मगध देश के नंदी गाँव में सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था। उसके सोमिला नामक स्त्री थी। उन्हें नंदिषेण नामक पुत्र था । दुर्भाग्य से वह कुरूप था। बचपन में ही उसके माता-पिता की मृत्यु हो ग‌ई, अत: वह मामा के वहाँ जाकर रहा। वहाँ वह चारा-पानी वगैरह लाने का काम करता था। मामा के सात पुत्रियाँ थी। सात में से एक का ब्याह तेरे साथ करूंगा” ऐसा मामा ने नंदिषेण को कहा, जिससे वह घर का काम करने लगा । परंतु एक के बाद एक सातों बेटियों ने कुरूप नंदिषेण से शादी करने से इनकार कर दिया और जोर-जुल्म से नंदिषेण से शादी करवा‌ओगे तो मैं आत्महत्या करके मर जा‌ऊँगी,” ऐसा हरेक पुत्री ने कहा । इससे दुःखी होकर उसने सोचा कि अब यहाँ रहना ठीक नहीं है, और मेरे दुर्भाग्य से मेरे अशुभ कर्मों का उदय हु‌आ है, तो इस प्रकार के जीवन से मर जाना बेहतर है।

 

इस प्रकार सोच विचार करके वह मामा का घर छोड़कर रत्‍नपुर नामक नगर में चला गया। वहाँ स्त्री-पुरुष को भोग भोगते देखकर अपनी निंदा करते हु‌ए सोचने लगा, “अहो ! में कब ऐसा भाग्यवान्‌ बनूंगा ?” फिर वह वन में जाकर आत्महत्या करने का प्रयत्‍न करने लगा। वहाँ कायोत्सर्ग मे रहे हु‌ए एक मुनि ने उसको अटकाया । तब उनको प्रणाम करके नंदिषेण ने अपने दुःख की सारी कहानी सुना‌ई।

 

मुनि ने ज्ञान से उसके भाव जानकर कहा, हे मुग्ध ! ऐसा खोटा वैराग्य मत ला। मृत्यु से को‌ई भी मनुष्य किये हु‌ए कर्मों से छूटता नहीं हैं। शुभ अथवा अशुभ जो कुछ कर्म किये हो वे अवश्य भुगतने ही पड़ते हैं। श्री वीतराग परमात्मा भी धर्म से ही अपने पूर्व के पापकर्मों से छूटते है। इसलिये तू आजीवन शुद्ध धर्म ग्रहण कर जिससे तू अगले भव में सुखी हो सकेगा ।!

 

ऐसे उपदेश से वैराग्य पाकर, नंदिषेण ने गुरु से दीक्षा व्रत ग्रहण किया और विनयपूर्वक अध्ययन करने लगा और धर्मशास्त्र में गीतार्थ बना। उसने आजीवन छट्ठ के पारणे में आयंबिल और लघु, वृद्ध या रोगवाले साधु‌ओं की सेवा (वैयावच्च) करने के बाद ही भोजन करने का अभिग्रह लिया, और इस प्रकार वह नित्य वैयावच्च करने लगा ।

 

नंदिषेण की इस उत्तम वैयावच्च को अवधिज्ञान से जानकर इन्द्र ने अपनी सभा में कहा, “नंदिषेण जैसा वैयावच्च में निश्चल अन्य को‌ई मनुष्य नहीं है ।’ एक देव ने यह बात न मानी ओर नंदिषेण की परीक्षा करने के विचार से एक रोगी साधु का रूप लिया एवं अतिसारयुक्त देह बना‌ई और अन्य साधु का रूप लेकर नंदिषेण जहाँ ठहरा था उस उपाश्रय पर पहुँचा। वहाँ नंदिषेण भिक्षा लाकर ईर्यापिधिकी प्रतिक्रमणकर, पचखान पारकर गोचरी (आहार) लेने बैठा था । उस समय साधुवेषधारी देव ने कहा : “आपने साधु की वैयावच्च करने का नियम लिया है, फिर भी आप ऐसा किये बिना अन्न क्यों ले रहे हो ?” नंदिषेण के पूछने पर उसने बताया कि “नगर के बाहर एक रोगी साधु है। उन्हें शुद्ध

