राजगृही नगरी के नजदीक वैभारगिरि की गुफा में लोहखुर नामक भयंकर चोर रहता था। लोगों पर पिशाच की तरह वह उपद्रव करता था, नगर के धन भण्डार और महल लूँटता था। परस्त्रीलंपट होने कारण अनेक स्त्रियों को भी भोगता था। रोहिणी नामक स्त्री से उसे रोहिणेय नामक एक पुत्र हुआ। वह भी पिता की तरह भयंकर था। मृत्यु-समय नजदीक जानकर लोहखुर ने रोहिणेय को बुलाकर कहा, तू मेरा एक उपदेश सुन और उस ढंग से आचरण जरूर करना ।” रोहिणेय ने कहा, “मुझे जरूर आपके वचन के अनुसार चलना चाहिये । पुत्र का वचन सुनकर लोहखुर हर्षित होकर कहने लगा, देवता के रचे हुए समवसरण में बैठकर जो महावीर नामक योगी देशना दे रहे है, वह प्रवचन तू कभी भी मत सुनना । ऐसा उपदेश देने के बाद लोहखुर की मृत्यु हो गई।
कई बार रोहिणेय समवसरण के निकट से गुजरता था। क्योंकि राजगृही जाने का दूसरा कोई मार्ग न था। वहाँ से गुजरते समय वह अपने दोनों कानों में अंगुलियां डाल देता जिससे महावीर की वाणी सुनाई न दे और पिता की आज्ञा का भंग भी न हो। एक बार समवसरण से गुजरते हुए पैर में एक कांटा चुभ गया। कांटा निकाले बिना आगे बढ़ना असंभव था। न चाहते हुए भी उसे कान से अंगुलि निकालकर पाँव से काँटा निकालना पड़ा। लेकिन उस समय दौरान भगवान की निम्न वाणी उसे सुनाई दी: “जिसके चरण पृथ्वी को छूते नहीं हैं, जिसके नेत्र निमेषरहित होते हैं, जिसकी पुष्पमालाएँ मुरझाती नहीं है व शरीर धूल तथा प्रस्वेद रहित होता है वे देवता कहलाते हैं। इतना सुनकर वह सोचने लगा, “मुझे बहुत कुछ सुनाई दिया। धिक्कार है मुझे। मेरे पिता ने मृत्यु समय दी हुई आज्ञा का मैं पालन न कर सका ।” जल्दी से कान पर हाथ रखकर वह वहाँ से चल दिया।
दिनोंदिन उसका उपद्रव बढ़ता गया। गाँव के नागरिकों ने इस चोर के उपद्रव से बचाने के लिये श्रेणिक राजा से आग्रहपूर्वक विनती की । राजा ने कोतवाल को बुलाकर चोर पकडने के लिए खास हुक्म दिया, लेकिन कोतवाल कड़ी मेहनत के बाद भी रोहिणेय को न पकड सका। फिर राजा ने अपने पुत्र अभयकुमार को चोर पकड़ने का कार्य सोंपा। अभयकुमार ने कोतवाल को कहा कि संपूर्ण सेना गाँव के बाहर रखो। जब चोर गाँव में घुसे तब चारों और सेना को घूमती रखों। इस प्रकार की योजना से रोहिणेय मछली की तरह जाल में फसकर एक दिन पकड़ा गया। लेकिन महाउस्ताद चोर ने किसी भी प्रकार से “खुद चोर हूँ” ऐसा स्वीकार न किया और कहा, "मैं समीपवर्ती शालिग्राम में रहनेवाला दुर्गचंड नामक पटेल हूँ।” उस समय उसके पास चोरी का कोई माल भी न था। सबूत के बिना गुनाह कैसे माना जाय ? और सजा भी कैसे दी जाय ? शालिग्राम में पूछताछ करने पर, दुर्गचंड नामक पटेल तो था लेकिन लम्बे समय से वह कहीं पर चला गया है ऐसा पता चला। अब अभयकुमार ने चोर से गुनाह कबूलवाने के लिए एक युक्ति आजमायी । उसने देवता के विमान जैसे एक महल में स्वर्ग जैसा नजारा खडा किया। चोर को मद्यपान करा कर बेहोश