समुद्र के मध्य में आर्द्रक नामक देश है। आर्द्रक उसका मुख्य नगर है वहाँ आर्द्रक नामक राजा था। उसे आर्द्रक रानी से आर्द्रकुमार नामक पुत्र हुआ था। युवावस्था प्राप्त होने पर वह यथारुचि सांसारिक भोग भोगने लगा।
आर्द्रक राजा और श्रेणिक राजा परम्परागत स्नेह से बंधे हुए थे। एक बार श्रेणिक राजा ने अपने मंत्री को कई उपहारों के साथ आर्द्रक राजा के पास भेजा। उन उपहारों को स्वीकार करके आर्द्रक राजा ने बंधु श्रेणिक की कुशलता पूछी। यह देखकर आर्द्रकुमार ने पूछा : ’हे पिताजी! यह मगधेश्वर कौन है जिनके साथ आपका इतना अधिक स्नेह है” तब राजा ने कहा, “श्रेणिक नामक मगध के राजा हैं और हमारी कुल परम्परा से उनके साथ सम्बन्ध चला आ रहा है।” यह सुनकर वहाँ आये हुए मंत्रीश्वर को आर्द्रकुमार ने पूछा : “इस मगधेश्वर का कोई गुणवान पुत्र है ? अगर हैं तो मैं उसे मेरा मित्र बनाना चाहता हूँ।” तब मंत्रीश्वरने जवाब दिया कि हाँ, बुद्धि के भण्डाररूप अभयकुमार उनके पुत्र है।
यह सुनकर विदा होते मंत्रीश्वर को आर्द्रकुमार ने मूंगें और मुक्ताफल वगैरह अभयकुमार के लिए मैत्री के प्रतीकरूप दिये।
आर्द्रकुमार के इस मैत्रीपूर्ण बर्ताव से प्रसन्न होकर अभयकुमार ने सोचा, कोई श्रमणपने की विराधना के कारण यह कुमार आर्द्रक अनार्य देश में उत्पन्न हुआ है। उसके मित्र होने के नाते मुझे उसे धर्मी बनाना चाहिये। ऐसा सोचकर प्रभु आदिनाथ की एक अर्हत प्रतिमा संदूक में रखकर एक दूत द्वारा आर्द्रकुमार को भेज दी और संदेशा भेजा कि इस संदूक को एकांत में खोलें।
संदूक खोलते ही आर्द्रकुमार को श्री आदिनाथ की मनोहर, अप्रतिम प्रतिमा नजर आई। कुछ क्षणों तक वह कुछ समझ न पाया। लेकिन सोचते सोचते, ऐसा मैंने पूर्व भवमें कहीं देखा है, यों चिंतन करते करते उसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। उसमें उसने देखा कि “इस भव से पूर्व तीसरे भव में मैं मगधदेश के वसंतपुर गाँव में सामापिक नामक कणबी था। कर्माधीन धर्मवर्जित अनार्य देश में अब मैं उत्पन्न हुआ हूँ। मुझे प्रतिबोधित करनेवाले अभयकुमार वाकई मेरे बंधु और गुरु है। इसलिये अब पिताजी की आज्ञा लेकर मैं आर्यदेश में जाऊँगा जहाँ मेरे मित्र विद्यमान है ।” लेकिन पिता ने आर्द्रकुमार को मगध जाने की अनुमति न दी और आर्द्रकुमार किसी भी प्रकार से भाग न जाये इसलिये सामंतों को सख्त बंदोबस्त रखने का हुक्म दिया।
आर्द्रकुमारने अपने लोगों से एक जहाज तैयार करवाया। उसमें रत्न भरे और एक दिन भगवान आदिनाथ की मूर्तिवाला सन्दूक लेकर सबको चकमा देकर जहाज पर चढ़कर आर्य देश में आ गया।
यहाँ आकर प्रभुप्रतिमा अभयकुमार को वापिस लौटा दी और धन सात क्षेत्र में खर्च करके स्वयं अपने तरीके से यतिलिंग ग्रहण किया। उस समय देवताओं ने आकाशवाणी की, ’हे महासत्त्व तू अभी दीक्षा ग्रहण मत कर, क्योंकि तेरे कई भोग्य कर्म बाकी हैं। उन्हें भोगने के बाद ही दीक्षा लेना, देवों के ऐसे वचनों का अनादर करके आर्द्रकुमारने स्वयं अपने आप दीक्षा ग्रहण कर ली ओर तीव्रतासे व्रत पालते हुए विहार करने लगे।
विहार करते करते वे वसंतपुर नगर में आये और नगर के बाहर एक देवालय में समाधि अवस्था में कायोत्सर्ग में खड़े रहे ।
इस नगर में देवदत्त नामक एक बड़ा सेठ था। श्रीमती नामक उसकी अत्यंत रूपवती पुत्री थी। एक बार नगर की अन्य बालाओं के साथ पतिरमण नामक खेल खेलने वह देवालय में आईं, जहाँ आर्द्रकुमार समाधि अवस्था में खड़े थे। खेल खेल में बालिकाएँ बोली, ’सखियों ! सब अपनी अपनी पसंदगी के वर चुन लो ।” इसलिए सर्व कन्याओंने अपनी अपनी रुचि अनुसार पेड़ के तनों को वर के रूप में पसंद किया। लेकिन श्रीमती ने कहा, ’हे सखियों ! मैंने तो इन खड़े भट्टारक मुनि को वररूप में चयन किया है।” उस समय देवताओं ने आकाश में रहकर कहा : “शाबाश, तूने सही चयन किया है।” इस प्रकार कहकर गर्जना करके देवों ने रत्नों की वृष्टि की। गर्जना से घबराकर श्रीमती मुनि के चरणों से लिपट पड़ी। इससे मुनि ने सोचा कि यहाँ थोडी देर ठहरने से भी मुझे व्रतरूपी वृक्ष के लिये तुफान जैसा अनुकूल उपसर्ग हुआ, अतः यहाँ ज्यादा देर ठहरना योग्य नहीं।” यों सोचकर आर्द्रमुनि तुरंत वहाँ से विहार करके अन्यत्र चल दिये।
रत्नों की जो वृष्टि हुई थी, वे रत्न लेने वहाँ का राजा राजपुरुषों के साथ आया तब देवालय में रत्नों के आसपास अनेक सर्प पड़े हुए थे। उस समय देवता ने आकाश में रहकर कहा : "मैंने यह द्रव्य श्रीमती के ब्याह निमित्त दिया है, अन्य किसीका इस पर अधिकार नहीं है।” यह सुनकर राजा निराश होकर वापिस लौटा। श्रीमतीके पिताने उस द्रव्यको बटोरकर अलग रखा।
ब्याह योग्य उम्र होते ही श्रीमती को वरने के लिये कई युवक वसंतपुर आये। उसके पिता ने उसे योग्य वर पसंद करने का कहा। श्रीमती बोली, ’पिताजी ! मैं तो जैन मुनि को वर चुकी हूँ। वही मेरा दुल्हा है और देवताओं ने उसे वरनेके लिये ही द्रव्य दिया है, जो द्रव्य आपने लिया है। इसलिये आप भी उसमें सम्मत हुए हो, अब उन मुनिवर के सिवाय अन्य कोई वर मुझे मान्य नहीं है। क्या आप नहीं जानते कि राजा एक बार ही बोलता है, मुनि एक बार ही बोलते हैं और कन्या भी एक बार ही दी जाती है ?
सेठ ने कहा, है पुत्री ! अब वे मुनि मिलेंगे कैसे ? क्योंकि वे तो विहार कर चले गये हैं। वे एक स्थान पर तो रहते नहीं। वे मुनि यहाँ पुनः आयेंगे या नहीं ? यदि आये तो भी वे किस तरह पहचाने जायेंगे ?’
श्रीमती ने कहा, ’उस समय देवताओं की गर्जना से मैं बहुत भयभीत हो गई थी और बंदरिया की तरह उनके पैरों से लिपट पड़ी थी। उस समय मैंने उनके चरण में एक चिह्न देखा था। उस चिह्न से मैं उन्हें जरूर पहचान सकूँगी। हे पिता ! आप ऐसी व्यवस्था कीजिये कि जिससे यहाँ आते-जाते सब साधुओं को मैं प्रतिदिन देख सकूं ।” सेठने पुत्री के लिये ऐसा प्रबन्ध कर दिया जिससे हरेक साधु रोज वहाँ आये और स्वयं भिक्षा देवें। भिक्षा देते समय श्रीमती उनकी वंदना करती, उनके चरण के चिह्न देखती। ऐसा करते करते बारह वर्ष बीत गये । संयोगवश आर्द्रमुनि वहाँ पधारे। श्रीमती ने वंदना करते हुए, चरण पर चिह्न देखकर उन्हें पहचान लिया और उनसे लिपट कर बोली, ’हे नाथ ! उस देवालय में मैं आपको वरी थी। आप ही मेरे पति हैं। उस दिन तो आप मुझे छोड़कर चल दिये लेकिन आज नहीं जा सकोगे। यदि क्रूरतापूर्वक मेरी अवज्ञा करके चले जाओगे तो मैं अग्नि में कूद पडूँगी और स्त्रीहत्या का पाप आपको लगेगा।!
व्रत लेते समय उसका निषेध करती हुई जो दिव्यवाणी हुई थी वह मुनि को याद आई “भावि कभी मिथ्या नहीं हो सकता” ऐसा मानकर उन्होंने श्रीमती से शादी की।
आर्द्रकुमार को श्रीमती के साथ भोग भोगने से एक पुत्र हुआ। वह थोडा बड़ा हुआ तो टूटा-फूटा बोलने लगा। अब पुत्र बड़ा हो गया देखकर आर्द्रकुमार ने दीक्षा लेने की भावना श्रीमती को बताई। यह बात पुत्र को बताने के लिए बुद्धिमान श्रीमती रुई की पूनी से चरखा कातने लगी। पुत्र ने पूछा : है माँ! साधारण मनुष्यों की भाँति तू यह कार्य क्यों कर रही है ? वह बोली, ’हे वत्स ! तेरे पिता दीक्षा लेने जा रहे हैं। उनके जाने के पश्चात् मैं पतिरहित हो जाऊँगी तब इस तकुए का ही सहारा होगा मुझे ।” बचपन की तोतली लेकिन मधुर वाणी में पुत्र बोला, “माता ! मैं मेरे पिता को बॉँधकर पकड़ रखूँगा, फिर वे कैसे जा सकेंगे ?” इस प्रकार कहकर बालक पिता के चरणों को तकुए के सूत से लपेटने लगा और बोला, “माँ! अब डरो मत, स्वस्थ हो जाओ । देखो, मैंने पिता के पैर बाँध दिये है, बंधे हुए हाथी समान वे जायेंगे कैसे ? बालक की चेष्टा देखकर आर्द्रकुमार ने सोचा, “अहो...इस बालक का स्न्नेहबंधन कैसा है जो मुझे बाँध रखता है। उसके स्न्नेह से वश हुआ मैं शीघ्र दीक्षा न लूंगा। बालक ने सूत से जितने बट लिये हैं उतने वर्ष मैं गृहस्थाश्रम में रहुँगा । उन्होंने पैर के तंतुबंधन के बट गिने जो बारह थे। इस के लिये बारह वर्ष उन्होंने गृहस्थाश्रम में निर्गमन किये और एक प्रातः श्रीमती को समझाकर यतिलिंग धारण करके निर्मम मुनि बनकर घर से चल पड़े।
मार्ग में आर्द्रकपुर से उन्हें ढूंढने आये पाँचसौ सामंत मिले। वे आर्द्रकुमार को ढूंढ न सके थे, इसलिये राजा को मुँह भी नहीं दिखा सकते थे और आजीविका के लिये चोरी का धंधा करते थे। धर्मदेशना सुनाकर उन पाँचसौ सामंतों को दीक्षा दी। आगे विहार करते हुए वे एक तापसों के आश्रम में पहुँचे, जहाँ मांसभक्षण हेतु एक हाथी को बांध रखा था। आर्द्रमुनि को कई लोग मस्तक झुका रहे थे। यह देखकर लघुकर्मी हाथी ने सोचा, “मैं यदि छूट जाता तो शीश झुकाकर इन मुनि की वंदना करता । ऐसा सोचते हुए महर्षि के दर्शन होते ही लोहे के बंधन टूट गये और गजेन्द्र छूट कर महामुनि की वंदना के लिए आगे बढ़ा। हाथी मुनि को मार डालेगा यह सोचकर उससे बचने के लिए लोग दूर भाग गये, लेकिन मुनि तो वहीं खड़े रहे।
हाथी ने मुनि के पास आकर कुंभस्थल झुकाकर प्रणाम किया और सूंढ से चरणस्पर्श भी किया। उसे खूब शान्ति प्राप्त हुई और वह दूर चला गया। हाथी के भाग जाने से सब तापस आर्द्रमुनि पर क्रोधित हुए थे, उन्हें बोध देकर प्रभु महावीर के समवसरण में भेज दिया। वहाँ जाकर उन सबने संवेगी दीक्षा ले ली I
राजग॒ही में श्रेणिक राजा और अभयकुमार ने ’गजेन्द्रमोक्ष की यह बात सुनी और आर्द्रमुनि के पास आये। भक्तिपूर्वक वंदना करके कहा: “मुनि! आपके किये हुए गजेन्द्रमोक्ष से हमें आश्चर्य होता है।” मुनि बोले, ’हे राजेन्द्र !गजेन्द्र मोक्ष मुझे दुष्कर नहीं लगा लेकिन तकुओ के सूत के पाश में से छूटना दुष्कर लगा है ।” राजा ने पूछा, “किस प्रकार !” मुनिने बालक के बांधे हुए तकुओ के सूत की कथा कही, जिसे सुनकर राजा एवं अन्य लोग भी चकित हो गये।
पश्चात् आर्द्रकुमार मुनिने अभयकुमार को कहा, ’हे बंधु! आप मेरे उपकारी धर्मबंधु हैं। आपकी भेजी हुई अर्हत की प्रतिमा के दर्शन से मुझे जातिस्मरणज्ञान हुआ और मैं आर्हत बना। हे भद्र ! आपने मेरा उद्धार किया है। आपकी बुद्धि के प्रताप से मैं इस आर्यदेश में आया और आपसे ही प्रतिबोधित होकर मैंने दीक्षा पाई है। हे बंधु! आपका कल्याण हो।’
राजगृह में विराजित वीर प्रभु की वंदना और चरणकमल की सेवा करते हुए आर्द्रमुनि ने मोक्ष प्राप्त किया I