वन में एक पेड़ के नीचे ध्यानस्थ खड़े हैं। वहाँ मगधराज श्रेणिक अपने रसाले के साथ क्रीडा करने पधारते हैं और मुनि को देखकर चकित हो जाते हैं। मुनि की कंचनवर्णी काया, सुन्दर मुख और गुणशालिनी तरुण अवस्था देखकर मुनि को पूछते हैं, अरे मुनि, यह वेष क्यों धरा है? इस युवा उम्र को क्यों वैराग्यवान्‌ बनाया? इस उम्र में धन एवं यौवन का उपभोग क्यों नहीं करते! अवसर आने पर भले ही वैरागी बनो, लेकिन इस उम्र में कुटुम्ब, धन, यौवन क्यों छोड़ा?!!! –

 

मुनि ने कहा : राजन्‌! मैं अनाथ हूँ। अनाथ होने से संसार छोड़ा है। श्रेणिक राजाने कहा : मैं आपका नाथ बनूंगा। जो चाहोगे वह दूंगा, चलिये मेरे साथ राज्य में।

 

मुनि ने कहा, ’अरे भा‌ई! तूं भी अनाथ है, तूं कैसे मेरा नाथ बनेगा? देख! सुन, मेरे घर में इन्द्राणी जैसी सुशील गुण से भरी मेरी स्त्री थीं, मेरे माँ, बाप, चाचा, चाची, मामा, मौसी, बहिन, भानजे थे। सब प्रकार की साहिबी थी। सब प्रकार के भोग मैं भोगता था।

 

एक दिन मुझे रोग ने घेर लिया, असह्य दर्द और पीड़ा हो रही थी। वैद्यों ने दवा दी, मंतरजंतर किये, लेकिन किसी भी प्रकार से दुःख कम न हु‌आ। मेरे सगे, सम्बन्धी, माँ-बाप, मेरी स्त्री को‌ई भी मेरा दुःख लेने तैयार न हु‌ए। दुख मैं भोगता ही रहा। को‌ई सहायता काम न आ‌ई। ऐसे अति दुख के समय मैंने सोचा कि मेरा को‌ई नहीं है, मैं अकेला ही हूँ. इस दुख से छूट जा‌ऊँगा तो शीघ्र ही संयम ग्रहण करूंगा - ऐसा मन ही मन ठानलिया। धीरे धीरे पीड़ा घटती ग‌ई। प्रातः तक तो पीडा पूर्णरूप से गायब हो ग‌ई और मैं अपने निश्चय अनुसार घर से निकल पड़ा, संयम ले लिया। हे राजन्‌! मुझे पक्की समझ आ चुकी थी, मैं अनाथ ही था, अब मैं सनाथ हूँ।’

 

यह सुनकर श्रेणिक महाराजा को बोध प्राप्त हु‌आ और स्वीकार किया कि सचमुच! आपका कहना सत्य है, मैं भी अनाथ ही हूँ, आपका नाथ कैसे हो सकता हूँ? मुनि की प्रशंसा करके, शीश झुकाकर वंदना करके श्रेणिक अपने महल पधारे।