किया, कीमती कपड़े पहिनाये, रत्नजड़ित पलंग पर सुलाया और गंधर्व जैसे कपड़े पहनाकर नृत्यसंगीत करते हुए दास-दासियों को सबकुछ सिखा कर सेवा में रखा। चोर का नशा उतरा। वह जागा तब इन्द्रपुरी जैसा नजारा देखकर आश्चर्यचकित हो गया । अभयकुमार की सूचना अनुसार दासदासी, “आनंद हो - आपकी जय हो” - जयघोष करने लगे और बोले, हे भद्र ! आप इस विमान के देवता बन गये हैं। आप हमारे स्वामी हैं। अप्सराओं के साथ इन्द्र की तरह क्रीडा करें ।!” इस तरह चतुराईपूर्वक बड़ी चापलूसी की। चोर ने सोचा, वाकई मैं देवता बन गया हूँ ? गंधर्व जैसे अन्य सेवक संगीत गा रहे थे। इतने में स्वर्णछड़ी लेकर एक पुरुष अन्दर आया और कहने लगा, “ठहरो ! देवलोक के भोग भोगने से पहले, नया देवता अपने सुकृत्य और दुष्कृत्य बताये ऐसा एक नियम है। तो आप अपने पूर्व भव के सुकृत्य वगैरह बताने की कृपा करे ।” रोहिणेय ने सोचा, वाकई यह देवलोक है ? ये सब देवदेवियाँ हैं या कबूलवाने के लिए अभयकुमार का कोई प्रपंच है ? सोचते सोचते उसे प्रभु महावीर की वाणी याद आई। इन लोगों के पाँव जमीन पर हैं, फूलों की मालाएँ मुरझाई हुई हैं ओर पसीना भी छूटता है, आँखें भी पलकें झपकाती हैं, अनिमेष नहीं है इसलिये यह सब माया है। ये देवता हो ही नहीं सकते ऐसा मनमें नक्की करके झूठा उत्तर दिया, "मैंने पूर्व भव में जैन चैत्यों का निर्माण करवाया है, प्रभु पूजा अष्टप्रकार से की है; तीर्थयात्राएँ की है, सद्गुरु की भक्ति की है।’ दण्डधारी ने पूछा, “अब आपके दुष्कृत्यों का भी वर्णन कीजिये। चोर ने कहा, "मैंने कोई दुष्कृत्य किया ही नहीं है। यदि मैंने दुष्कृत्य किये होते तो देवलोक में आता कैसे ?” - इस प्रकार युक्तिपूर्वक उत्तर दिया । अभयकुमार की योजना नाकामयाब रही और रोहिणेय को छोड़ देना पड़ा।
छूटते ही वह सोचने लगा, अरे ! पल दो पल प्रभु की वाणी सुनी तो इतनी काम आई। उनकी वाणी अधिक सुनी होती तो कितना सुख मिलता ? मेरे पिता ने गलत उपदेश देकर मुझे संसार में भटकाया है। यों पश्चात्ताप करते हुए वह प्रभु के पास आया और चरणों में गिरकर वंदना कर कहने लगा, मेरे पिता ने आपके वचनों को सुनने का निषेध करके मुझे ठगा है, कृपा करके मुझे संसारसागर से बचाओ। आपके कुछ वचन सुनने से में राजा के मृत्युदण्ड से बचा हूँ अब उपकार करके, योग्य लगे तो मुझे चारित्र ग्रहण करवाइये। प्रभु ने व्रत देने की हाँ कह दी। किये हुए पापों की क्षमायाचना हेतु चोरने श्रेणिक महाराजा के पास जाकर चोरी वगैरह का इकरार किया और अभयकुमार को साथ लेकर संग्रहित किये हुए चोरी के माल का स्थान बता दिया और प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। क्रमानुसार एक उपवास से लेकर छःमासी उपवास की उग्र तपश्चर्या करने के बाद वैभारगिरि पर जाकर अनशन लिया। शुभ ध्यानपूर्वक पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए देह छोड़कर स्वर्ग पधारे ।