राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा राज्य करते थे। चेल्लणा नामक उनकी पटरानी थी। एक बार वर्षा ऋतु में रात्रि के समय राजा-रानी झरोखे में बेठकर बरसते हु‌ए बरसात में बातें कर रहे थे कि, मेरे राज्य में को‌ई दुःखी नहीं है। इतने में बिजली की चमक में रानी ने एक मनुष्य को नदी में बहती हु‌ई लकड़ियों को खींच लाते हु‌ए देखा और कहा, “आप कहते हो कि मेरे राज्य में को‌ई दुःखी नहीं है, तो यह मनुष्य यदि दुःखी न हो तो ऐसा क्‍यों करता है ? राजा ने सिपाही भेजकर उस मनुष्य को बुलाकर पूछा, “तुझे क्या दुःख है कि ऐसी अंधेरी रात्रि में नदी में से लकड़ियाँ खींच रहा है ? उसने कहा, "मेरे पास दो बैल हैं। उनमें से एक बैल का सींग अधूरा है। उसे पूर्ण करने के लिये मैं यह उद्यम कर रहा हूँ।” श्रेणिक ने कहा, “तुझे अच्छा बैल दिला दूं तो.” उसने कहा, एक बार मेरे बेल को देखो, बाद में दिलाने की बात करना ।! राजा ने उसका पता लिखकर कहा, "में सुबह तेरे बैल देखने आ‌ऊँगा।” ऐसा कहकर उसे बिदा किया। प्रातः होते ही राजा उसके घर गया। उसने तहखाने में ले जाकर बैल दिखाये। मूल्यवान सोने-हीरे माणिक से मढ़े हु‌ए बैल देखकर राजा आश्चर्यचकित हो कर कहने लगा, "तेरे घर में इतनी सारी संपत्ति होने पर भी तू ऐसे दरिद्री के वेश में क्यों घूमता है? और ऐसा हलका कार्य क्‍यों करता है” उसने कहा: “यह संपत्ति कुछ ज्यादा नहीं है। ज्यादा द्रव्य कमाने मेरे पुत्र परदेश गये है। मुझे दूसरा को‌ई काम न सूझने से यह कार्य करता हूँ। बैल के सींगों के ऊपर रत्‍न जड़ने के लि‌ए संपत्ति इकट्ठी करनी जरूरी है। इसलिये मैं ऐसे उद्यम करता हूँ। इसमें शर्म केसी ? मनुष्य को को‌ई न को‌ई उद्यम तो करना ही चाहिये न ? राजा ने पूछा, “आपके उद्यम के हिसाब से आपका आहार भी अच्छा ही होगा ? उसने कहा, "मैं तेल और चौरा खाता हूँ, अन्य अनाज मुझे पचता ही नहीं है। दूसरों को अच्छा खाते देखकर मुझे चुभन होती है कि खाने-पीने में लोग बेकार में इतना सारा खर्च क्यों करते है” यह सुनकर राजा ने उसका नाम पूछा। उसने कहा, ’मेरा नाम मम्मण सेठ है।” फिर राजा ने महल में जाकर मम्मण सेठ की सब हकीकत चेल्लणा को कही। दूसरे दिन वीर प्रभु को वंदन करने श्रेणिक ओर चेल्लणा गये। मम्मण सेठ की हकीकत कही ओर प्रभु को पूछा, “मम्मण के पास ढ़ेर सारा द्रव्य होने पर भी वह ऐसा जीवन क्‍यों जीता है ? प्रभु ने कहा, ’पूर्वभव में उसके घर को‌ई मुनिराज भिक्षा के लि‌ए आये। प्रभावना में पाया हु‌आ उत्तम महकदार मोदक भिक्षा में दिया। तत्पश्चात्‌ किसीके कहने से उसे ज्ञात हु‌आ कि मोदक बहुत ही स्वादिष्ट था। यह सुनकर वह भिक्षा में दिया हु‌आ मोदक वापिस लेने गया। रास्ते में पश्चात्ताप करते हु‌ए सोचता गया कि ऐसा अच्छा लड्डू बेकार में ही महाराज को अर्पण कर दिया। मुनि के पास पहुँचकर भिक्षा में दिया हु‌आ लड्डू उसने वापिस माँगा । मुनि ने कहा, ’धर्मलाभ देकर लिया हु‌आ हम कुछ भी लोटा नहीं सकते है।” परंतु उसने जिद करके लड्डू प्राप्त करने के लि‌ए पात्रों की खींचातानी की । खींचातानी में मोदक नीचे पड़ी हु‌ई रेत में गिर पड़ा और धूल धूल हो गया । मुनि ने वहीं खड्डा खोदकर उसे जमीन में गाड दिया। इस प्रकार दिये हु‌ए दान की निंदा व पश्चात्ताप करने से गाढ भोगांतराय व उपभोगांतराय कर्म बांधकर मम्मण सेठ के रूप में उत्पन्न हु‌आ है। वह न ही कुछ अच्छा खा सकता है और न ही प्राप्त की हु‌ई संपत्ति को भोग सकता है फिर दान देने की तो बात ही क्‍या ?’

 

वाक‌ई में कृपण का धन कंकर समान है।