श्रीकृष्ण वासुदेव को ढंढणा नामक स्त्री से ढंढणकुमार नामक पुत्र हुआ था। उम्रलायक होते ही नेमिनाथ से धर्म सुनकर संसार से विरक्त होकर उन्होंने दीक्षा ले ली। दीक्षा लेने के बाद वे गोचरी के लिए जाते थे लेकिन पूर्व भव के अंतराय कर्मों का उदय होने से जहाँ जहाँ वे गोचरी के लिए जाते वहाँ वहाँ से आहारादिक कुछ भी न मिलता, इतना ही नहीं उनके साथ यदि कोई साधु होता तो उसे भी गोचरी न मिलती, ऐसा हंमेशा होने लगा। अतः सब साधुओं ने मिलकर श्री नेमिनाथ भगवान को पूछा : ’हे परमात्मा ! आप जैसे के शिष्य और श्रीकृष्ण वासुदेव जैसे के पुत्र होते हुए भी श्री ढंढण मुनि को धार्मिक, धनाढ्य और उदार गृहस्थों से पूर्ण इस नगरी में गोचरी क्यों नहीं मिलती ?” भगवान ने कहा, “उनके पूर्वभव के कर्मों के उदय के कारण ऐसा होता है।” साधुओं ने उनका पूर्व भव जानने की इच्छा प्रकट की । नेमिनाथ भगवान ने उनके पूर्वभव का वृत्तांत सुनाते हुए कहा :
पूर्व काल में मगध देशमें पराशर नाम का एक ब्राह्मण रहता था। गाँव के लोगों से वह राज्य के खेतों की बुवाई करवाता था। भोजन के समय खाद्यसामग्री आ जाने पर भी वह सबको भोजन करने की छूट न देता था और भूखे लोग व भूखे बैलों से हल जोतकर असह्य मजदूरी करवाता था। इस कारण से अंतराय कर्म उसने बांधा है और उसका फल वह भुगत रहा है।” इस प्रकार के वचन सब साधुओं के साथ ढंढण मुनि ने भी भगवान से सुने। यह सुनकर उन्हें अत्यंत संवेग उत्पन्न हुआ और तुरंत प्रभु के पास अभिग्रह लिया कि आज से में परलब्धि नहीं करूँगा अर्थात् दूसरों की लाई हुई गोचरी नहीं लूंगा। मेरी लब्धि से जो भोजन मुझे मिलेगा, उसका ही उपयोग करूंगा। इस प्रकार उन्होंने आहार के बिना कुछ समय निर्गमन किया।
एक बार सभा में बैंठे श्रीकृष्ण वासुदेव ने भगवान नेमिनाथ को पूछा : “इन सब साधुओं में दुष्कर कार्य करनेवाला कौन है ? प्रभु ने कहा : सब मुनि दुष्कर कार्य तो करते ही हैं लेकिन ढंढण मुनि सर्वाधिक है, क्यों कि वे लम्बे अरसे से कठोर अभिग्रह पाल रहे हैं ।” श्रीकृष्ण वासुदेव प्रभु की वंदना करके महल लोट रहे थे। मार्ग में ढंढण मुनि को गोचरी के लिए जाते देखा हाथी के ऊपर से उतरकर उन्होंने भक्तिपूर्वक ढंढण मुनि को नमस्कार किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण वासुदेव को वंदन करते देखकर एक गृहस्थ को मुनि के लिए मान पैदा हुआ, अहो ! स्वयं श्रीकृष्ण वासुदेव जिनको नमस्कार कर रहे हैं वे मुनि कैसे महान चारित्रशील होंगे ! ऐसे विचार से उसने मुनि को अपने घर ले जाकर बहुमानपूर्वक मोदक की भिक्षा अर्पण की। मुनि प्रसन्न होकर स्वस्थान लौटे और प्रभु को पूछा : “आज मुझे गोचरी मिली है। क्या मेरे अंतराय कर्मों का क्षय हो गया ? श्री सर्वज्ञ प्रभु ने उत्तर दिया, “नहीं...अभी अंतराय कर्म बाकी ही हैं। आज जो गोचरी मिली है वह तो कृष्ण वासुदेव की लब्धि से मिली है। श्रीकृष्ण तुम्हें नमस्कार कर रहे थे, यह देखकर इस आहार से सेठ ने तुझे प्रतिलाभित किया है।!
ढंढण मुनि यद्यपि राग आदि से रहित हो चुके थे, फिर भी यह सुनकर सोचने लगे, यह परलब्धि का आहार है जो मुझे स्वीकार्य नहीं है। इसलिए भोजन का उपयोग किये बिना ही मोदक आदि आहार योग्य भूमि में परठने गये । उस समय “अहो ! जीवों के लिये पूर्वोपार्जित कर्मों को क्षय करना बहुत मुश्किल है। ऐसे कर्म करते हुए मेरी आत्मा ने विचार क्यों न किया” ऐसा सोचते सोचते वे ध्यानमग्न हो गये और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ।