जंबूदीप के पूर्व महाविदेह में पुंडरीकिणी नगरी में घनरथ राजा थे। उनके प्रियमती नामक पत्नी थी। उनके यहाँ मेघरथकुमार का जन्म हु‌आ। योग्य अवसर पर पिता ने मेघरथ को राज्य सौंपा । मेघरथ भली-भांति जैन धर्मका पालन करते थे।

 

एक दिन पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके वे भगवंत भाषित धर्म का व्याख्यान कर रहे थे। उस समय मरणोन्मुख भय से कंपित दीन दृष्टि से देखता हु‌आ एक कबूतर उनकी गोद में आ गिरा और मनुष्य भाषा में अभय की भिक्षा मांगने लगा। करुणासागर राजा ने “डरो मत, डरो मत” कहकर आश्वासन दिया। कुछ ही क्षणों में, ’हे राजन ! वह मेरा भक्ष्य है, मुझे शीघ्र सौंप दे कहता हु‌आ एक बाज पक्षी वहाँ आ पहुँचा। राजा ने कहा: “तुझे यह कबूतर मैं नहीं दूंगा, क्योंकि यह मेरी शरण में आया है और शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियधर्म है। ऐसे प्राणी को मार खाना तुझ जैसे बुद्धिमान को शोभा नहीं देता तेरे शरीर पर से एक पंख उखाडने से तुझे कैसी पीड़ा होगी ? वैसी ही पीड़ा अन्य को भी होगी। तू यह सोचता नहीं है कि किसी को मार ड़ालने से उसे कितनी पीडा होती होगी ? और ऐसी जीवहिंसा से तेरा पेट तो भर जायेगा लेकिन नरकगामी पाप तू कर रहा है, उसका जरा विचार तो कर, तब बाज पक्षी ने कहा, “आप कबूतर का रक्षण कर रहे हो, तो मेरा विचार क्‍यों नहीं करते ? मैं भूख से पीड़ित हूँ, मेरे प्राण निकल जायेंगे। मांस ही मेरी खुराक है। मुझे ताजा मांस आप दोगे ?!

 

राजा अपने देह का गोश्त देने के लिये तैयार हो गया। कबूतर के तौल जितना मांस देने के लिये तराजू मंगवाया, एक पलड़े में कबूतर को बिठाकर दूसरी ओर अपने शरीर से मांस काटकर रखने लगा। मांस कटता गया लेकिन कबूतर के वजन से कम ही वजन रहा, अंत में राजा ने अपना पूरा शरीर तुला में रखकर कबूतर के बराबर तोल किया । राजा को तुला में बैठा देखकर पूरे परिवार में हाहाकार मच गया। सामंत, अमात्य, मित्रों ने राजा को कहा ; “अरे प्रभु ! हमारे दुर्भाग्य से आप यह क्‍या कर रहे हो ? इस देह से आपको पूरी पृथ्वी का रक्षण करना चाहिये। मात्र एक पक्षी के रक्षण हेतु शरीर का त्याग क्‍यों कर रहे हो ? यह तो को‌ई मायावी पक्षी लगता है क्‍योंकि ! सामान्य पक्षी का इतना भार होना संभव नहीं ।” परिवार और नगरजन  वगैरह ऐसा कह रहे थे इतने में मुकुट, कुण्डल और माला सहित । तेजपुंज जैसे को‌ई देवता प्रकट हु‌ए ओर बोले, ’हे नृपति ! आप वाक‌ई । मेरु पर्वत जैसे हैं, स्वस्थान से किंचित्‌ भी चलित हु‌ए नहीं । ईशानेंद्र ने अपनी सभा में आपकी प्रशंसा की वह हमसे सहन न हो सकने के कारण हम आपकी परीक्षा करने आये थे। हमारा यह अपराध क्षमा करे ।” इस प्रकार कहकर राजा को पूर्ववत्‌ करके देवता स्वर्ग में गये। तत्पश्चात्‌ मेघरथ राजाने संयम ग्रहण किया और बीसस्थानक का तप विधिपूर्वक करके तीर्थंकर गौत्र का बंध किया और एक लाख पूर्व का आयुष्य भोगकर बारहवें भव में अचिराजी की कोख से जन्म लेकर श्री शांतिनाथ नामक सोलहवें तीर्थंकर बने।