महावीर प्रभु के एक दृढ अनुरागी शिष्य थे सिंह अणगार।

 

एकांत निर्जन अरण्य में एक घटादार वटवृक्ष के नीचे ध्यान धर रहे थे। भगवान महावीर पर गोशाले ने तेजोलेश्या छोडी उसकी बात वहाँ पर दो पुरुष कर रहे थे।

 

एक पुरुष कह रहा था : भगवान पर गोशाले ने जब तेजोलेश्या छोडी तब वहाँ विद्यमान उनके समर्थ शिष्य गोशाले को क्यों न रोक सके ?

 

दूसरे ने उत्तर दिया - भगवान की आज्ञा थी कि सब गोशाले से दूर रहें, फिर भी उसने तेजोलेश्या छोड़ी तब परमात्मा पर परम प्रीति रखनेवाले दो अणगार सुनक्षत्र तथा सर्वानुभूति थमे न रहे और गोशाले को अटकाने के लि‌ए बीच में कूद पड़े लेकिन गोशाले की छोड़ी हु‌ई तेजोलेश्या से दोनों जलकर मौत की भेंट चढ गये। अररर...घोर हत्या

 

उस पापी दिन को ये दोनों पुरुष श्रावस्ती नगरी में थे जब मिथ्या द्वेषी गोशाले ने महावीर प्रभु पर तेजोलेश्या छोड़ी थी। लेकिन तेजोलेश्या परमात्मा की देह में प्रवेश करने के लि‌ए समर्थ न थी। भगवान की प्रदक्षिणा देकर सीधी ही गोशाले की देह में फैल ग‌ई।

 

लेकिन इस तेजोलेश्या की गर्मी से भगवान के अंग अंग में जलन होने लगी। भगवान की रूपसंपत्ति कुछ कमजोर हो ग‌ई थी। सब भक्तगण इस आफत से हड़बड़ा गये थे।

 

सिंह अणगार वटवृक्ष के पीछे ध्यान धर रहे थे। उन्होंने यह वार्तलाप सुना। उन्हें इस भयंकर बात की जानकारी नहीं थी लेकिन इस बात को सुनकर उनके दिल में अपार पीड़ा हु‌ई। अपनी कल्पनाशक्ति से परमात्मा की रोगग्रस्त देह को देखा। वे कांप उठे, मेरे नाथ... ! आपकी देह में इतनी सारी पीडा ? सिंह अणगार की आँख से अश्रुधारा‌एँ बहने लगी। थोडी देर बाद अन्य दो मुसाफिर उसी वटवृक्ष के नीचे आकर बैठ गये। दोनों में एक वृद्ध था और एक बालक था। शायद पिता-पुत्र होंगे।

 

बालक वृद्ध को पूछ रहा था, ’हे पिताजी ! भगवान पर गोशाले ने तेजोलेश्या छोड़ी । इस तेजोलेश्या से क्‍या होता है ?

 

वृद्ध कहता है - “यदि यह तेजोलेश्या अन्य किसी पर छोड़ी ग‌ई होती तो वह तुरंत जलकर खाक हो जाता - लेकिन ये तो थे तीर्थंकर, ! इसलिये इनकी मृत्यु न हु‌ई लेकिन...” इतना कहते हु‌ए वृद्ध का हृदय भर आया। वह अधिक न बोल सका। बालक ने कहा, पिताजी ! अटक क्‍यों गये ? बाद में क्‍या हु‌आ ?

 

बेटा ! भगवान को खून के दस्त हो रहे हैं।” इतना कहते हु‌ए वृद्ध सिसक कर रो पड़ा। पास खड़े सिंह अणगार दौडकर आये। यह वार्ता सुनकर उनके हृदय में भयंकर पीड़ा उमड़ पडी थी, अश्रुधारा‌एँ बह रही थी। उन्होंने पूछा : “भा‌ई ! तत्पश्चात्‌ क्‍या हु‌आ ?!

