विराट देश में पेढालपुर नामक नगर था, वहाँ श्रीचूल नामक राजा राज्य करता था। उसके सुमंगला नामक पटरानी थी। उनके पुष्पचूल और पुष्पचूला नामक पुत्र एवं पुत्री थे। पुष्पचूल युवा हुआ तब जुआरी व व्यसनी बना। जुआरी होने के कारण पैसों की जरूरत पड़ने से वह छोटी-मोटी चोरी करने लगा। कर्मसंयोग से पैर में दोष होने से वह थोड़ा सा टेढ़ा (वक्र) चलता था, इससे लोक उसे वंकचूल कहते थे। उसके ऐसे आचरण से मातापिता उब गये। सुधरने के कोई लक्षण न दीखने से उन्होंने वंकचूल को देशनिकाला दे दिया। वंकचूल अपनी स्त्री तथा बहिन को लेकर जंगल की एक पह्ली में गया जहाँ भील-भीलनी रहते थे और गाँव गाँव में चोरी व डकैती डालने का धंधा करते थे। कुछ समय बाद पह्लीपति की मृत्यु होने से योग्यता के कारण वंकचूल पल्लीपति बन बैठा। एक बार ज्ञानतुंग नामक आचार्य महाराज अपने कुछ साधुओं के साथ वहाँ आ पहुँचे। चोमासे का समय था और बरसात होने लगी थी। इससे आचार्य भगवंत ने वहीं चौमासा व्यतीत करने का सोचा और वंकचूल से वहाँ चौमासा करने की अनुमति माँगी। वंकचूल ने ’वे किसी भी प्रकार का उपदेश किसीको न दे” इस शर्त पर रहने के लिए हाँ कह दी। उस पट्ली में आचार्य महाराज ने चौमासा व्यतीत किया। चौमासे के दौरान वे स्वाध्याय, अध्ययन और तीव्र तपश्चर्या करते रहे और निश्चित किये अनुसार वहाँ रहते किसीको उपदेश भी न दिया। चोमासा पूर्ण होने पर आचार्य महाराज वंकचूल से कहने लगे, हे पल्लीपति वंकचूल ! चोमासा पूरा हुआ। अब हम विहार करेंगे।” ऐसा सुनकर वंकचूल कई परिवारों के साथ उन्हें बिदा देने उनके पीछे चला चलते चलते वंकचूल की सीमा पूर्ण हुई। आचार्यश्री ने पूछा, ’यह किसकी सीमा है ?” वंकचूल बोला, “यह मेरी सीमा नहीं है।’ आचार्य महाराजने कहा, हे महाभाग ! हमने तेरी पल्ली में चोमासा बिताया। हम निरंतर स्वाध्याय-अध्ययन आदि करते रहे लेकिन तेरी पल्ठली के किसीको भी, कभी भी उपदेश नहीं दिया। अब जाते वक्त तुझे उपदेश देना चाहते है कि तू कुछ अभिग्रह ग्रहण कर; क्योंकि व्रतपालन से प्राणी सुखी होता है।! । चौमासे के दौरान साधुओं के आचार-विचार देखकर वह कुछ प्रभावित हुआ था, इसलिये बिना कुछ आनाकानी से नियम लेने को वह तैयार हो गया, हे । भगवन् ! कुछ नियम (व्रत) दो ।” तब गुरु ने उसे चार नियम दिये:
(१)अनजान फल खाना नहीं। (२)कौए का मांस भक्षण करना नहीं।
(३)राजा की रानी तुझ पर प्रीतिवाली हो तो भी उसका संग करना नहीं और (४)किसी पर प्रहार करना हो तो सात कदम पीछे हटकर प्रहार करना। ये चार नियम ग्रहण करके, गुरु को प्रणाम करके वंकचूल वापस अपनी पह्नी में लोटा। एक बार एक दूर के गाँव में डकैती डालकर लौटते वक्त मार्ग भटक गये। तीन दिन तक जंगल में भटकते रहे। भूख प्यास से सब पीड़ित थे, वहाँ एक पेड़ पर सुंदर फल देखे। भूख लगी होने के कारण सबने फल खाये पर वंकचूल ने फल का नाम जानने का आग्रह रखा। फल का नाम कोई न कह सका। अनजान फल न खाने का उसने नियम लिया था इसलिये उसने फल न खाया। खानेवाले हरेक की मृत्यु हुई। वंकचूल फल न खाने से बच गया और रात को पह्ली में आकर सोचने लगा कि नियम पालन ने मुझे बचा लिया। एक दिन वंकचूल किसी कार्यवश दूसरे गाँव गया था। उस समय उसके दुश्मन नाटकवाले उसके महल के पास आकर नाटक करने लगे और ललकार कर वंकचूल को बाहर आने के लिए कहने लगे। वंकचूल की बहिन पुष्पचूला महल में थी। उसने सोचा कि यहाँ वंकचूल नहीं है ऐसा जानकर दुश्मन पल्ली के कई लोगों को मार डालेगा। इस कारण से उसने वंकचूल का भेष पहिनकर है असली वंकचूल जैसा अभिनय करते हुए अपनी भाभी के साथ बाहर आकर नाटक देखा और नाटक पूर्ण होने पर नाटकियों को दान भी दिया। नाटकवाले बिदा हुए। काफी रात हो गई थी इसलिये निद्रा के कैफ में महल में आकर वंकचूल के पुरुष भेष में ही पुष्पचूला और वंकचूल की पत्नी साथ सो गये। सबेरे वंकचूल अपने महल में आया और अपनी स्त्री को परपुरुष के साथ सोयी हुई देखकर क्रोधित हुआ। दोनों को मारने के लिये खड़ग उठाया लेकिन शीघ्र ही उसे नियम याद आया, वह सात कदम पीछे हटा। पीछे हटते ही खड़ग दीवार से टकराया। टकरानेकी आवाज से बहिन पुष्पचूला जाग उठी और “भाई वंकचूल चिरंजीव हो” कहती हुई पलंग से उठ खड़ी हुई। वंकचूल आश्चर्यचकित हुआ ओर पुरुषभेष धरने का कारण पूछा। बहिन ने नाटक की हकीकत कह सुनाई वंकचूल परिस्थिति समझकर सोचने लगा, “अरे ! पल भर में ही मेरी स्त्री और सगी बहिन की मेरे हाथ से हत्या हो जाती लेकिन नियम के कारण असाधारण रूप से दोनों बच गये। स्वयं भी दो स्त्रीहत्या के पाप से बच गया। वाह मुनिराज वाह !” वह गुरु के दिये नियम की प्रशंसा करने लगा और मुनि निःसंशय महाज्ञानी थे ऐसे विचार से मन ही मन से गुरु की वंदना करने लगा।
एक रात्रि को वंकचूल चोरी करने के लिये एक वणिक के घर गया। वहाँ बाप-बेटा हिसाब-किताब की बातें कर रहे थे। वहाँ से वह एक वेश्या के वहाँ गया, वेश्या कोढी के साथ भोग भोग रही थी। वहाँ से वह राजा के महल की दीवार फांदकर राजा के अंतःपुर में पहुँच गया। अंधेरे में रानी के शरीर पर उसका हाथ पड़ा। रानी जाग उठी और वंकचूल को देखकर उसके साथ भोग भोगने की इच्छा से कहने लगी, “प्रिय ! मेरे साथ भोग भोग मैं तुझे ढेर सारे रत्न तथा संपत्ति दूंगी।” परंतु वंकचूल ने रानी को कहा, “आप तो मेरी माता समान हो ।” यह सुनकर विरह की आग में जलती हुई रानी झूठा आरोप वंकचूल पर लगाकर चिल्लाने लगी। शोरशराबा सुनकर राजा के सैनिकों ने आकर वंकचूल को पकड़ लिया और प्रातः राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा के पूछने पर वंकचूल ने रात्रि की घटना कह दी। राजा ने भी रात्रि के समय दीवार के पीछे छुपकर रानी और वंकचूल का वार्तालाप सुना था। इस कारण से वंकचूल को छोड़ने के लिये हुक्म दिया और वंकचूल के सदगुण से प्रसन्न होकर उसे अपना सामंत बनाया। राजा अपनी स्त्री की करतूत जानता था किंतु उसे जाहिर न किया क्योंकि उसकी अपनी ही इज्जत जाने का सवाल था। सुज्ञ मनुष्य अपने घर का स्वरूप किसीको कहते नहीं है।
राजा के उपदेश से, राजा का सामंत बनने के बाद वंकचूल अपना चोरी का धंधा छोड़कर सन्मार्ग पर चलने लगा।
एक बार राजा के आदेशानुसार किसी बलवान् शत्रु के साथ लड़ने गया हुआ वंकचूल गहरे वारों से घायल होकर महल में आया। वैद्य औषध वगैरह देकर उसकी शुश्रूषा कर रहे थे। लेकिन घावों की पीड़ा असह्य हो रही थी। राजा को इस वंकचूल की खूब गरज थी। उन्होंने गाँव में दाँडी पिटवाई कि “जो इस वंकचूल को जीवित रखेगा उसे यथेच्छ दान मिलेगा ।” यह सुनकर एक वैद्य ने आकर कौए का मांस औषध के रूप में देने को कहा। वंकचूल ने कोए का माँस न खाने का अभिग्रह लिया हुआ था अतः वह किसी भी प्रकार से माँस खाने के लिए संमत न हुआ। राजाने धर्मी जीव जिनदास नामक श्रावक को बुलाकर वंकचूल को समझाने का प्रयत्न किया। जिनदास आया, वंकचूल की इच्छा जानी । किसी भी प्रकार से वह अपना अभिग्रह छोड़े ऐसा नहीं है यह जानकर जिनदासने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, हे मित्र ! तू अकेला ही है, सर्व पदार्थ अनित्य है। देह, कुटुम्ब, यौवन, संसार सब असार है ।! वगैरह धार्मिक वचन सुनाए। अपनी मृत्यु नजदीक है ऐसा जानकर वंकचूल ने चार शरण ग्रहण करके
नवकार मंत्र का ध्यान धरते हुए मृत्यु पाई और बारहवें देवलोक में गया। अनुक्रमसे वह मोक्ष जायेगा।