जल चाहि‌ए ।” यह सुनकर शुद्ध जल लेने के लिये नंदिषेण श्रावक के घर गये। जहाँ जहाँ वे जाते वहाँ वहाँ वह देव-साधु जल को अशुद्ध कर देता था। बहुत

 

भटकने के बाद अपनी लब्धि के प्रताप से ज्यों त्यों करके शुद्ध जल प्राप्त किया और उस देव्‌-साधु के साथ नंदिषेण नगर से बाहर रोगी साधु के पास गया। उन्हें अतिसार से पीड़ित देखकर, “इनकी वैयावच्च से मैं कृतार्थ हो जा‌ऊँगा” ऐसा मानकर उन्हें जल से साफ किया लेकिन ज्यों ज्यों साफ करते थे त्यों त्यों बहुत ही दुर्गध निकलती थी। इससे वह सोचने लगा “अहो ! ऐसे भाग्यवान साधु फिर भी ऐसे रोगवाले हैं, राजा या रंक, यति या इन्द्र को‌ई भी कर्म से छूट नहीं सकता ।” फिर वह साधु को कंधों पर बिठाकर पौषधशाला में ले जाने के लिये चल पड़ा । रास्ते में ये देव-साधु नंदिषेण पर मलमूत्र करते है, इसकी बहुत ही दुर्गंध आने पर भी वह दुगंछा नहीं करता हैं। वह धीमे चलता हैं तो कहते हैं, “तू मुझे कब पहुँचायेगा ? रास्ते में ही मेरी मौत हो जायेगी तो मेरी दुर्गति होगी। में आराधना भी नहीं कर सकूंगा । और वह तेज चलता है तो कहते हैं, इस प्रकार चलेगा तो मेरे प्राण ही निकल जायेंगे, तूने यह कैसा अभिग्रह लिया है ? ऐसा सुनने पर भी नंदिषेण को साधु के प्रति जरा भी क्रोध या द्वेष न हु‌आ ओर उन्हें उपाश्रय पर ले आया।

 

उपाश्रय पर ले जाकर सोचने लगा कि इन साधु को नीरोगी कैसे करूँ ? मैं स्वयं योग्य चिकित्सा नहीं कर सकता यों मानकर स्वयं अपनी निंदा करता हैं। देवसाधु ने जान लिया कि नंदिषेण वैयावच्च में मेरु समान निश्चल हैं । इसलिये उसने प्रकट होकर सर्व दुर्गध समेट ली और नंदिषेण पर पुष्पवृष्टि करके कहा, हे मुनि ! आपको धन्य है ! इन्द्र ने वर्णन किया था उससे भी आप बढ़कर हो ।” इस प्रकार कहकर क्षमायाचना कर देव स्वर्ग को चला गया। तत्पश्चात्‌ नंदिषेण मुनि ने बारह हजार वर्ष तक तप किया और तप के

 

अंत में अनशन अंगीकार किया। तपस्वी को वंदन करने अपनी स्त्री सहित चक्रवर्ती वहाँ आये। स्त्री की काया तथा अति सुकुमार और कोमल केश देखकर उन्होंने निदान किया कि “मैं इस तप के प्रभाव से ऐसी स्त्रीवल्लभ बनूँ।” वहाँ से मरकर वे महाशुक्र देवलोक में देवता बने। वहाँ से वे शोर्यपुरी के अंधकवृष्णि की सुभद्रा नामक स्त्री के दसवें वसुदेव नामक पुत्र हु‌ए। वहाँ नंदिषेण के भव के निदान के कारण बहत्तर हजार स्त्रियों से उनका ब्याह हु‌आ। वे ही श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव ।