विशाला नगरी में जीरण नामक एक श्रेष्ठी रहता था। वह परमार्हत श्रावक था।
एक बार भगवान महावीर चौमासी तप करके इस नगरी के उपवन में काउस्सग्ग ध्यान में खडे थे। प्रभु आये हैं ऐसा ज्ञात होते ही श्रेष्ठी ने वहाँ आकर प्रभु को वंदना की और कहा, स्वामी ! आज मेरे घर पारणा करने (गोचरी लेने) आप पधारना ।” ऐसा कहकर अपने घर गया मगर प्रभु उसके घर आये नहीं। अतः दूसरे दिन वहाँ आकर “छट्ट तप” होगा ऐसा सोचकर प्रभु के प्रति ऐसी अर्ज की, "हे कृपावतार ! आज मेरे घर पधारकर मेरा आंगन पवित्र करना ।” ऐसा कहकर घर गया। परंतु भगवंतने तो हाँ या ना का कोई उत्तर नहीं दिया। इस प्रकार हररोज निमंत्रण करते हुए चार माह बीत गये।
चोमासी पारणे के दिन वह मन में सोचने लगा कि आज तो अवश्य प्रभु को पारणा होगा ही, इस कारण प्रभु के पास जाकर बोला, कि दुर्वार संसारमय धन्वंतरी (दुःख जिसमें से दूर नहीं किये जा सकते ऐसे संसाररूपी रोग को दूर करने में साक्षात् धन्वतरी वैद्य) जैसे हे प्रभु! कृपामय ! आपके इन लोचनों से मुझे देखकर, आप मेरी अरजी अवश्य स्वीकार करो ।” ऐसा कहकर अपने घर गया। समय होने पर मध्याद्न काल में हाथ में मोती से भरा थाल लेकर प्रभु को बधाने के लिए घर के दरवाजे पर खड़े होकर सोच रहा है, “आज जरूर जगतबंधु पधारेंगे, तब में उनको परिवार सहित वंदन करूंगा। घर में बहुमान सहित ले जाऊँगा, उत्तम प्रकार के अन्नपानी अर्पण करूंगा,
अर्पण करने के पश्चात् बचा हुआ अन्न में मेरी आत्मा को धन्य मानकर खाऊँगा ।
इस प्रकार वह मनोरथ की उच्च श्रेणी पर चढ़ता गया जिससे उसने बारहवें देवलोक के योग्य कर्म उपार्जित किया। उस समय श्री महावीर प्रभु अभिनव नामक एक श्रेष्ठी के घर पहुँचे ओर उसने नोकर द्वारा भगवान को आहार-पानी दिलवाया।
इस दान के प्रभाव से वहाँ पाँच दिव्य प्रगट हुए। (पुष्पवृष्टि, वस्त्रों की वृष्टि, सुवर्णमुद्राओं की वृष्टि एवं देवदुदुंभि बजना, “अहोदान अहोदान’ यों देवता आकाश में बोले उसे पाँच दिव्य कहा जाता है।) यहाँ जीरण सेठ ने भावना करते करते देवदुंदुभि सुनी। उसने सोचा । "मुझे धिक्कार है। मैं अधन्य हूँ, अभागी हूँ इसलिये प्रभु मेरे घर नहीं पधारे।” इस प्रकार ध्यानभंग हुआ और मनदुःख के साथ भोजन किया । तत्पश्चात् कोई ज्ञानी गुरु उस नगर में पधारे । उनको वंदन करके राजा ने कहा, "मेरा नगर प्रशंसा के पात्र है क्योंकि प्रभु महावीर स्वामी को चौमासी पारणा करानेवाले महाभाग्यशाली अभिनव श्रेष्ठी यहाँ रहते हैं। ऐसे पुण्यात्मा से मेरा नगर शोभित है। ज्ञानी गुरु बोले कि ऐसा कहना योग्य नहीं है। क्योंकि अभिनव सेठ ने तो द्रव्यभक्ति की है, मगर भावभक्ति तो जीरण श्रेष्ठी ने की हैं। इसलिये उसको अधिक पुण्यवंत मानना चाहिये। जीरण सेठ ने देवदुंदुभि की आवाज कुछ क्षणो के लिये सुनी नहीं होती तो वे उस श्रेणी तक पहुँच चुके थे कि उनको तत्काल केवलज्ञान हो जाता। इस कारण राजा जीरण सेठ की भूरी भूरी अनुमोदना करने लगे और जीरण सेठ मरकर बारहवें देवलोक में
देव बने। वहाँ से च्यवकर कालक्रमसे मोक्ष पायेंगे ।