सौराष्ट्र देश की द्वारिका नगरी के राजा वसुदेव की रानी देवकी के सबसे छोटे पुत्र गजसुकुमाल, एक दिन नेमि जिणंद द्वारिका पधारे, राज्य परिवार सहित सब भगवंत की वाणी सुनते हैं और वह वाणी गजसुकुमाल के अंतर को छू लेती है वे चारित्र ग्रहण करके वैरागी बनना मन से तय करते हैं दोनों हाथ जोड़कर माता से विनंती करते है, चारित्र लेने के लिए अनुमति दो माताजी यह सुनकर मोहवश बेहोश हो जाती है होश में आते ही चारित्र कितना दुष्कर है, यह गजसुकुमाल को समझाती है बेटा, यह संयम समुद्र तैरना मुश्किल है मोम के दांतों से लोहे के चने नहीं चबाये जा सकते घर घर घूमकर भिक्षा लानी पड़ती है नंगे पाँव विहार करना पड़ता है बालों का लोच हाथों से करना पड़ता है तू छोटा है इसलिये यह सब नहीं सह सकेगा ’
गजसुकुमाल उत्तर देते हैं, “कायर चारित्र न भी पाले I मैं शेर जैसा हूँ चाहे जैसा भी आखिर तेरा और वसुदेव का पुत्र हूँ मोह छोड़कर मुझे चारित्र के लिए अनुमति दे दे!
मां समझाती है कि तेरा सौमिल की बेटी के साथ पाणिग्रहण तय हो चुका है उसके साथ शादी करके तुझे संसारसुख भोगने हैं तुझ पर उसका अपार प्रेम है यह सब सुख छोड़कर न जा बेटे ! मत जा
जब माता की कोई युक्ति कामयाब नहीं हुई तो कहती है, “जा ! शेर की तरह चारित्र पालना दुष्कर पंच महाव्रत बराबर पालना! ऐसी आशिष के साथ अनुमति देती है
गजसुकुमाल नेमि जिनेश्वर से संयम ग्रहण करते हैं और आगम का अभ्यास करते हैं I एक दिन भगवान की आज्ञा लेकर वे स्मशान में जाकर काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहते है अपनी बेटी से ब्याह न करने के कारण बदला लेने के लिए सोमिल (उसके ससुर) स्मशान में आते हैं ’ और गजसुकुमाल के मस्तिष्क पर मिट्टी से पाल (मेड) बनाकर बीच में जलते अंगारे रख देते हैं जलती हुई अँगीठी में अँगारे जल रहे हो वैसे ही गजसुकुमाल के मस्तिष्क पर अँगारे जल रहे हैं गजसुकुमाल असह्य पीड़ा होने पर भी सोच रहे है, मेरा कुछ भी जल नहीं रहा है मेरे ससुर सचमुच मेरे सगे है, मेरे उपकारी है जन्म जन्मांतर में इस जीव ने कई अपराध किये हैं, उन सबकी क्षमा माँग लूँ इस प्रकार शुक्लध्यान में चढ़ गये ससुर ने मुझे मुक्ति की पगड़ी पहनाई ऐसा सोचते सोचते उनके सब कर्म क्षीण हो गये सिर अग्निज्वाला से फट गया लेकिन मृत्यु होने से पूर्व ही गजसुकुमाल केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पधारें I