कुरू देश के गजपुर नगर में सनतकुमार राज्य करते थे। उन्होंने सर्व राजा-रजवाड़ों को वश करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था, वे खूब रूपवान थे । उनके जैसा सुन्दर रूप पृथ्वी पर किसीका न था । इन्द्र महाराज ने देवों की सभा में सनतकुमार के रूप की प्रशंसा की । यह सुनकर दो देवों को शंका हु‌ई, दोनों देव रूप की परीक्षा करने ब्राह्मण का वेष धरकर सनतकुमार के पास आये । उस समय सनतकुमार स्नान करने बैठे थे । उनका रूप देखकर दोनों देव हर्षित हु‌ए, सचमुच ! जगत में किसीका न होगा ऐसा उनका रूप था । यह देखकर उन्होंने सनतकुमार को कहा, “आपका रूप देखने के लि‌ए बड़ी दूर से आये हैं, वाक‌ई विधाताने आपको बेमिसाल रूप दिया है।” ऐसा कहकर रूपके खूब बखान किये। सनतकुमार ने कहा, “इस समय मेरी यह काया स्नान के हेतु उबटन से भरी हु‌ई है और काया खेह से भरी होने से बराबर नहीं है। मैं नहाकर वस्त्रलंकार धारण करके राज्यसभा में बैठूँ तब मेरा रूप देखना। यथार्थ रूप देखना हो तो राज्यसभा में आना।!

 

राज्यसभा की तैयारी हु‌ई, सनतकुमार आभूषण वगैरह से सजधज कर राज्यसभा में गये और दोनों देव भी ब्राह्मण वेष में सनतकुमार का रूप निहारने आये । सनतकुमार स्नान करने बेठे थे उस समय का रूप उन्हें अब न दीखा, अपितु काया रोग से भरी हु‌ई दिखा‌ई दी । सनतकुमार को उन्होंने कहा, “नहीं, आपकी काया तो रोगों से भरी हु‌ई है।” सनतकुमार को मानसिक ठेस तो पहुँची लेकिन कहा, "मेरे रूप में क्या कमी है? मैं कहाँ रोगी हूँ?” देवों ने कहा, एक नहीं, सोलह रोगों से आपकी काया व्याप्त हो ग‌ई है ! सनतकुमार ने अभिमान से कहा, “आप ब्राह्मण पिछड़ी बुद्धि के हैं ।! ब्राह्मणों ने कहा, "एक बार थूँककर देखो तो सही ।” सनतकुमार का मुख तांबूल से भरा हु‌आ था। उन्होंने थुँककर देखा तो उसमें किड़े बिलबिला रहे थे। वे यह देखकर सोचने लगे, “अरे रे! ऐसी मेरी काया ? इस काया का क्‍या भरोसा ? ऐसा सोचकर छः खण्ड का राज्य-कुटुम्ब-कबीला सब कुछ छोड़कर चारित्र ग्रहण कर लिया।

 

उनके सेनापति, उनकी स्त्रियाँ वगैरह हाथ जोड़कर राज्य में रहकर, राज्य चलाने की विनती करने लगे, लेकिन कुछ भी सुने बिना वे चारित्र में अटल रहें। किसीको उत्तर भी न दिया और विहार कर चले गये । इन्द्र ने पुनः उनके संयम, निःस्पृहता व लब्धि की प्रशंसा की । पुनः एक देव को सनतऋषि की परीक्षा लेने का मन हु‌आ । वह वैद्य का रूप धारण कर सनत मुनि के पास पहुँचा ओर उपचार करने को कहा । सनतकुमार ने कहा, “मुझे को‌ई इलाज नहीं कराना है । मेरे कर्मों का ही मुझे क्षय करना है, इसलि‌ए भले ही रोग का हमला हो, इलाज कराना ही नहीं है। औषध तो मेरे पास क्‍या नहीं है ? क‌ई लब्धियाँ प्राप्त हु‌ई है । देखो, मेरा यह थूँक जहाँ भी लगा‌ऊँ, वहाँ सब ठीक हो जाता है । काया कंचनवर्णी हो जाती है।” ऐसा कहकर अपना धूँक एक अंगुली पर लगाया तो वह भाग कंचन जैसा शुद्ध हो गया । ऋषि की ऐसी लब्धि देखकर देव प्रसन्न होकर अपने स्थान पर लौटा । सनतकुमार ने यह रोग का परिषह सातसों वर्ष तक सहन किया, परंतु कभी भी उपचार नहीं किया । समतापूर्वक देहत्याग करके तृतीय देव लोक में गये। तत्पश्चात्‌ दूसरा भव करके मोक्ष पधारेंगे ।