 

भगवान का निर्मल चन्द्रमा जैसा मुख तेजोलेश्या के ताप से श्याम हो गया। भगवान के पूरे शरीर में पीड़ा हो रही है। इस गर्मी से प्रभु छ: माहसे अधिक नहीं जी सकेंगे ।” वृद्ध इससे आगे कुछ न कह सका।

 

सिंह अणगार की पीड़ा बढ़ती ग‌ई प्रभु यह सब कैसे सहन करते होंगे ? वे अधिक से अधिक शोकसागर में डूबते गये। एक कोने में बैठकर वे करुण रुदन करने लगे।

 

उस वक्त सब रो रहे थे । गौतम स्वामी से लेकर प्रत्येक साधु की आँखें भर आ‌ई थी। चंदनबाला और दूसरे स्त्री-पुरुष, देव और दानव भी शोक की छाया से घिर गये थे। सिंह अणगार तो ऐसे रोये कि चुप ही न हो सके। भगवान महावीर श्रावस्ती से विहार करके मिंढिक गाँव पधारे। वहाँ केवलज्ञान के प्रकाश में उन्होंने सिंह अणगार के जीव को अपार आक्रंद से तड़पते हु‌ए देखा। भगवान ने तुरंत गौतम स्वामी को बुलाकर सिंह अणगार को ले आने की आज्ञा दी। थोड़े ही समय में दो अणगारों ने सिंह अणगार को भगवान के चरणों में उपस्थित किया । भगवान की पीड़ित देह नजर पड़ते ही उनकी पीड़ा बढ़ ग‌ई। वे नीचे बैठ गये। कंठ भर आया । आँखे सूझ ग‌ई थी।

 

सिंह ! मधुर वाणी से भगवान ने अणगार को नजदीक बुलाया और पूछा ; “क्यों इतना संताप कर रहा है ?” प्रभु! आपको इतनी सारी पीडा ? रोते रोते उन्होंने उत्तर दिया।

 

प्रभु बोले : “सिंह ! लोगों के मुख से तूने सुना है न कि छः महीने में मेरी मृत्यु हो जायेगी ।”

 

हा प्रभु !

 

लेकिन वाक‌ई ऐसा हो सकता है? तीर्थंकर हंमेशा अपना आयुष्य पूर्ण करके ही निर्वाण पाते हैं। उनके आयुष्य को न को‌ई घटा सकता है, न को‌ई बढ़ा सकता है ।!

 

लेकिन प्रभु!” अणगार रोते रोते गिड़गिड़ाये, सकल संघ आपकी ऐसी स्थिति देखकर व्यथित हो रहा है। प्रभु ! स्वयं के लि‌ए नहीं तो हमारे मन की शांति के लि‌ए आप औषध सेवन करिये। आपकी पीड़ा क्षणमात्र देखने के लि‌ए मैं समर्थ नहीं हूँ।’

 

सिंह मुनि के ऐसे आग्रह से प्रभु ने कहा : “इस गाँव में रेवती नामक श्राविका ने मेरे लि‌ए कद्द का पाक बनाया है, वह तू मत लेना, लेकिन उसने अपने लि‌ए बिजोरे का पाक बनाया है वह ले आ। तेरे आग्रह से वह पाक मैं औषध के रूप में लूंगा जिससे तुम्हें धैर्य प्राप्त होगा ।!

 

सिंह अणगार नाच उठे। उनका अंग अंग हर्ष से रोमांचित हो गया। रेवती का ठिकाना ढूंढकर सिंह अणगार उसके आँगन में गये।

 

विनयपूर्वक रेवती ने वंदना की। हाथ जोड़कर पूछा : “कहिये भगवन्‌ ! आपके पधारने का कारण ? ’हे श्राविका ! तूने भगवान के लि‌ए जो औषध बनाया है वह नहीं परंतु जो तेरे स्वयं के लि‌ए औषध बनाया है उसकी हमें जरूरत है।!

 

रेवती आश्चर्यचकित होकर बोली, हे भगवन्‌ ! कौन ऐसे दिव्यज्ञानी हैं जो इस गुप्त बात को जान गये ?

 

सर्वज्ञ भगवान के सिवा अन्य कौन हो सकता है रेवती ?

 

रेवती ने आनंदपूर्वक वह औषध सिंह अणगार को अर्पण किया और जैसे ही पात्र में औषध गिरा, देवों ने ’महादानम्‌ महादानम्‌” का दिव्यध्वनि किया । सिंह अणगार त्वरित गति से भगवान के पास आये और भगवान को उस औषध का आहार कराया। अल्पकाल में भगवान की देह रोगमुक्त हो ग‌ई । चतुर्विध संघ ने आनंद उत्सव मनाया, परंतु सिंह अणगार की आँखों से हर्ष के अश्रु की धारा बह रही थी और मुख भगवान के सामने मुस्करा रहा था।