एक यज्ञदेव नामक ब्राह्मण...क्षितिप्रतिष्ठित नगर में रहता था। वह हंमेशा जिनमत की निंदा करता था और स्वयं को पण्डित समझता था । उसने जाहिर किया कि जो मुझे शास्त्रार्थ में जीतेगा उसका में शिष्य बनूंगा। समय बीतने पर एक बालसाधु ने उसको शास्त्रार्थ करने के लिए अपने गुरु के पास आने का निमंत्रण दिया। खुश होकर यज्ञदेव उस बालसाधु के साथ उनके गुरु के पास गया। कुछ ही देर में वह हार गया और तय किये मुताबिक उसने गुरुसे दीक्षा ली। एक दिन शासनदेवी ने उससे कहा, “जिस प्रकार चक्षुवाला मनुष्य भी प्रकाश के बिना नहीं देख सकता, उसी प्रकार जीव ज्ञानी होने पर भी शुद्ध चारित्र के बिना मुक्ति नहीं पा सकता।” ऐसे वचन सुनकर यज्ञदेव मुनि अन्य सर्व यतियों की भाँति शुद्ध चारित्र पालने लगे।
यज्ञदेव के साधु बनने के कारण उनकी स्त्री विरहवेदना न सह पाई, इसलिये यज्ञदेव को वश करने के लिए तप के पारणे के दिन यज्ञदेव पर जादू-टोना किया। इससे यज्ञदेव का शरीर दूबला पड़ता गया ओर वे मृत्यु पाकर स्वर्ग में गये।
उसकी स्त्री भी यह दुःख सहन न कर पाई और वह भी दीक्षा ग्रहण करके स्वर्ग में गयी। लेकिन अपने संसारी पति के साधुपने में उन पर वशीकरण फेंका था इसकी गुरु के पास आलोचना न ली।
यज्ञदेव का जीव स्वर्ग से च्यवकर राजगृह नगर में धनसार्थवाह की चिलाती नामक दासी के उदर से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम चिलातीपुत्र रखा गया।
यज्ञदेव की स्त्री का जीव भी स्वर्ग से च्यवकर चिलाती दासी की सेठानी याने धनसार्थवाह की स्त्री सुभद्रा की कोख से पाँच पुत्रों के बाद छट्टी सुसुमा नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ।
धनसार्थवाह ने अपनी पुत्री को खेलाने के लिए चिलाती पुत्र को रखा। सुसुमा और चिलातीपुत्र साथ साथ खेलते लेकिन कोई कारण से सुसुमा रोने लगती तो चिलातीपुत्र उसके गुह्मांग पर अपना हाथ रखता तो सुख पाकर बाला सुसुमा रोना बंद कर देती।
कुछ समय पश्चात् श्रेष्ठी को इस बात की जानकारी मिली, तो उसने इस दासीपुत्र चिलातीपुत्र को अपने घर से निकाल दिया । यहाँ से निकाले जाने पर वह जंगल में गया और सिंहगुफा नामक भील लोगों की पल्ली में जा पहुँचा। पल्लीपति की मृत्यु होने पर उसका उत्तम शरीर सौष्ठव देखकर भील लोगों ने उसे अपना स्वामी बनाया । चिलातीपुत्र को सुसुमा की याद सताया करती थीं। विषयरूपी शस्त्र की पीड़ा बढ़ती चली, इस कारण वह अपने सर्व सेवकों को धन सार्थवाह के यहाँ चोरी करने ले गया एवं सेवकों से कहा, “जो माल सामान हाथ लगे वह आप का और सुसुमा मेरी ! रात्रि के समय सब चोर धन सेठ के यहाँ पहुँचे । बहुत चोरों को देखकर धनसेठ अपने पाँच पुत्रों को लेकर प्राण बचाने के लिए एकांत में छुप गये। सामना करनेवाला कोई न होने से चोरों ने खूब धन बटोरा और चिलातीपुत्र सुसुमा को उठाकर बिदा हो गये। चोरों के घर से बाहर निकलते ही सेठ ने कुहराम मचा दिया; नगररक्षक वहाँ आ गये। उन्हें लेकर सेठने अपने पुत्रों के साथ चोरों का पीछा किया। नगररक्षकों और सेठ को अपने पीछे आते देखकर चोरी का माल रास्ते के बीच छोडकर चोर भाग गये। अपने पीछे सेठ और पाँच पुत्रोंको आते देखकर चिलातीपुत्र ने सुसुमा की हत्या कर डाली, तेज हथियार से उसका सिर काटकर उसने अपने हाथ में ले लिया व धड वहीं पर छोड़कर भाग गया। सेठ और पुत्रोंने सुसुमा का धड देखा। सेठ ने अपनी पुत्री और पाँचों भाइयों ने अपनी बहिन की ऐसी क्रूरतापूर्ण मृत्यु देखकर बड़ा विलाप किया और घर लौटते समय वीर प्रभु का उपदेश सुना। देशना सुनकर पाँच पुत्रों ने श्रावक धर्म स्वीकारा और सेठ ने तो संयम ही ग्रहण कर लिया। उत्तम संयम पालकर तथा उग्र तपश्चर्या करके सेठ स्वर्ग पधारे । चिलातीपुत्र सुसुमा का सिर हाथ में लेकर तेजी से मार्ग काट रहा था। उसका पूरा शरीर खून से लथपथ था और सुसुमा की मौत के कारण वह मानसिकरूप से टूट चुका था। उसे अपने आप पर बहुत गुस्सा आ रहा था। मार्ग में उसने एक मुनिराज को कायोत्सर्ग में खड़े देखा। देखते ही वह बोला, हे मुनीश्वर ! जल्दी से मुझे धर्म कहिये, नहीं तो मैं इस स्त्री के मस्तिष्क की भाँति आपका मस्तिष्क भी उडा दूंगा। मुनि को उसमें कुछ पात्रता लगी इसलिये उन्होंने “उपशम, विवेक, संवर” इन तीन पदों का उच्चारण किया और आकाशमार्ग में उड गये।
चिलातीपुत्र ने सोचा, “मुनि ने आकाशगामिनी विद्या का उच्चारण किया या कुछ मंत्राक्षर कहे ? या कोई धर्ममंत्र कहा ? ऐसे चिन्तन करते हुए वह मुनि की जगह खड़ा रहा और उपशम विवेक और संवर इन तीन पदों का ध्यान धरने लगा। वह ध्यान के साथ सोचता गया कि इन तीन शब्दों का अर्थ क्या ? सोचते सोचते उसने अपने आप उपशम शब्द का अर्थ बिठाया कि “उपशम याने क्रोध की उपशांति, क्रोध का त्याग ऐसा समझकर उसने उपशम को आत्मसात् किया। फिर विवेक शब्द का अर्थ विचारते हुए उसे समझ में आया कि “करने योग्य को अंगीकार करना और अकरणीय का त्याग करना सो विवेक है।! यों समझकर उसने विवेक ग्रहण किया। अन्त में संवर शब्द का अर्थ भी वह यों समझा कि “पांच इन्द्रियों के जो तूफान है उसका निरोध अर्थात् पाँच इंद्रियों को उनके विषय में जाते हुए रोकना उसका नाम है संवर ।” यह अर्थ समझकर उसने संवर का भी प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार वह चिलातीपुत्र इस त्रिपदी का ध्यान धरते हुए वहीं कायोत्सर्ग में खडा रहा। उसका पूरा शरीर खून से सराबोर था। उसकी गंध से सूई जैसे मुखवाली (शुचिमुखी) चींटिया आकर उसे काटने लगी। काटते काटते असंख्य चींटियों ने उसका शरीर छलनी जैसा कर डाला। उसने सर्व वेदना धीरजपूर्वक सहन की और ढाई दिन में देहत्याग कर वह स्वर्ग में गया।
इस प्रकार सिर्फ ढाई दिन में उपशम, विवेक और संवर शब्दों का रहस्यार्थ समझ लिया और चींटियों के दंश की असह्य पीड़ा शांत चित्त से सहन करके चिलातीपूत्र स्वर्ग गये। ऐसे चिलातीपुत्र को हमारे लाख लाख वंदन...