अयोध्या में इक्ष्वाकु वंशीय राजा विजय को हिमचूला पटरानी से वज्रबाहु नामक पुत्र हुआ था। वह सरल स्वभावी और बुद्धिमान था। धर्म के प्रति और महापुरुषों के प्रति उसके हृदय में उत्तम कोटि का अनुराग भरा पड़ा था। उसकी मँगनी नागपुर के इभ्रवाहन राजा के यहाँ हुई थी। माता चूडामणि की लाडली बेटी मनोरमा का स्नेह वज्रबाहु के साथ बंधा हुआ था। वह भी सुशील, संस्कारी और धार्मिक स्वभाववाली थी। निश्चित समय पर उनका ब्याह बडी धूमधाम से नागपुर में हुआ I
वस्त्र, अलंकार, हाथी, घोड़े आदि दहेज के साथ वज्रबाहु बिदा हुए। मनोरमा का बड़ा भाई उदयसुंदर बहन मनोरमा को छोड़ने उसके रथ का सारथि बनकर निकला है। वज्रबाहु के मित्र एवं अन्य राजपरिवार धीरे धीरे मार्ग काट रहे हैं। रथ में वज्रबाहु एवं मनोरमा नवदम्पति बैठे हैं। सारथि के रूप में उदयसुंदर धीरे धीरे रथ चला रहा हैं। कई कोस का मार्ग काटने के पश्चात् वृक्षों की घटाओं से चारों और घिरे गहन जंगल में सब आ पहुँचते हैं। कोयल के मीठे स्वर सुनाई दे रहे है। पास में बहते झरने कलकल के मधुर नाद से कर्णों को आनंदित कर रहे है। एकांत में आत्मकल्याण साधक मुनिवरों को यह स्थान बहुत ही अनुकूल था। इस जंगल का आनंद लेने के लिए वज्रबाहु ने अपना सिर बाहर निकाला तो उसकी दृष्टि सामने एक टीले पर पड़ी। वहाँ एक मुनिवर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े थे। तेजस्वी शरीरकांति व ध्यान में सुस्थिरता देखकर वज्रबाहु की गुणानुरागी आत्मा महर्षि के पुण्य दर्शन के लिए उत्कंठित बनी।
सारथि बने अपने साले उदयसुंदर को वज्रबाहु ने रथ खड़ा रखने की सूचना देते हुए कहा, “सामने वाले टीले पर ध्यानस्थ अवस्था में खड़े मुनिराज के पुण्य दर्शन कर लें।
उदयसुंदर यह सुनकर बड़ा चकित हो गया। उसे लगा कि यह कैसा धर्म का बावलापन ! अभी कल ही ब्याह हुआ है रथ में एकांत है। दोनों वरवधू के बीच प्रेम, आनंद व कुतूहल की बात करने का सुंदर अवसर है। यह सब छोड़कर साधु के दर्शन करने की कैसी बात बहनोई कर रहे हैं ? वाकई यह मनुष्य एक अजूबा है। विचार भंवर में पड़े उदयसुंदर से रहा नहीं गया, उसने हँसते हँसते बहनोई को टोका, “साधु तो नहीं बनना है न? दीक्षा लेनी है क्या? उदयसुंदरने मजाक में कहा तो सही लेकिन वज्रबाहु की आत्मा सामान्य तो न थी। उसके जीवनमें बाल्यकाल से ही साधुओं के प्रति अनुराग भरा पड़ा था। कुलसंस्कार, माँ-बाप आदि बुझुर्गों की धर्मभावना वज़्रबाहु में भरी पड़ी थी, इस कारण वज्रबाहु ने उत्तर में कहा, “हाँ, श्री जिनेश्वर के पवित्र त्यागमार्ग के प्रति किसका मन न हो ? दीक्षा की भावना तो हैं परंतु...।’
’परंतु बरंतु क्या करते हो जीजाजी ? भावना है तो हो जाओ तैयार। मैं करूंगा मदद आपको” उदयसुंदर अब भी मजाक समझकर बात बढ़ा रहा था। लेकिन साले की हँसी को बहनोई ने सगुन की गाँठ मानकर उत्तर दिया, "मैं तेयार हूँ, आप सहाय करने बैठे हैं तो मुझे और क्या चाहिये ? अपने वचन का पालन करना।” ऐसा कहकर वज्रबाहु शीघ्र ही रथ से उतर पड़े। वज्रबाहु की नीडर स्पष्ट वाणी सुनकर उदयसुंदर चमक पड़ा, उसे लगा कि यह तो रंग में भंग पड जायेगा। वज्रबाहु यूँ उलटी गंगा बहा देंगे ऐसा उदयसुंदर की कल्पना में भी न था।
वह बात को बदलते हुए कहने लगा, “भाई ! आप ऐसे चल पड़ो यह कैसे हो सकता है ? मैंने तो साले के नाते बहनोई की मसखरी ही की है। ऐसी छोटी बात को इतना बड़ा रूप देना आप जैसो के लिये योग्य नहीं है।
लेकिन वज्रबाहु की आत्मा संसार से उब चुकी थी। मात्र निमित्त की ही जरूरत थी जो सरलता से मिल गया था। उसने उदयसुंदर से कहा: अब हमें दूसरा कोई विचार करना ही नहीं है। क्षत्रिय पुरुष बोले हुए वचन से पीछे नहीं हटते। प्रव्रज्या ए पुण्यपथ पर हमारे पूर्वज चले हैं ओर उसी मार्ग पर चलने में ही जीवन की सच्ची सफलता है।!
अपनी छोटी बहिन के हाथ पर विवाह के चिन्हरुप मदनफल बंधा हुआ है, उसके संसार का क्या ?” उदयसुंदर को यह चिंता खाये जारही थी। उसने कितनी कितनी आशाओं, मनोरथ तथा सपनों के साथ संसार में कदम रखा है, उसका सौभाग्य यूं बेमौके मुरझाता हुआ देखकर भाई का स्नेहार्द्र हृदय कैसे सह पाता ?
उसने बड़े आग्रह से वज्रबाहु को कहा : “आप एकदम यह साहस करने तैयार हुए हो लेकिन मेरी छोटी बहिन के मनोरथ, अरमानों का तो विचार करो ! वह आपके बगैर कैसे जी पायेगी?” बड़ी स्वस्थता से वज्रबाहु ने उत्तर दिया, “सती स्त्री, कुलवान घर में जन्मी सुशील बालाएँ पति के आत्मकल्याणके मार्ग पर पति के पीछे चल देती हैं। इसलिये उसे भी मेरे पीछे पीछे दीक्षा के पुण्यमार्ग में आना होगा। कुलीन तथा सती स्त्री को पति की छाया बनकर रहना चाहिये, यही उसका धर्म है। और यदि मनोरथ कुलीन नहीं हैं तो ऐसी अकुलीन स्त्री के साथ संसार में क्यों रहना चाहिये ? इसलिये अब इस त्याग-मार्ग में निषेध आप जैसे को तो करना ही नहीं चाहिये। मेरे पीछे आप सबको इसी मार्ग पर चलना चाहिये”
वज्रबाहु का मेरु समान दृढ़ मनोबल सबकी आत्मा पर अद्भुत ढंग से असरदायी बना।वज्रबाहु की बातों से मनोमन दीक्षा लेने का निर्णय करके मनोरमा भी रथ से नीचे उतरी। उदयसुंदर की आत्मा भी लघुकर्मी थी । वज्रबाहु के साथ अन्य २५ राजकुमार थे, वे भी संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या ग्रहण करने को तत्पर हुए। वे सब उस पहाड़ी पर आये। गुणरत्न के सागर समान श्री गुणसागर मुनि से सबने संयम ग्रहण किया ।
इस प्रकार तप, ध्यान, ज्ञान तथा संयमी जीवन की आराधना में निरंतर अप्रमत्त ये महापुरुष रत्नत्रयी की साधना द्वारा आत्मकल्याण साधकर जीवन को सफल बना गये।
कोटि कोटि वंदन हो इन धन्य आत्माओं को !