धर्मरुचि वसंतपुर नगरमें जितशत्रु नामक राजा था, उसे धारिणी नामक रानी थी, उन्हें धर्मरूचि नामक एक पुत्र था। एक बार को‌ई तापस से दीक्षा लेने की इच्छा से राजा अपने पुत्र को राजगद्दी पर बिठाने के लि‌ए उद्युक्त हु‌आ। यह समाचार सुनकर धर्मरुचि ने अपनी माता से पूछा, “माता ! मेरे पिताजी राज्य का त्याग क्‍यों कर रहे हैं ? माता ने कहा, हे पुत्र ! यह राज्यलक्ष्मी किस काम की है? यह राज्यलक्ष्मी चंचल, नरकादि सर्व दुःख की हेतुरूप, स्वर्ग और मोक्षके मार्ग में विध्न रूप, परमार्थ से पापरूप और इस लोक में मात्र अभिमान करानेवाली हैं॥ यह सुनकर धर्मरुचि ने कहा कि ’हे जननी! जब ऐसी राज्यलक्ष्मी है तो क्‍या मैं पिता को इतना अनिष्ट हूँ कि वे सर्व दोषकारक राज्यलक्ष्मी मेरे सिर पर मढ़ रहे हैं ?” इस प्रकार कहकर उसने भी पिता के साथ दीक्षा ली और संपूर्ण तापस क्रिया यथार्थरूप से पालने लगा । एक बार अमावास्या के अगले दिन (चौदस) को एक तापस ने ऊँचे स्वर से विज्ञप्ति की कि हे तापसो ! कल अमावस्या होने से अनाकुष्टि है। इसलिये आज दर्भ, पुष्प, समिध, कंद, मूल तथा फल वगैरह लाकर रखने जरूरी है।” यह सुनकर धर्मरुचि ने गुरु पिता को पूछा, “पिताजी ! यह अनाकुष्टि यानि क्‍या ?! उन्होंने कहा, “पुत्र ! लता वगेरह का छेदन न करना उसे अनाकुष्टि कहते हैं। यह अमावास्या का दिन जो पर्व माना जाता है, इस दिन यह न करना चाहिये। क्योंकि छेदनादि क्रिया सावद्य मानी जाती है।” यह सुनकर धर्मरुचि सोचने लगा, “मनुष्यादि के शरीर को तरह जन्मादि धर्म से युक्तपने के कारण वनस्पति में भी सजीवपना स्फुट रूप से प्रतीत होता है। अमुक दिन अनाकुंष्टि पालनेसे उस दिन हिंसा से बचा जाता है परंतु करू को हिंसा आज ही हो गयी । महल छोडकर वनमें आने का प्रयोजन यही है कि निष्पाप जीवन जिया जा सके । अतः यदि सर्वदा अनाकुष्टि हो तो बहुत अच्छा ! इस प्रकार सोचते हु‌ए धर्मरुचि न अमावास्या के दिन तपोवन के नजदीक के मार्ग से जाते हु‌ए कुछ साधु‌ओं को देखा। उन्होंने साधु‌ओं को पूछा, क्या आपको आज अनाकुष्टि नहीं है, जिससे कि आप वन में प्रयाण करते हो ?” उन्होंने कहा कि “हमें तो यावञ्जीवित अनाकुष्टि है।” ऐसा कहकर साधु चले गये। यह सुनकर ऊहापोह करते हु‌ए धर्मरुचि को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हु‌आ, और उसे याद आया कि में पूर्वभव में दीक्षा लेकर मृत्यु पाकर, देवलोक के सुख का अनुभव करके यहाँ आया हूँ। पूर्व भव में मेंने वनस्पति जीव को अभयदान दिया था तो अब इस भव में भी उसकी हिंसा करना मुझे उचित नहीं है।” ऐसा सोचकर वह प्रत्येकबुद्ध हु‌आ। पश्चात्‌ उसने कंदादिक का भक्षण करनेवाले तापसों को भी उसका पच्चक्खान कराया।

बकरे, ऊँट, हाथी और दूसरे अन्य पशु वगैरह के भव में लता आदि वनस्पतियों का तूने बहुत प्रकार से भक्षण किया है, तो अब श्रावकपन को प्राप्त करके हे जीव उन वनस्पतियों वगैरह का तू भली प्रकार से रक्षण कर, जिससे धर्मरुचि मुनींद्र की तरह उत्तम फल प्राप्त हो सके I