बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी के पास स्कंदक ने पाँचसो मनुष्यों के साथ दीक्षा ली। एक बार भगवान मुनिसुव्रतस्वामी के पास जाकर उन्होंने अनुज्ञा माँगी, ’मेरी बहन के देश में बहन-बहनो‌ई को प्रतिबोधित करने जा‌ऊँ ? प्रभु ने कहा, ’तुझे और तेरे सर्व शिष्यों को मरणांतिक उपसर्ग होंगे।” “अहो हो ! मोक्षाभिलाषी तपस्वियों को उपसर्ग आराधना के कारण बनते हैं तो कृपा करके बता‌इये कि हम उपसर्ग के कारण आराधक होंगे या विराधक ?’

 

प्रभु ने कहा, ’तेरे सिवाय सब आराधक होंगे ।” स्कंदक आचार्यने सोचा, “यदि इतने साधु आराधक होते हैं तो मुझे यह सुन्दर लाभ लेना ही चाहिये ।! यूं सोचकर उन्होंने पाँचसौ मुनियों के साथ कुंभकार नगरी की और विहार किया और नगरी के बाहर एक उद्यान में ठहरे ।

 

पालक मंत्री को पता चला कि यहाँ स्कंधक मुनि पधारे हैं । पुरानी दुश्मनी के कारण उसने उस उद्यान के एक भाग में गुप्तरूप से अलग अलग प्रकार के हथियार जमीन में गड़वा दिये ओर राजा को एकांत में ले जाकर कहा, ’परिषह उपसर्ग से ऊब कर स्कंदकाचार्य यहाँ पधारे हैं। ये साधु महापराक्रमी हैं। उन्होंने ५०० सैनिक साधुवेष में रक्खे हैं और उद्यान में शस्त्र तथा तीक्ष्ण हथियार जमीन में छुपाये है। आप जब वंदना करने जा‌ओगे तब आपको मारकर आपका राज्य छीन लेंगे। यदि इस बात का आपको सबूत चाहिये तो उद्यान में जाकर छिपाये हु‌ए हथियारों की तलाश करवा‌इये ।” इस प्रकार पालक मंत्री राजा को बहकाकर उद्यान में ले गया एवं स्वयं गड़वाये हु‌ए हथियार दिखाये। राजा ने क्रोधित होकर सर्व मुनियों को बांधकर पालक को सौंपा और कहा, “तुझे ठीक लगे ऐसी शिक्षा इन साधु‌ओं को कर ।” बिल्ली को चूहे का न्याय करने का कार्य मिले और प्रसन्न हो उठे, उसी प्रकार पापी पालक मंत्री राजा से साधु‌ओं को शिक्षा देने का हुक्म पाकर अति प्रसन्न हु‌आ।

 

पालक मंत्रीने नगर से बाहर कोल्हू यंत्र तैयार करवाये। वहाँ सर्व साधु‌ओं को ले जाकर कहा, “आप सब अपने इष्ट देव का स्मरण कर लो। आप सबको में इस कोल्हू में डालकर पेरूँगा और मार डालूँगा।’

 

धीर साधु‌ओं ने मृत्यु से डरे बिना शरीर का ममत्व भाव निकाल फेंका। स्कंदक सूरिने उत्साह जगाया और प्रत्येक साधु ने सम्यक्‌ प्रकार से आलोचना लेकर सर्व जीवों के प्रति मैत्री की भावना भायी; मन, वचन एवं काया के योग से हरेक जीव से क्षमापना माँग ली।

 

कुकर्मी, पापी पालक मंत्री एक एक साधु को कोल्हु में डालकर पेरने लगा। स्कंदक मुनि को शिष्यों का ऐसा दृश्य देखकर अधिक पीड़ा होगी ऐसा सोचकर दुष्ट बुद्धिवाले मंत्री ने स्कंदक मुनि को कोल्हू के नजदीक बांध रखा। । कुचलाते हु‌ए साधु‌ओं के अंगछेद होने से खून की धारा से सराबोर होते स्कंदक मुनि समयोचित अमृतबिन्दु जैसे उपदेश वाक्यों से महानुभावों को आराधना कराते गये। इस प्रकार निर्मल मनवाले महात्मा जो शत्रु और मित्र के प्रति समान दृष्टिवाले थे वे यंत्र से कुचलाती हु‌ई काया की असह्य पीड़ा सहन करते हु‌ए केवलज्ञान पाकर सिद्ध हो गये।

 

अनुक्रम से ४९९ महर्षि कोल्हूमें पेर दिये गये । अब केवल एक बालमुनि बाकी थे । स्कंदकाचार्य ने पालक मंत्री से कहा, “इस बालमुनि के कुचलाने की वेदना मैं नहीं देख पा‌ऊँगा इसलिये प्रथम मुझे पेर डालो ।” लेकिन क्रूर बुद्धिवाले पालक ने स्कंदकाचार्य को अधिक दुःखी करने के लि‌ए उनके सामने ही बालमुनि को कोल्हू में फेंक दिया। उन बालमुनि को भी शांतिपूर्वक ऐसी आराधना करा‌ई कि उन्होंने शुक्ल॒ध्यानरूपी अमृतके झरने से कर्मों का नाश करके केवलज्ञान पाकर मोक्षसुख पा लिया । अब ५०० मुनियों को आराधना करानेवाले स्कंदकाचार्य की बारी आ‌ई। लेकिन कर्म के उदय से उस समय उन्होंने क्रोधित होकर सोचा, “ये राजा और मंत्री शिक्षापात्र हैं। यदि मुझे जिंदगी में किये हु‌ए दुष्कर तप और चारित्र का फल मिलनेवाला हो तो उसके प्रभाव से में अगले जन्म में इन सब को जला देनेवाला बनूं” - ऐसा निदान करके स्कंदकाचार्य मरकर अग्निकुमार देव हु‌ए।

 

स्कंदकाचार्य की बहिन पुरंदरयशा झरोखे में बैठी थी, जो उस नगरी के राजा की रानी थी। एक पक्षी खून से लथपथ रजोहरण चोंच में उठाकर उड़ चला था, भवितव्यता के योग से वह रजोहरण झरोखे में पुरंदरयशा के पास जा गिरा । उठाकर देखते ही रानी ने रजोहरण पहचान लिया जो भा‌ई की दीक्षा के समय स्वयं उसने ही तैयार किया था। भा‌ई की हत्या हु‌ई जानकर उसने राजा ही खूब उपालंभ दिया और कहा, ’हे साधुशत्रु ! हे पापी ! तेरा इसी समय नाश होगा।!

 

पुरंदरयशा ने सोचविचार करके संसार में न रहकर परलोक का ज्ञान बटोरने श्री मुनिसुव्रतस्वामी के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की । स्कंदकाचार्य ने देवता के भव में अवधिज्ञान से पूर्व भव का वृत्तांत जाना और क्रोध से पूरे नगर को जला डाला । आज भी वह स्थान दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार ५०० साथी साधु समता एवं आराधना के प्रताप से मोक्ष गये लेकिन स्कंदकाचार्यने विराधना के कारण मोक्षसुख न पाया। भगवान कथित भविष्यवाणी गलत होती भी कैसे ?