गिरनार पर्वत के पास एक छोटा सा गाँव। उसमें एक ब्राह्मण कुटुंब रहता था । देवभट्ट नामक बुझुर्ग की मृत्यु हो ग‌ई थी। उनकी विधवा पत्नी देविला अपने पुत्र सोमभट्ट के साथ रहती थी। सोमभट्ट का विवाह अंबिका नामक एक जैन कन्या के साथ हु‌आ था। अंबिका को जन्म से जैन धर्म मिला था। जैन संस्कार होने से दान-धर्म उसे बहुत प्रिय था। शादी के बाद सोमभट्ट के सिवाय किसी पुरुष को रागदृष्टि से देखा न था, ऐसी वह सत्त्वशील सती स्त्री थी। श्राद्ध पर सोमभट्ट को भारी श्रद्धा थी। उसके पिता का श्राद्ध दिन था और उत्तम रसवती बनायी हु‌ई थी। उस दिन एक महान तपस्वी मुनिराज का उनके घर आगमन हु‌आ । वे एक माह के उपवास के पारणा हेतु भिक्षा लेने आये थे। अंबिका ने अत्यंत हर्ष एवं आदरपूर्वक मुनिको भिक्षा दी। मुनिराज “धर्मलाभ” कहकर चल दिये। दरवाजे के पास खड़ी एक पड़ोसन ने यह देखा ओर कर्कश आवाज से अंबिका को कहा, “अरे रे! यह तूने क्‍या किया ? श्राद्ध के दिन तूने प्रथम दान मलिन कपड़ेवाले साधु को दिया ? श्राद्ध का अन्न ओर घर दोनों अपवित्र कर दिये।” अंबिका सुनी अनसुनी कर घर में घुस ग‌ई लेकिन पड़ौसन क्या अपनी बात छोड़ देती ? बाहर ग‌ई हु‌ई अंबिका की सास देविला को घर लौटने पर यह बात मिर्च-मसाला लगाकर पड़ौसन ने कही। देविला का क्रोध भभक उठा। अंबिका को उसने खूब जली कटी सुना‌ई । सोमभट्ट बाहर से आया तो उसे भी अंबिका की घर अस्पृर्श्य करने की बात कही । वह भी गुस्से हो गया और अंबिकाकी ओर बढ़कर चिल्ला उठा: रे पापिनी ! तूने यह क्या किया ? अभी कुलदेवता की पूजा नहीं की पितृ‌ओं को पिंडदान नहीं दिया और तूने मैले-गंदे साधु को दान दिया ही क्‍यों ? निकल जा मेरे घर से, चली जा यहाँ से, क्रोध चण्डाल है ! जिसको क्रोध चढ़ता है वह चण्डाल जैसा क्रूर बन जाता है। सोमभट्ट ने सती स्त्री पर अत्यंत क्रोध करके उसे घर से बाहर निकाल दिया । अंबिका के दो पुत्र थे। एक का नाम सिद्ध और दूसरे का नाम बुद्ध था। अंबिका दोनों को लेकर घर के पिछवाडे से निकलकर नगर बाहर चली गयी। अपने दुर्भाग्य का विचार करती हु‌ई और मन में श्री नवकार मंत्र गिनती हु‌ई वह जंगल की ओर जा रही थी।

 

सिद्ध और बुद्ध दोनों को प्यास लगी; सिद्ध ने माँ को कहा, माँ, खूब प्यास लगी है, माँ ! पानी दे ।” बुद्ध ने भी माँ का हाथ खींचते हु‌ए पानी की माँग की। अंबिका चारों ओर देखती है, कहीं भी पानी दीखता नहीं है।

 

इतने में एक सूखा सरोवर नजर आया । अंबिका ने सोचा, “यह सरोवर पानी से भरा हु‌आ होता तो !” वहाँ एक चमत्कार हु‌आ। सरोवर पानी से भर गया। किनारे पर खड़े आम्रवृक्ष पर पके हु‌ए आम दीखें। अंबिका के सतीत्व का प्रभाव था यह उसकी धर्मदृढ़ता का यह चमत्कार था। अंबिका ने दोनों बालकों को पानी पिलाया और पेड़ पर से आम तोड़कर खिलायें। सिद्ध और बुद्ध खुश खुश होकर पेड़ के नीचे खेलने लगें।

 

अंबिका के घर से निकलने के बाद वहाँ भी ऐसा ही चमत्कार हु‌आ। सास देविला बड़बड़ाती हु‌ई रसो‌ईघर में पहुँची तो उसकी आँखें आश्चर्य से फैल ग‌ई। जिन बर्तनों में से अंबिका ने मुनिराज को दान दिया था, वे बर्तन सोने के हो गये थे। पके हु‌ए चावल के दानें मोती के दाने बन गये थे। रसो‌ई के दूसरे बर्तन भी भोजन से भर गये थे।

 

देविला हर्ष से पागल हो ग‌ई। उसने बेटे सोमभट्ट को बुलाया और यह सब दिखाकर कहा, देख, अंबिका तो सती है सती, देख ! उसका प्रभाव” सोमभट्ट ने सोने के बर्तन देखे, चावल का पतीला मोतियों के दानों से भरा देखा तो उस का रोष उतर गया। वह तुरंत ही अंबिका को ढूंढने निकल पड़ा। अंबिका को ढूंढते ढूंढते सोमभट्ट जंगल में आ पहुँचा । दूर से दोनों बालकों को खेलते हु‌ए देखा तो उसने आवाज दी : “अंबिका...ओ अंबिका !” पतिकी आवाज सुनकर अंबिका कांप उठी, उसे ऐसा लगा कि जरूर वह उसे मारने आया है, इसलिये वह दोनों बालकों को लेकर दौड़ी और नजदीक के एक कुँए में कूद पडी, तीनों के प्राणपखेर उड गये। सोमभट्ट वहाँ पहुँचा लेकिन देर हो चुकी थी। उसने कुँए में अपनी पत्नी और बालकों को देखा, वह समझ गया कि तीनों के प्राणपखेरू उड़ चुके हैं। वह भी कुँए में कूद पड़ा। कुछ ही क्षणों में उसकी भी मौत हो ग‌ई।

 

मरते समय अंबिका के भाव शुद्ध थे। इसलिये वह मरकर देवी हु‌ई लेकिन सोमभट्ट के भाव इतने शुद्ध न थे। वह मरणकंष्ट सहन करने के कारण अकाम निर्जरा से अंबिका देवी का वाहन सिंह हु‌आ ।