चंपानगरी से विहार करके महावीर प्रभु दशार्ण नगर पधार रहे थे। वहाँ के राजा दशार्णभद्र को शाम को समाचार मिले कि कल प्रातः वीर प्रभु मेरे नगर में पधारेंगे। सुनकर राजा बड़ा हर्षित हुआ। मेरी समृद्धि से भगवान का अपूर्व स्वागत करके वंदना करूंगा ऐसा सोचकर मंत्री वगैरह को आज्ञा दी, ’मेरे महल से समवसरण तक बड़ी समृद्धि से मार्ग सजाओ।
राजा की अज्ञानुसार, पहले कभी न सजाया हो ऐसे ढंग से नगरपति एवं मंत्रियों ने मार्ग सजाया। मार्ग में कुंकुम जल छिड़का भूमि पर सुंदर पुष्प बिछाये। जगह जगह सुवर्णस्तंभ खड़े करके तोरण बाँधे। रत्नमय दर्पणों से शोभित मालाओं से स्तंभ सजाये । फिर राजा स्नान करके दिव्य वस्त्र, आभूषण, पुष्पमाला धारण करके उत्तम हाथी पर बैठकर प्रभु की वंदना के लिए चल पडा। मस्तिष्क पर श्वेत छत्र था और दोनों ओर चँवर ढुल रहे थी। उनके पीछे सब सामंत और उनके बाद इन्द्राणी जैसी अंतःपुर की रूपवती स्त्रियाँ वगैरह चल रहे थे। प्रभु के समवसरण में पहुँचकर तीन प्रदक्षिणा देकर प्रभु की वंदना की और अपनी समृद्धि से गर्वित राजा अपने योग्य आसन पर बैठा।
अपनी समृद्धि का गर्व दशार्णपति को हुआ देखकर उसे प्रतिबोध देने के लिए इन्द्र महाराज ने एक अति रमणीय जलयुक्त विमान का विस्तार किया। स्फटिक मणि जैसे उसके निर्मल जल में सुंदर कमल खीले हुए दीख रहे थे। हंस और सारस पक्षियों का मधुर प्रतिनाद हो रहा था। देववृक्ष और देवलताओं से झडते पुष्पों से विमान शोभित था । विमान से उतरकर इन्द्र महाराज आठ दंतूशलों से शोभित ऐरावत हाथी पर बैठने गये। उस समय हाथी पर बैठी हुई देवांगनाओं ने हाथ का सहारा देकर उन्हें बिठाया। इन्द्र की ऐसी असीम समृद्धि देखकर क्षणभर के लिए राजा स्तंभित हो गया और विस्मित नेत्रों से आँखे फाड-फाड कर देखने लगा । उसे विचार आया, “अहो ! इन्द्र का यह कैसा वैभव है ? कितना सुंदर उसका ऐरावत हाथी है ? कहाँ मेरा डबरे जैसा वैभव और कहाँ इन्द्र का समुद्र जैसा वैभव ! मैंने व्यर्थ ही अपनी समृद्धि का गर्व किया। धिक्कार है मुझे, मैंने झूठा गर्व करके मेरी आत्मा को मलिन किया। ऐसी भावना करते करते दशार्णभद्र राजा को धीरे धीरे वैराग्य उत्पन्न हुआ। मुकुंट, आभूषण का त्याग कर, मानो कर्मरूप वृक्षों की जड़े खींच निकाल रहे हो, वैसे अपनी मुष्टि से मस्तिष्क के बाल खींच डाले और गणधर के पास जाकर चारित्र ग्रहण करके परिक्रमा करके प्रभु को वंदन किया। तब इन्द्र ने दशार्णभद्र के पास आकर कहा, “अहो महात्मन् ! अपने इस महान पराक्रम से आपने मुझे जीत लिया है।” ऐसा कहकर नमस्कार करके इन्द्र अपने स्थान पर लौट पड़े और दशार्णभद्र मुनि ने सुचारुरूपसे व्रत का पालन करके स्वयं को धन्य बनाया।