महावीर प्रभु राजगृही नगरी पधारे । महाराजा श्रेणिक, अभय कुमार, धारिणी देवी वगैरह ने भगवान की देशना सुनी, श्रेणिक राजा ने समकित का आश्रय किया और अभयकुमारने श्रावक धर्म अंगीकार किया । देशना के अंत में प्रभु को प्रणाम करके परिवार के साथ वे राजभवन पधारे । तब उनके एक पुत्र मेघकुमार ने भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर प्रार्थना की, “श्री वीरप्रभु जो भव्य लोकों को संसार से तारनेवाले है वे स्वयं यहाँ पधारे हुए हैं, उनके चरणों में जाकर दीक्षा ले लूँ क्योंकि में अनंत दुःखदायी संसार से थक गया हूँ !
पुत्र के ऐसे वचन सुनकर श्रेणिक और धारिणी बोले, “यह व्रत कुछ सरल नहीं है” मेघकुमार ने उत्तर दिया, “सुकुमार हूँ लेकिन संसार से भयभीत हूँ, इसलिये दुष्कर व्रत भी पालन कर लूँगा । श्रेणिक राजा ने विनंति की, एक बार राज्यभार ग्रहण करके मेरे मन को शांति दे दो । मेघकुमार सहमत हुए । बड़ा महोत्सव करके मेघकुमार को राजगद्दी पर बिठाया और हर्षित होकर श्रेणिक महाराजा नें मेघकुमार को कहा, “अब मैं और क्या करूँ? तब मेघकुमार ने कहा, “यदि आप वाकई मुझ पर प्रसन्न हुए हो तो मुझे रजोहरण एवं पात्र मंगवा दो।” वचनबद्ध होने से महाराजा को दुःखी मन से ऐसा करना पड़ा । मेघकुमार ने प्रभु के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की ।
दीक्षा की प्रथम रात्रि... छोटे बड़े साधु के क्रमानुसार मेघकुमार आखिरी संथारे पर सो रहे थे इसलिये आते-जाते मुनियों के चरण बार बार उनके शरीर से टकराते थे । इससे वे रात्रि को सो न सके । वे सोचने लगे, “अब मैं वैभवहीन हो गया इसलिए अन्य मुनि अपने पाँवों से संघट्ट (अपमान) करते जा रहे हैं । वैभव ही सर्व स्थानों पर पूजनीय है । मुझे व्रत छोड़ देना चाहिये व्रत छोडना मन ही मन तय करके वे प्रातः प्रभु के पास पहुंचे ।
प्रभु केवलज्ञानी होने से मेघकुमार के भाव जानकर उन्हें समझाने लगे, “तेरे पूर्व भव सुन । पूर्व भव में तू विंध्याचल पर्वत पर हाथी था । एक बार वन में दावाग्नि लगी । पूर्वभव के अनुभव से तूने पूर्व तैयारिरूप एक घासविहीन मण्डल बना रखा था वह छोटे बड़े सभी प्रकार के हजारों प्राणियों से भर गया । तू भी वहाँ खड़ा था । खुजली आने से एक पैर तूने खुजलाने के लिये ऊपर उठाया । इतने में एक खरगोश दावानल से बचने के लिए दूसरा सुरक्षित स्थान न मिलने के कारण वहाँ आकर बैठ गया । तूने नीचे देखा । पैर नीचे रखूँगा तो खरगोश मर जायेगा-ऐसा सोचकर पैर अधर ही रखा । ढ़ाई दिन बाद दावानल शांत हुआ । सब जानवर अपने-अपने स्थान पर लौटने लगे । खरगोश भी तेरे पैर के नीचे से निकल कर अपने स्थान पर चल पड़ा । क्षुधा ओर तृषा से पीडित होने से तूने पानी पीने जाने के लिये पैर नीचे रखा लेकिन लम्बे समय से पैर अधर होने से अकड़ा गया । तू चल न सका और पृथ्वी पर गिर पड़ा । इस प्रकार भूख-प्यास से पीडित तू तीसरे दिन मर गया ।” भगवानने पुनः याद कराते हुए कहा, “खरगोश पर की हुई दया के पुण्य से तू राजपुत्र बना । ज्यों त्यों यह मनुष्य भव प्राप्त हुआ है । हाथी के भव में तू इतनी पीडा सहन कर सका है तो मनुष्य भव में इतना छोटासा कष्ट सह नही सकता ? एक जीव को अभयदान देने से तुझे इतना बड़ा फल मिला तो सर्व जीवों को अभयदान देनेवाले मुनिरूप से प्राप्त होनेवाले फल की क्या बात ! !
भवसागर पार करने के लिए तुझे यह उत्तम अवसर मिला है। तूने जो व्रत स्वीकार किया है उसका भली प्रकार से पालन कर और भवसागर पार कर ले।” ऐसी प्रभुवाणी सुनकर मेघकुमार व्रत में स्थिर हुए । रात्रि को किये गलत विचार का प्रायश्चित करके विविध तप करने लगे । इस प्रकार उत्तम ढंग से व्रत पालन करके मृत्यु पाई और विजय विमान में देवता बने । वहाँ से च्यवकर महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष जायेंगे ।