पत्नी थी।
मणिरथ मदनरेखा का रूप देखकर उस पर मोहित हुआ था । मदनरेखा को अपनी बनाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था। मदनरेखा को लुभाने के लिये उसने अनेक युक्तियाँ की। अच्छे वस्त्र-अलंकार वगैरह एक दासी के साथ मदनरेखा के लिए भेजें । दासी ने मदनरेखा को राजा मणिरथ की इच्छा कहीं और बताया कि ’हे भद्रे ! मणिरथ राजा तेरे रूप और गुण से मोहित होकर तुम्हें रिझाना चाहता है।’ कुठाराघात जैसे वचन सुनकर मदनरेखाने अत्यंत क्षुभित होकर दासी को कहा, “राजा के पास उत्तम अंतःपुर तो है ही, फिर भी वह मूढ नरकदायी परस्त्रीगमन के पाप की इच्छा क्यों कर रहा है ? वह मुझे किसी भी ढंग से नहीं पा सकेगा । यदि वह मुझ पर बलात्कार करेगा तो मैं प्राण छोड दूँगी लेकिन शीलभंग न होने दूँगी। यदि वह मुझ पर कुदृष्टि करेगा तो वह जरूर मरण पायेगा ! दासी ने आकर राजा मणिरथ को मदनरेखा का कहा हुआ सर्व वृत्तांत कह सुनाया। लेकिन मणिरथ की कामवासना कम न हुई। वह मूढ विशेष कामातुर बना। उसने सोचा कि जब तक युगबाहु जीवित है तब तक में मदनरेखा को पा नहीं सकूँगा। इसलिये युगबाहु को मार ड़ालने का निश्चय किया । वह मौका ढूंढता रहा - कब युगबाहु अकेला पड़े और उसे मार डाला जाय । युगबाहु और मदनरेखा को एक पुत्र चंद्रयशा था। वह उम्रलायक हो गया था। एक रात्रि को मदनरेखा ने स्वप्न में पूर्ण चन्द्र देखा। यह स्वप्न उसने अपने भरथार को बताया। युगबाहु ने स्वप्नफल कहा, "तुझे चंद्रमा तुल्य सौम्यगुण वाला पुत्र होगा ।” तत्पश्चात् तीसरे माह में उसे दोहद हुआ कि में जिनेन्द्र की पूजा करूं, गुरु को प्रतिलाभित करुँ और धर्मकथाएँ श्रवण करूँ। ऐसे दोहद पूर्ण करने के लिए वह धर्मध्यान में विशेष ध्यान देने लगीं । एक बार वसंत ऋतु के समय युगबाहु प्रिया के साथ उद्यान में क्रीडा करने गया । उद्यान में जलक्रीडा आदि करके रात्रि को वहीं कदलीगृह में नवकार मंत्र का स्मरण करते हुए सो गये । युगबाहु और मदनरेखा अकेले हैं, उद्यान में उसके मनुष्य भी अल्प हैं ऐसा सोचकर विकारवश मणिरथ राजा युगबाहु को मारने खड़ग लेकर उद्यान में आया । उद्यान के माली दरवान को कहा, ’मेरा छोटा भाई अकेला उपवन में रहे यह योग्य नहीं है। यूँ बहकाकर उसने कदलीगृह में प्रवेश किया।
एकाएक रात्रि में बड़े भाई आये हैं, यह जानकर युगबाहु खडा होकर मणिरथ को नमस्कार करने नीचे झुका । उसी समय मणिरथने जोर से खडग का प्रहार किया। मदनरेखा ने यह देखकर कोलाहल मचा दिया । आसपास से सैनिक दौड़ आये। मणिरथ को पकड़कर मारने के लिये कई सैनिक तैयार हो गये। उन्हें मना करते हुए युगबाहु ने कहा, “इसमें बड़े भाई का कोई दोष नहीं हैं, मेरे कर्मों से ही यह हुआ है ।” अपनी धारणा के अनुसार सब हुआ है यों सोचकर हर्षित होता हुआ मणिरथ अपने महल पर जाने के लिए लौट चला लेकिन तीव्र पाप के फलस्वरूप उसी रात्रि को सर्प ने मार्ग में उसे डस लिया और वह मृत्यु पाकर चौथे नरक में गया।
युगबाहु का पुत्र चंद्रयशा अपने पिता के घाव के चिकित्सार्थ वहाँ आ पहुँचा । अंतिम श्वास लेते अपने पति को मदनरेखा धर्म सुना रही थी : हे स्वामी ! आप अब किंचित् भी खेद न करें। जो मित्र है या शत्रु, स्वजन हैं या परिजन उन सब से क्षमा मांग लो और उन्हें क्षमा भी कर दो । यों सम्यक् प्रकार से आराधना सुनाई । प्रिया के ऐसे हितवचन सुनकर युगबाहु शुभ ध्यान से मर कर ब्रह्म देवलोक में देव हुआ।
अपने पिता की मृत्यु देखकर चंद्रयशा अत्यंत विलाप करने लगा। मदनरेखा भी कुछ समय तक रुदन करती रही । फिर सोचने लगी : “मुझे धिक्कार है, मेरा सौंदर्य मेरे पति की मौत का कारण बना । अब मणिरथ मुझे पतिरहित अकेली समझकर पकड़ लेगा और अपनी मनमानी पूरी कर लेगा। अब मेरा कोई रक्षक नहीं है। मेरे शील की रक्षा के लिए मुझे यहाँ से गुप्त रूप से भाग जाना चाहिये ।” ऐसा निश्चय करके वह अकेली चल पड़ी। चलते-चलते वह एक महाघोर जंगल में पहुँच गई, वहाँ जलाशय में से जलपान तथा जंगलमें से फलभक्षण करते हुए एक कदलीगृह में रहने लगी । वहाँ सातवें दिन उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसने बालक के हाथ में युगबाहु नाम से अंकित मुद्रिका पहनाई और बालक को कंबल में लपेट कर तरु की छाया में सुलाया और सरोवर में अपने वस्त्र धोने गई । उसने जल में प्रवेश किया ही था कि जलहस्ती ने सूंढ से पकड़कर उसे आकाश में उछाल दिया। उस समय नंदीश्वर दीप की यात्रा पर जा रहे एक विद्याधरने उसे नीचे गिरते हुए झेल लिया । विधाधर भी मदनरेखा के रूप पर मोहित हुआ और मदनरेखा को वैतढ्य पर्वत पर ले गया। वहाँ मदनरेखा को रुदन का कारण पूछा । मदनरेखा ने सब हकीकत सुनाते हुए कहा : ’जिस अटवी से तू मुझे यहाँ लाया है, वहाँ मैंने पुत्र को जन्म दिया है। उस पुत्र को तरु की छाया में रखकर मैं जलाशय पर गई थी। वहाँ हस्ती ने मुझे उछाल फेंका, तूने मुझे थाम लिया और तेरे विमान में बिठा दिया पुत्र मेरे बगैर मृत्यु पायेगा। या तो मेरे बालक को यहाँ ला दो अथवा मुझे वहाँ पहुँचा दो ।”
विद्याधर ने कहा, “यदि तू मुझे तेरे भरतार के रूप में स्वीकार करेगी तो मैं तेरा किंकर बन कर रहूँगा।’
मदनरेखा सोचकर बोली, “पहले तू मेरे पुत्र को यहाँ ले आ, विद्याधर ने कहा, "मैं वैताढ्य पर्वत पर स्थित, रत्नावह नगर के मणिचूड विद्याधर का पुत्र हूँ। मेरा नाम मणिप्रभ है। मेरे पिता ने मुझे राज्य सौंपकर संयम ग्रहण किया है। कल मेरे पिता नंदीश्वर दीप के चैत्यों को वंदन करने गये हैं। उनसे मिलने मैं नंदीश्वर दीप जा रहा था कि रास्तेमें तू मुझे मिल गई, तो अब तू सर्व विद्याधरियों की स्वामिनी बन। मैंने तेरे पुत्र का स्वरूप प्रज्ञप्ति विद्या से जान लिया है। तेरे छोड़े हुए पुत्र के पास मिथिला नगरी के पद्मरथ राजा अश्वक्रीडा करते हुए पहुँच गये थे और तेरे पुत्र को नगर में ले जाकर अपनी प्रिया पुष्ममाला को सौंप दिया है। अब वह उसे अपने पुत्र की भाँति पाल रही है। अब उसकी फिक्र न करते हुए मेरी बात का स्वीकार करके, मेरी पत्नी बनकर मेरे राज्य की स्वामिनी बन ।!
रानी मदनरेखा ने सोचा, “आह ! मेरे कर्म ही बाधारूप हैं। दुःख पर दुःख आ रहे हैं। शील रक्षण का उपाय ढूँढना जरूरी हैं। कोई बहाना ढूँढकर कैसे भी समय बिताना चाहिये ।” ऐसा सोचकर उसने विद्याधर से कहा, “प्रथम तू मुझे नंदीध्वर दीप के दर्शन करा दे। वहाँ सर्व देवों को नमस्कार वंदन करूंगी । बाद में तू कहेगा वैसे करूँगी।” यह सुनकर विद्याधर खुश हो गया और अपनी विद्या के बल से उसे शीघ्र ही नंदीश्वर तीर्थ पर ले गया। वहाँ मदनरेखा तथा मणिप्रभ विद्याधर ने शाश्वत चैत्यों को प्रणाम किया और विद्याधर के पिता मणिचूड मुनीश्वर के पास जाकर उन्हें नमस्कार करके यथोचित धर्म सुनने के लिए बैठे । मुनि पुत्र अकार्य करना सोच रहा है जानकर बोले, "तुम्हें सर्वथा कुमार्ग छोड़ना चाहिये। क्योंकि परस्त्रीगमन जैसे कुमार्ग पर जाने से नरक में ही जाना पड़ता है वैसे स्त्रीको भी परपुरुषका सेवन करनेसे अवश्य नरकमें जाना पड़ता है।!
अपने पितामुनि के ऐसे धर्मवचन सुनकर मणिप्रभ की अक्ल ठिकाने आ गई और “अहो... ! मैंने कैसे हलके विचार किये !” यों सोचकर खड़े होकर मदनरेखा से क्षमा माँगी और कहने लगा, “आज से तू मेरी बहिन है, अब मैं तेरा क्या उपकार करूँ ? मदनरेखा ने कहा, “तूने मुझे शाश्वततीर्थ के वंदन कराकर मुझ पर महा उपकार किया है, इसलिये तू मेरा परम बांधव है। मदनरेखा ने मुनि को अपने पुत्र का वृत्तांत पूछा तो मुनि ने कहा, ’पद्मरथ राजा ने अटवी में से तेरे पुत्र को ले जाकर अपनी रानी को सौंपा है, पूर्वभव के स्नेह से उसका जन्म महोत्सव भी मनाया है और तेरा पुत्र इस समय सब प्रकार से सुखी है। । उस समय आकाशमार्ग से एक विमान वहाँ आया । वह रत्नों के समूह से बना हुआ था। उसका तेज सूर्य और चन्द्र से भी बढ़कर था। उसमें से एक महा तेजस्वी देव उतरा उसने मदनरेखा की तीन प्रदक्षिणा करके उसके चरणोमें नमस्कार किया। यह देखकर मणिप्रभ बोला : “अहो ! देव कैसा अकृत्य कर रहे हैं? मुनि को वंदन करने से पहले एक स्त्री को नमन कर रहे हैं ?” मुनिने स्पष्टीकरण करते हुए कहा, “गत भव में यह देव इस मदनरेखा का पति युगबाहु था। मृत्यु समय मदनरेखा ने धर्म सुनाया जिससे वह उसके लिये धर्माचार्या हुई । उसका ऋण वह अदा कर रहा हैं। सर्व प्रकार से मदनरेखा उसके लिए प्रथम वंदन योग्य है !
