’अषाढ़भूति’ एक समर्थ आचार्य थे। इनकी शिष्य-सम्पदा पूरे सौ शिष्यों की थी जो शालीन और साधना-रत थी। संयोग की बात सभी शिष्य एक-एक करके आचार्य की आंखों के सामने दिवंगत हो गये। जब लघु शिष्य भी उनकी आंखों के सामने ही दिवंगत होने लगा, तब उनका दिल दहल उठा। कुछ अनास्था के भाव उभर आये । असहायावस्था में ऐसा होना सहज भी है। अतः दिवंगत होते शिष्य से कहा’वत्स! तू यदि स्वर्ग में जाये तो वहां से आकर मुझे वहां की स्थिति बताना । शिष्य कालधर्म प्राप्त कर गया। देव भी बना, पर वहां के ऐश्वर्य में इतना लुब्ध हो गया कि वहां से आकर गुरु को कहने की बात ही भूल बैठा। इधर उसके न आने पर गुरुजी को पक्का विश्वास हो गया कि न स्वर्ग है, न नरक और न ही पुण्य-पाप, न मोक्ष आदि का को‌ई अस्तित्व है। ये सब तो यों ही अपना गुरुडम जमाने की धर्माचार्यों की धांधली है।

व्यक्ति की श्रद्धा जब तक बलवती और दृढ़ रहती है, तब तक व्यक्ति अपने आपको उस पर पूर्ण रूप से न्योछावर कर देता है, पर जब वह हिल जाती है, तब उसे कहीं का भी नहीं छोड़ती। आचार्यजी भी अनास्था के दलदल में बुरी तरह धंस चुके थे। अतः इस निर्णय पर आ गये कि साधुवेश का परित्याग करके घर-ग्रहस्थी में जाकर जीवन की मौज-बहारें लूटनी चाहि‌ए। आखिर व्यर्थ का कायक्लेश सहा भी क्यों जाये? स्वर्ग नरक तो हैं ही नहीं, यदि होते तो मेरा प्रिय शिष्य लौटकर क्यों नहीं आता? वह वचनबद्ध जो हो चुका था। यही विचार कर गुरुजी घर की ओर बढे।

उधर उस शिष्य देव को भी गुरुजी को दिये हु‌ए अपने वचन का स्मरण हो आया। उसने जो अवधिज्ञान से पता लगाया तो गुरुजी की इस बदली हु‌ई मनोदशा पर दंग रह गया। अपनी की हु‌ई असावधानी पर अनुताप करता हु‌आ वहां आया। उसने सोचा-गुरुजी जा तो रहे हैं, पर उनके संभलने के दो ही पहलू हैं। यदि अब भी दिल में दया और आंखों में लज्जा होगी तो मेरे द्वारा स्वर्ग का परिचय देने पर विश्वास जम सकता है, अन्यथा नहीं। यों विचार कर उनकी दया को परखने के लि‌ए उसने अपनी देवशक्ति विकुर्वित की।

गुरुजी को निर्जन जंगल में छः अबोध बच्चे मिले जो गहनों से लदे हु‌ए थे। गुरुजी ने जब उनका परिचय जानना चाहा, तब वे बोले-’हम अपने अभिभावकों के साथ आपश्री के दर्शन करने चले थे, पर हम सब पथ भूल गये। सभी तितर-बितर हो गये।’ नाम पूछने पर छहों ने अपना-अपना नाम बताया-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वासुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक।

षट्कायिक जीवों के नाम पर इनके नाम सुनकर गुरुजी ने इन्हें धर्म-निष्ठ श्रावकों के पुत्र जाना और सोचाइन जीवों की रक्षा करते तो सारा जीवन बिता दिया, लेकिन अब तक को‌ई सुफल नहीं मिला। पगचंपी करने वाला एक शिष्य भी पास नहीं रहा, सभी धोखा दे गये । अब तो इन्हें मारकर इनके सारे जेवर हथिया लेने चाहि‌ए, क्योंकि धन के बिना गृहस्थवास का स्वाद ही क्या ? अब मैं धन कमाकर पर्याप्त धन एकत्रित कर सकूं, ऐसी व्यापारिक क्षमता तथा शारीरिक क्षमता भी मुझमें अवशेष नहीं है ।

बस, फिर क्या था । उनके कंठ मोस, एक-एक करके सभी को मौत के घाट उतार दिया और उनके सारे आभूषण शीघ्र ही झोली में डाल लिये ।

अब लज्जा की परख करने के लि‌ए देव ने श्रावकों का समूह गुरुजी के सामने ला खड़ा किया। चारों ओर वंदना की ध्वनि है, आहार- पानी की पुरजोर प्रार्थना है । गुरुजी मना कर रहे हैं। भोजन लें तो किसमें ? भाजनों में तो जेवर भरे पड़े हैं। फिर भी श्रावकों ने अत्याग्रह करके झोली को बलात्‌ खोला तो पार में उन नामांकित जेवरों को देखकर हत्या का आरोप लगाने लगे ।

अपने पापों का भंडाफोड़ हो जाने पर गुरुजी को शर्मिन्दा होना ही था । आंखें मूंदें प्रस्तर की मूर्ति से बने खड़े हैं। मन में अन्यधिक ग्लानि है । जा‌एं भी तो कहां जा‌एं ! कहें भी तो क्या और किसे ? धरती में समाना चाहते हैं, पर पृथ्वी भी भला स्थान देने को कब तैयार हो ? उलझन भरी गुरुजी की सारी मन:स्थिति देखकर देव सामने प्रकट हु‌आ । अपना आत्मनिवेदन करते हु‌ए, पुन: क्षमा-याचना की ।

अषाढ़भूति ने साश्चर्य कहा - वत्स ! तू कहां ? शिष्य देव ने कहागुरुजी ! आप कहां से कहां पहुंच गये !

अषाढ़भूति ने अपने अनास्था के कुहरे को बहुत ही शीघ्रता से हटाया । निःशल्य आत्मालोचन से विशुद्ध बने । संयम की उत्कृष्ट कोटि की साधना में पहुंचकर सकल कर्म क्षय किये और मोक्ष प्राप्त कर लिया ।