एक दृष्टिविष सर्प था। उसको किसी भी तरफ से देखनेवाले की मृत्यु हो जावे ऐसा विषयुक्त उसका शरीर था। जातिस्मरण ज्ञान होने से उसे पूर्व भव में किये हुए पाप याद आये अतः वह बिल में ही मुँह रखने लगा; मुँह बाहर निकाले और कोई उसे देखे तो मर जाय ऐसा मुझे नहीं करना चाहिये ऐसा सोच समझकर मात्र पूंछ बाहर रहे उस प्रकार से वह बिल में रहने लगा।
कुंभ नामक राजाके पुत्रको किसी सर्प ने डस लिया जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी। इससे कुंभराजा सर्पजाति पर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने हुकम दिया कि जो कोई सर्प को मारकर उसका शव ले आयेगा उसे हरेक शव के लिए एक सुवर्णमुद्रा इनाम में दे जायेगी। इस ढंढेरे से लोग ढूंढ ढूंढ कर साँप मारकर उनके मृत शरीर को लाने लगे। एक व्यक्ति ने उस दृष्टिविष सर्प की पूंछ देखी । वह जोर से पूंछ खींचने लगा मगर दयालु सर्प बाहर न निकला पूंछ टूट गयी। सर्प वह वेदना समता से सहन कर रहा था और टूटी हुई पूंछ का थोडा भाग दीखते ही उस व्यक्ति ने काट लिया। इस प्रकार शरीर का छेदन-भेदन हो रहा था, तो भी सर्प सोच रहा था कि “चेतन ! तू ऐसा मत समझ कि यह मेरा शरीर कट रहा है; परंतु ऐसा समझ कि यह शरीर कटने से तेरे पूर्वकृत कर्म कट रहे हैं। यदि उनको समता से सहन करेगा तो यह दर्द भविष्य में तेरा भला करनेवाला होगा” ऐसा सोचते हुए उसने सहन किया और अंत में मर गया।
एक रात्रि को कुंभ राजा को स्वप्न आया कि तेरे कोई पुत्र नहीं है उसकी लगातार चिंता तू करता है। यदि मैं अब कोई सर्प को नहीं मारूंगा ऐसी प्रतिज्ञा तू लेगा तो तुझे पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। इसलिये कुंभ राजा ने अब किसी सर्प को न मारने की किसी आचार्य के पास प्रतिज्ञा ली।
दृष्टिविष सर्प मरकर इस कुंभराजा की रानी की कुक्षि से अवतरित हुआ। उसका नाम नागदत्त रखा। यौवन अवस्था में पहुँचने पर एक बार अपने झरोखे में खड़े खड़े नीचे जैन मुनियों को जाते हुए देखा और सोचते सोचते जातिस्मरण होते ही उसको सर्प का अपना पूर्वभव याद आया। उसने नीचे उतरकर साधु महाराज को वंदन किया और वेराग्य उत्पन्न होने से दीक्षा लेने के लिये तैयार हुआ। मातापिताने उसे बहुत समझाया पर किसीकी बात न मानते हुए महाप्रयास से उनकी आज्ञा लेकर उसने सदगुरु से दीक्षा ग्रहण की। वह तिर्यंच योनि से आया होने के कारण और वेदनीय कर्म का उदय होने के कारण वह भूख सहन नहीं कर पाता था। इस कारण एक पोरसी मात्र का भी पचखान उससे नहीं होता था। उसकी ऐसी प्रकृति होने से गुरु महाराज ने योग्यता देखकर उसको आदेश दिया कि “यदि तुझसे तपश्चर्या नहीं हो सकती तो तू समता ग्रहण कर, इससे तुझे बड़ा लाभ होगा ।’
वह दीक्षा का पालन भली प्रकार करने लगा। परंतु हररोज सुबह में एक गड़ुआ (एक प्रकार का बर्तन) भरकर कूर (चावल) लाकर उपयोग करे तब ही उसे होश-कोश आता था। ऐसा हररोज करने से उनका नाम कूरगड़ू पड गया।
जिन आचार्य से कूरगडू ने दीक्षा ली थी उनके गच्छ में अन्य चार महातपस्वी साधु थे। एक साधु एक माह के लगातार उपवास करते थे, दूसरे साधु लगातार दो माह के उपवास करते थे, तीसरे साधु तीन माह के उपवास के बाद पारणा करते थे और चौथे साधु चार माह के उपवास लगातार करते थे। ये चारों साधु महाराज इन कूरगड़ू मुनि की “नित्यखाऊं! कहकर हररोज निन्दा करते थे। परंतु कूरगड़ू मुनि समता रखकर सह लेते थे, उन पर तिलमात्र द्वेष नहीं करते थे।
एक बार शासनदेवी ने आकर कूरगड़ू मुनि को प्रथम वंदन किया। यह देखकर एक तपस्वी मुनिने कहा, तुमने प्रथम इन तपस्वी मुनियों की वंदना न करके इस तुच्छ मुनि की वंदना क्यों की ” तब शासनदेवी ने कूरगड़ू मुनि की स्तुति करते हुए कहा, मैं द्रव्य तपस्वियों की वंदना नहीं करती, मैंने भावतपस्वी की वंदना की हैं।!
एक महापर्व के दिन प्रातः कूरगड़ू मुनि गोचरी लेकर आये और जैन आचार अनुसार उन्होंने हरेक साधु को बताकर कहा, “आप में से किसीको उपयोग करने की अभिलाषा हो तो ले लें।! इतना सुनते ही तपस्वी मुनि क्रोधायमान होकर बोले, “इस पर्व के दिन भी आप तप नहीं करते ? घिक्कार है आपको, और हमें भी प्रयोग में लेने के लिए कहते हो ?” इस प्रकार लाल पीले होकर क्रोध से उनके पात्रमें बलगम थूंका। तो भी कूरगड़को बिलकुल गुस्सा न आया और मनमें सोचने लगे, ’अहो ! आज तो मुझे घी मिला। मैं प्रमादी हूं, किंचित्मात्र तप नहीं कर सकता, घिक्कार है मुझे। ऐसे तपस्वी साधुओं की योग्य सेवा भी करता नहीं हूँ। आज उनके क्रोध का साधन मैं बना ।” इस प्रकार आत्मनिंदा करते हुए पात्र में रहा आहार दुगंछा किये बिना प्रयोग करने लगे और शुक्लध्यान में चढ़कर तत्काल केवलज्ञान पाया। देवता तुरंत दौडे आये और उनको सुवर्णसिंहासन पर बिठाकर केवलज्ञान महोत्सव मनाने लगे।
चारों तपस्वी मुनि अचरज में पड़ गये और “अहो ! ये सच्चे भाव तपस्वी हैं। हम तो सिर्फ द्रव्य तपस्वी ही रहे। वे तैर गये। आह ! धन्य है उनकी आत्मा को । ऐसा कहकर केवलज्ञानी कूरगडू मुनि से क्षमापना करने लगे। त्रिकरण शुद्धि से
उनकी सच्चे भाव से क्षमापना करने से उन चारों को भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ।