बालक जैसा देखता है, वैसा ही कह भी देता है । क्योंकि उसका हृदय पवित्र रहता है । यहाँ मैं जिनभगवान् को नमस्कार कर एक ऐसी ही कथा लिखता हूँ, जिसे पढ़कर सर्वसाधारण का ध्यान पाप कर्मों के छोड़ने की ओर जाय ।

 

कौशाम्बी में जयपाल नाम के राजा हो गये हैं । उनके समय में वहीं एक सेठ हुआ है । उसका नाम समुद्रदत्त था और उसकी स्त्री का नाम समुद्रदत्ता । उसके एक पुत्र हुआ । उसका नाम सागरदत्त था । वह बहुत ही सुन्दर था । उसे देखकर सबका चित्त उसे खिलाने के लिये व्यग्र हो उठता था । समुद्रदत्त का एक गोपायन नाम का पड़ोसी था । पूर्वजन्म के पापकर्म के उदय से वह दरिद्री हुआ । इसलिये धन की लालसा ने उसे व्यसनी बना दिया । उसकी स्त्री का नाम सीमा था । उसके भी एक सोमक नाम का पुत्र था । वह धीरे-धीरे कुछ बड़ा हुआ और अपनी मीठी और तोतली बोली से माता पिता को आनन्दित करने लगा ।

 

एक दिन गोपायन के घर पर सागरदत्त और सोमक अपना बाल सुलभ खेल खेल रहे थे । सागरदत्त इस समय गहना पहने हुए था । उसी समय पापी गोपायन आ गया । सागरदत्त को देखकर उसके हृदय में पाप वासना हुई । दरवाजा बन्द कर वह कुछ लोभ के बहाने सागरदत्त को घर के भीतर लिवा ले गया । उसी के साथ सोमक भी दौड़ा गया । भीतर ले जाकर पापी गोपायन ने उस अबोध बालक का बड़ी निर्दयता से छुरी द्वारा गला घोंट दिया और उसका सब गहना उतारकर उसे गड्ढे में गाड़ दिया ।

 

कई दिनों तक बराबर कोशिश करते रहने पर भी जब सागरदत्त के माता पिता को अपने बच्चे का कुछ हाल नहीं मिला, तब उन्होंने जान लिया कि किसी पापी ने उसे धन के लोभ से मार डाला है । उन्हें अपने प्रिय बच्चे की मृत्यु से जो दुःख हुआ उसे वे ही पाठक अनुभव कर सकते हैं जिन पर कभी ऐसा दैवी प्रसंग आय हो । आखिर बेचारे अपना मन मसोस कर रह गये । इसके सिवा वे और करते भी तो क्या ?

 

कुछ दिन बीतने पर एक दिन सोमक समुद्रदत्त के घर के आँगन में खेल रहा था । तब समुद्रदत्ता के मन में न जाने क्या बुद्धि उत्पन्न हुई सो उसने सोमक को बड़े प्यार से अपने पास बुलाकर उससे पूछा- भैया, बतला तो तेरा साथी समुद्रदत्त कहाँ गया है ? तूने उसे देखा है ?

 

सोमक बालक था और साथ ही बालस्वभाव के अनुसार पवित्र हृदयी था । इसलिये उसने झट से कह दिया कि वह तो मेरे घर में एक खाड़े में गड़ा हुआ है । बेचारी सागरदत्ता अपने बच्चे की दुर्दशा सुनते ही धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ी । इतने में सागरदत्त भी वहीं आ पहुँचा । उसने उसे होश में लाकर उसके मूर्च्छित हो जाने का कारण पूछा । सागरदत्ता ने सोमक का कहा हाल उसे सुना दिया । सागरदत्त ने उसी समय दौड़े जाकर यह खबर पुलिस को दी । पुलिस ने आकर मृत बच्चे की लाश सहित गोपायन को गिरफ्तार किया, मुकदमा राजा के पास पहुँचा । उन्होंने गोपायन के कर्म के अनुसार उसे फाँसी की सजा दी । बहुत ठीक कहा है—

 

पापी पापं करोत्यत्र प्रच्छन्नमपि पापतः ।

तत्प्रसिद्धं भवत्येव भवभ्रमण दायकः ।। --ब्रह्म नेमिदत्त

 

अर्थात् पापी लोग बहुत छुपकर भी पाप करते हैं, पर वह नहीं छुपता और प्रगट हो ही जाता है । और परिणाम में अनंत काल तक संसार के दुःख भोगना पड़ता है । इसलिये सुख चाहने वाले पुरुषों को हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि पाप, जो कि दुःख देने वाले हैं, छोड़कर सुख देने वाला दयाधर्म, जिनधर्म ग्रहण करना उचित है ।

 

बालपने में विशेष ज्ञान नहीं होता, इसलिये बालक अपना हिताहित नहीं जान पाता, युवावस्था में कुछ ज्ञान का विकास होता है, पर काम उसे अपने हित की ओर नहीं फटकने देता और वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ जर्जर हो जाती हैं, किसी काम के करने में उत्साह नहीं रहता और न शक्ति ही रह जाती है । इसके सिवा और जो अवस्थायें हैं, उनमें कुटुम्ब परिवार के पालन पोषण का भार सिर पर रहने के कारण सदा अनेक प्रकार की चिंतायें घेरे रहतीं हैं कभी स्वस्थचित्त होने ही नहीं पाता, इसलिये तब भी आत्महित का कुछ साधन प्राप्त नहीं होता । आखिर होता यह है कि जैसे पैदा हुए, वैसे ही चल बसते हैं । अत्यंत कठिनता से प्राप्त हुई मनुष्य पर्याय को समुद्र में रत्न फेंक देने की तरह गँवा बैठते हैं । और प्राप्त करते हैं वही एक संसार भ्रमण । जिसमें अनंत काल ठोकरें खाते-खाते बीत गये । पर ऐसा करना उचित नहीं; किंतु प्रत्येक जीवमात्र को अपने आत्महित की ओर ध्यान देना परम आवश्यक है । उन्हें सुख प्रदान करने वाला जिनधर्म ग्रहण कर शांतिलाभ करना चाहिये ।