अरणिक... भद्रा माता एवं दत्त पिता का इकलौता पुत्र...
माता एवं पिता लम्बे अरसे से दीक्षाभाव सेवन कर रहे हैं, लेकिन नन्हें अरणिक को कौन संभाले ? एक दिन भगवान की वाणी सुनकर तुरंत निर्णय लिया, माता-पिता दोनों ने दीक्षा ले ली तथा पिता मुनि ने अरणिक को भी दीक्षा दे दी। बाल मुनि विद्याभ्यास करते हैं, लेकिन उनका सब व्यावहारिक कार्य पिता मुनि ही करते हैं। संथारा बिछाना, या गोचरी लाकर वात्सल्यपूर्वक भोजन कराना वगैरह बालमुनि के सर्व कार्य मोहवश पिता मुनि करते जा रहे हैं। साथ के मुनि, महाराज को बहुत समझाते हैं कि आहिस्ते आहिस्ते बाल मुनि को उनके कार्य स्वयं करने दो। परंतु मुनि जिंदा रहे तब तक मोहवश अरणिक मुनि को कोई व्यावहारिक कार्य करने न दिया। कालक्रमसे पिता मुनि का स्वर्गवास हुआ। । अब भिक्षा वगैरह के लिये अरणिक मुनि ने अन्य मुनियों के साथ जाना तय किया और एक दिन गोचरी के लिए भरी दुपहरी में अन्य मुनियों के साथ वे निकल पड़े| ग्रीष्म का दिन...कड़ी धूप...नंगे पाँव चलते मुनि के पैर जलने लगे। विश्राम के लिए वे एक मकान के झरोखे के नीचे छाया देखकर रूके वहाँ सामने के झरोखे में खड़ी एक श्रीमंत मानिनी ने मुनि को देखा। सुहावनी और मस्त काया देखकर मानिनी मोहित हो गई, दासी को भेजकर मुनि को ऊपर ले आने को कहा। मुनि आये - थके थे कड़ी धूप में तपे हुए थे। ’ऐसा संयम भार उठा नहीं सकूंगा” - ऐसा मन में सोच ही रहे थे कि ऐसी मदद मिली। स्त्रीने सुंदर मोदक का भोजन कराया और आवास में रहने तथा सर्व भोग भोगने के लिए मुनि को ललचाया मुनि पिघल गये, मोह में फँस गये एवं दीक्षा के महाव्रत त्यागकर संसारी बन गये।
अच्छा खान-पान एवं सुन्दरी का साथ...संसार भोगते भोगते कई दिन बीत गये। दीक्षित साध्वी माता को समाचार मिला कि अरणिक मुनि चारिश्र (दीक्षा) छोड़कर कहीं चले गये हैं। यह कुठाराघात माताजी सहन न कर सकीं। अरणिक को ढूंढने के लिए जगह जगह भटकने लगी ! मार्ग में पुकार उठती: मेरा अरणिक कहाँ गया ? ओ अरणिक तू ! कहाँ है ? अरे अरणिक ! तुझे दीक्षा पर्याय से किसने छीना ? कहाँ है ? कहाँ है ? वृद्ध साध्वी पुकार रही है और पागल साध्वी समझकर लोगों की टोली उसके पीछे हुल्ला-गुल्ला मचाती दौड़ रही है।
अरणिक एक दिन यह तमाशा झरोखे से देखते हैं। माता की चीख-पुकार सुनकर उनका मन पिघलता है। मेरी माताजी की यह दशा ? मेरे लिए ? नीचे उतरकर माँ के चरणों में गिरते हैं और माता विनति करती है : “तूने यह क्या किया ? मेरी कोख लजाई ? दीक्षा छोड दी ? किसने तुझे ललचाया ?’
अरणिक कहते हैं, “माताजी ! दुष्कर...दुष्कर...संयम मैं पालन नहीं कर सकता ! माताजी खूब समझाती हैं कि संयम के बिना इस भवभ्रमण में से कोई भी छुड़ा सके ऐसा नहीं है। यह एक ही तिरने का उपाय है । चाहे जो हो, फिर संयम लेना ही पडेगा ।
अरणिक एक शर्त पर पुनः संयम ग्रहण करने के लिए तैयार होते हैं, (संयम लेकर तुरंत ही अनशन करके प्राणत्याग करूंगा ।” यह शर्त । माँ मान्य रखती है, कुछ भी हो, तू प्राण त्याग करेगा यह मुझे स्वीकार है, लेकिन इस प्रकार संसार भोगकर भवोभव तेरी आत्मा नीच गति में भटके यह सहन नहीं होगा। माता पुत्र की शर्त से सहमत हुई। अरणिक पुनः दीक्षा ग्रहण करके दहकती हुई शिला पर सो गये, अनशन करके शरीर को गला दिया एवं कालक्रम से केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पधारे माता यह जानकर आनंदित होती है। एक जीव जो । दुर्गति के राह पर था उसे केवलज्ञानी बनाने के लिए बोध दिया और संसार से बचाया ।
धन्य माता - धन्य मुनि अरणिक