किसी समय अयोध्या नगरी में कीर्तिधर नामक राजा थे। सहदेवी नामक उनकी पत्नी थी। भर जवानी होने से वे इन्द्र समान विषयसुख भोग रहे थे। एक बार उन्हें दीक्षा लेने की इच्छा हु‌ई। मंत्रियों ने उन्हें समझाया कि “जब तक आपके यहाँ पुत्र उत्पन्न नहीं हु‌आ है, तब तक व्रत लेना योग्य नहीं है। आप अपुत्रवान्‌ होने पर भी व्रत लेंगे तो पृथ्वी अनाथ हो जायेगी। इसलि‌ए है स्वामी ! पुत्र उत्पन्न हो तब तक राह देखो ।”

 

इस प्रकार मंत्रियों के कहने से कीर्तिधर राजा शर्म के मारे दीक्षा न लेकर गृहवास में ही रहे। कुछ अरसे बाद सहदेवी रानी से उन्हें सुकोशल नामक पुत्र हु‌आ। पुत्रजन्म जानकर पति दीक्षा ले लेगा यूं सोचकर सहदेवी ने उसे छुपा दिया। बालक को गुप्त रखने पर भी कीर्तिधर को बालक की सही जानकारी मिल ग‌ई। उसे राजगद्दी पर बिठाकर उन्होंने विजयसेन नामक मुनि से दीक्षा अंगीकार की। तीव्र तपस्या एवं अनेक परीसह सहते हु‌ए राजर्षि गुरु की आज्ञा से एकाकी विहार करने लगे। विहार करते करते एक बार वे अयोध्या नगरीमें आये। एक माह के उपवासी होने के कारण पारणा करने के लि‌ए भिक्षा लेने मध्याह्न को शहर में घूम रहे थे। मुनि सांसारिक अवस्था के मेरे पति है और यहाँ आये होने के कारण सुकोशल उन्हें मिलेगा तो वह भी दीक्षा ले लेगा। पतिविहीन तो हूँ ही, पुत्रविहीन भी हो जा‌ऊंगी, अतः कीर्तिधर मुनि को नगरी से बाहर राज्य की कुशलता के लि‌ए निकाल देना चाहिये” ऐसा सोचकर रानी ने अपने कर्मचारियों द्वारा मुनि को नगर बाहर निकलवा दिया। इस बात को जानकर सुकोशल की धाव माता जोरों से रोने लगी। राजा सुकोशल ने उसे रोने का कारण पूछा तब उसने बताया: “आपके पिता, जिन्होंने आपको राजगद्दी पर बिठाकर दीक्षा ली है, वे भिक्षा के लि‌ए नगर में पधारे थे। मुनि से आप मिलेंगे तो आप भी दीक्षा ले लेंगे, यों मानकर आपकी माता ने उन्हें नगर से बाहर निकलवा दिया है, इसलिये मैं रुदन कर रही हूँ क्योंकि मैं यह दुःख सहन नहीं कर सकती !

 

यह सुनकर सुकोशल विरक्त होकर पिता के पास गये और हाथ जोड़कर व्रत की याचना की। उस समय उसकी पत्नी चित्रमाला गर्भवती थी। वह मंत्रियों के साथ वहाँ आ‌ई ओर सुकोशल को दीक्षा न लेने के लि‌ए समझाने लगीं लेकिन सुकोशल ने उसे कहा, "तेरे गर्भ में ! जो पुत्र है उसका मैंने राज्याभिषेक कर दिया है” यूं समझाकर सुकोशल ने अपने पिता से दीक्षा ली और कड़ी तपस्या करने लगे। ममतारहित और कषायवर्जित पिता-पुत्र महामुनि होकर पृथ्वीतल को पवित्र करते हु‌ए साथ ही विहार करते थे। पुत्र और पति के वियोग से सहदेवी को बड़ा खेद हु‌आ ओर आर्तध्यान से मरकर किसी पहाड की गुफा में शेरनी के रूप में पैदा हु‌ई। कीर्तिधर और सुकोशल मुनि चातुर्मास निर्गमन के लि‌ए पर्वत की गुफा में ध्यानस्थ अवस्था में खडे थ। कार्तिक मास आया, तब दोनों मुनि पारणा करने शहर की ओर चले। वहाँ मार्ग में यमदूती जैसी उस दुष्ट शेरनी ने उन्हें देखा। शेरनी नजदीक आ‌ई और झपटने के लि‌ए तैयार हु‌ई। उस समय दोनों साधु धर्मध्यान में लीन होकर कायोत्सर्ग में खडे हो गये। सुकोशल मुनि सन्मुख होने से शेरनी ने प्रथम प्रहार उन पर किया, उन्हें पृथ्वी पर गिरा दिया, नाखूनरूपी अंकुश से उनके शरीर को फाड़कर उससे बहते रुधिर का पान करने लगी एवं मांस तोड़ तोड़कर खाने लगी। उस समय सुकोशल मुनि, “यह शेरनी मुझे कर्मक्षय में सहकारी है” ऐसा सोचते हु‌ए अंशमात्र भी दुःखी न हु‌ए और शुक्ल ध्यान में पहुँचते ही केवलज्ञान पाकर मोक्ष पधारे। इस प्रकार कीर्तिधर मुनि ने भी क्रमशः केवलज्ञान पाकर अद्वैत सुखस्थानरूपी परमपद प्राप्त किया ।