एक नगर में जीर्णदत्त नामक ब्राह्मण रहता था। उसके यज्ञदत्त नामक एक उद्धत पुत्र था। कालानुसार यज्ञदत्त के माता-पिता की मृत्यु हुई । बचपन से वह मृगया खेलने जाता था जिससे मृग के शिकार में वह कुशल था लेकिन गरीबी के कारण जीना मुश्किल लगा, और वह नगरी के बाहर चोर लोगों की पल्ली में चला गया। वहाँ पल्लीपति भीम को मिला। पल्लीपति को पुत्र न था इसलिये उसने यज्ञदत्त को अपना पुत्र बनाकर रखा।
किसी भी प्राणी पर वह अचूक प्रहार करके मार सकता था जिससे उसका नाम दृढ़प्रहारी पड़ा। पल्लीपति ने अपना अंतकाल समीप जानकर दृढ़प्रहारी को अपने तख्त पर बिठाया, दृढ़प्रहारी पल्लीपति बन गया। रात्रि को भील सेवकों के साथ मिलकर चोरी, डकैती आदि कुकर्म करने लगा । एक दिन वे कुशस्थल नामक गाँव लूंटने गये। गाँव में देवशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था। उसके घर पर भील सेवकों ने डाका ड़ाला। देवशर्मा बाहर जंगल में गया था। उसके पुत्र ने दौड़ते हुए, जंगल में पहुँचकर पिता को यह बात बताई। देवशर्मा क्रोधित होकर लाठी लेकर दौड़ता हुआ चोरों को मारने घर आया। दृढ़प्रहारी ने लाठी लेकर मारने आते देवशर्मा को देखा और उस पर प्रहार करके उसके मस्तिष्क के टुकड़े कर ड़ाले। उस दौरान उसकी गाय भी चोरों को सिंग से मारने आ पहुँची, उसे भी दृढ़प्रहारी ने मार डाला। देवशर्मा की मृत्यु की खबर सुनकर उसकी गर्भवती स्त्री भी हाहाकार मचाती हुई घर से बाहर आई। उसे भी दृढ़प्रहारी ने गर्भसहित मार डाला।
इस प्रकार एक साथ ब्राह्मण, गाय, स्त्री तथा गर्भ की हत्या करने से दृढ़प्रहारी कांप उठा और सोचने लगा, “अहो ! यह मैंने क्या किया ! इस ब्राह्मण व उसकी स्त्री की हत्या करने से अब उसके बालकों का क्या होगा ? मैं ही उनके दुःख का कारण बना। ऐसे दुष्कृत्य का भार मैं कैसे सहन करूंगा ? भवकूप में गिरते हुए मेरा अवलम्बन कौन बनेगा ? इस प्रकार सोच रहा था कि वहाँ से गुजरते हुए शांत मनवाले, धर्मध्यान में लीन व सर्व जीव की रक्षा करनेवाले साधुओं को देखा। उनको देखते ही वह मनमें सोचने लगा, “अहा ! इस लोक में ये साधु पूजने योग्य हैं, ये क्षमावंत भी है !
उनको वंदन करके दृढ़प्रहारी कहने लगा, “मैंने स्त्री, ब्राह्मण, गाय तथा बालगर्भ की हत्या की है। तो हे कृपानिधि । नरकगति से मुझे बचाइये । एक ही प्राणी के वध से कुगति होती है तो मेरा क्या होगा ? कौनसी गति होगी ? महात्मा ! मुझे बचाइये। मुझे आपकी दीक्षा दीजिये।” गुरु ने उसको संसार से विरक्त जानकर संयम दिया । दृढ़प्रहारी ने दीक्षा लेकर तप करते ऐसा अभिग्रह लिया कि “जिस जिस दिन मुझे यह मेरा पाप याद आयेगा, उस उस दिन मैं आहार नहीं लूंगा और यदि कोई दुश्मन मुझे मार डालेगा तो मैं उसे भी क्षमा करूंगा ।!
ऐसे अभिग्रह के साथ, जहाँ कई बार ड़कैती डाली थी ऐसे कुशस्थल नगर में भिक्षार्थ जाता। वहाँ उसको देखकर नगर के लोग, “गौ-ब्राह्मण-स्त्री-बाल-हत्यारा’ कह कर लाठी व पत्थर आदि से मारने लगते । लेकिन ये महात्मा शांत चित्त से सब सहन करते करते चिंतन करने लगे, हे जीव ! तूने इस प्रकार से अनेक जीवों की निर्दयतापूर्वक हत्या की है। कईयों की लक्ष्मी तथा स्त्रियों का हरण किया है, बहुत असत्यों का उच्चारण किया है, अनेक कुटुम्बों में स्त्रीयों से बालकों का वियोग कराया है। अब यह सबकुछ सहन करने की बारी तेरी है, तो इन सब के उपसर्ग तुझे सहन करने चाहिये। उनके अपराधों को क्षमा कर दे। किसी भी संजोग में क्रोध करना ही नहीं चाहिये। अभी ये लोग कर्मक्षय करनेमें मुझे मित्रकी तरह मदद कर रहे हैं, मुक्ति के सुख के दान में अकल्पनीय सहायता कर रहे हैं। उन पर क्रोध तो किया ही नहीं जा सकता। दोष देना ही है तो अपने कर्म को दोष दे। मेरे तो ये परम बांधव हैं। अहो ! मैं तो मेरे कर्म नष्ट कर रहा हूँ लेकिन इन लोगों का क्या होगा ? उपसर्ग करनेसे ये नरक के योग्य कर्म बांधेंगे।” इस प्रकार वे उन लोगों के प्रति करुणा भाव की वृत्ति रखने लगे।
ऐसी उत्तम भावना भाते भाते उनके अध्यवसाय पल पल शुद्ध होने लगे। क्रमानुसार उन्होंने चोदहवाँ गुणस्थानक प्राप्त करके केवलज्ञान पाया।