मुनि के वचन सुनकर विद्याधर ने देवता से क्षमा माँगी और देवता ने रानी को संबोधित करके कहा, "मैं तेरा क्या भला करूँ यह तू बता ।” तब वह बोली, “मुझे जन्म-मरण निवारक अविचल मोक्षसुख चाहिये, लेकिन यह देने के लिए आप समर्थ नहीं है, हो सके उतना जल्दी मुझे मिथिला नगरी पहुँचा दो जिससे मैं अपने पुत्र का मुख देखकर यतिधर्म ग्रहण कर लूं।” फिर देवता मदनरेखा को मिथिला ले गया, जहाँ पर उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ का जन्म और दीक्षा हुई थी। वहाँ श्री जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार, वंदना करके वे साध्वीजी के पास पहुँचे । साध्वीजी ने धर्मोपदेश दिया । धर्मदेशना सुनने के बाद देवता ने मदनरेखा को राजपुत्र के पास चलने के लिए कहा, लेकिन धर्मदेशना सुनने के बाद मदनरेखा ने कहा, “दूसरा कुछ भी नहीं करना है, साध्वीजी के चरणों की शरण ही स्वीकारनी है।” मदनरेखा की बात सुनकर देवता अपने स्थान को चला गया।
मदनरेखा के बालपुत्र को ले जानेवाले पद्मरथ राजा को बालक के प्रभाव के कारण सभी शत्रु नमन करने लगे । इसलिये बालक का नाम नमि रखा गया । योग्य उम्र होते ही नमिकुमार को योग्य कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कराया । और उसे राज्य सौंपकर पद्मरथ राजा ने ज्ञानसागर सूरि से दीक्षा ली। तीव्र तपश्चार्या करके केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पाया । नमिराजा ने राज्य करते हुए अनेक राजाओं को झुकाकर शक्रेन्द्र की कीर्ति संपादन की ।
इधर युगबाहु एवं मणिरथ की मृत्यु के बाद युगबाहु का पुत्र चंद्रयशा राजगद्दी पर बिठाया गया था।
एक बार नमिराजा का मुख्य हाथी जो स्तंभ से बँधा हुआ था, वह स्तंभ को जड़ से उखाड़कर भाग छूटा । वह अटवी में घूम रहा था तब चंद्रयशा राजा के हाथ लगा। नमिराजा के आदमियों ने आकर चन्द्रयशा से हाथी की माँग की। चन्द्रयशा ने उन्हें धुत्कार दिया। इस कारण दोनों राजा एक-दूसरे से लड़ने के लिये तैयार हो गये। नमिराजा अपने सैन्य के साथ सुदर्शनपुर आये और नगरी को चारों और से घेर लिया।
मदनरेखा जिसने यतिधर्म ग्रहण किया था, जिसका साध्वीरूप से सुव्रता नाम था, उसने दोनों भाइयों के कलह की बात जानी । दोनों सगे भाई होने पर भी लड़ेंगे और हजारों जीवों का घात होगा। पाप के भागी होकर दोनों भाई नरक में जायेंगे ऐसा सोचकर अपनी गुरुणीजी की आज्ञा लेकर वह दोनों युद्धकर्ताओं के पास आई। नमिराजा को मिलने पर नमि राजा ने उनकी वंदना की, उनसे धर्मोपदेश सुना और साध्वीजी ने कहा कि चन्द्रयशा उसका ज्येष्ठ भ्राता है। उसका पूर्व सम्बन्ध उसे सुनाया । सुव्रता साध्वी अपनी माता है यह जानकर भी नमिराजा ने युद्ध करने का विचार बदला नहीं।
तब सुव्रताने दूसरे भाई चंद्रयशा के पास जाकर कहा, “तुम दोनों लड़ रहे हो, लेकिन दोनों सगे भाई हो, लड़ने में कुछ फायदा नहीं है और दोनों ही नरक गति के पाप बांधोगे,” यों बात समझा दी । चन्द्रयशा तुरंत अपने भाई से मिलने चल पड़ा। बड़ा भाई मिलने आ रहा है, यह जानकर नमिराजा भी संग्राम छोड़कर ज्येष्ठ भ्राता के चरणों में गिर पड़ा । बड़े भाई ने उसे उठाकर गले लगा लिया और उत्साहपूर्वक अपने भाई को नगर प्रवेश कराया। चन्द्रयशा ने नमिराजा को राज्यग्रहण करने के लिए कहा। माताजी ने दोनों का सम्बन्ध समझाया था, इसलिए चन्द्रयशा ने नमिराजा को कहा, “अब मुझे राज्य की जरूरत नहीं है, मैं संयम के मार्ग पर जाऊँगा ।” नमिराजा भी संयम ग्रहण हेतु तैयार हुए लेकिन बड़े भाई की छोटे भाई को राज्य सौंप कर दीक्षा लेना ही योग्य है ऐसा समझाकर राज्यधुरा नमिराजा को सौंपकर चन्द्रयशा ने दीक्षा ग्रहण कर ली।
साध्वी मदनरेखा याने सुव्रताश्रीजी सर्व कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान पाकर मोक्ष गई।