काकंदी नगरी में क‌ई धनाढ़य थे। उनमें भद्रा माता का पुत्र धन्ना शिरोमणि माना जाता था। उसको संपत्ति बेशुमार  उसके बत्तीस रूपवती स्त्रियाँ थी। देवता समान सुख और भोग भोगते हु‌ए उसका समय आनंद से व्यतीत हो रहा था।

 

एक बार चरम तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी अपने विराट साधु परिवार के साथ काकंदी के एक मनोहर उद्यान में पधारें I काकंदी के राजा जितशत्रु अपनी सेना तथा नगरजनों के साथ प्रभु दर्शन के लि‌ए गये और बड़े भावपूर्वक भक्ति की। देवों ने वहाँ सुवर्ण एवं रौप्यमय रत्नजड़ित समवसरण रचा। प्रभु महावीर समवसरण में बिराजित होकर देशना देने लगे। भद्रा का पुत्र धन्ना भी त्रिलोकीनाथ के दर्शन को आया। दर्शनवंदन करके वह भी प्रभु की देशना सुनने लगा। देशना सुनते सुनते भोगी भ्रमर धन्ना का हृदय वैराग्य रस में तरबोर हो गया। क्षण पूर्व का भोगमस्त धन्ना त्याग के रंग में डूब गया, संसार सुखों की अनित्यता व पराधीनता को समझा और मन ही मन संसार के सुखों को छोड़कर, देवाधिदेव भगवान श्री महावीर देव की शरण में दीक्षा लेने का निश्चय किया।

 

अमोघ शक्ति के स्वामी भगवान की एक ही देशना अनेकों की रागद्वेषरुपी आग को सदा के लि‌ए बुझा सकती है। इसी प्रभाव से धन्नाजी की आत्मा को सन्मार्ग की ओर मोड़ने में देशना समर्थ बनी। धन्नाजी भोगी थे पर भोग के गुलाम न थे। उन्होंने अपनी बत्तीस पत्नियों की विनती, प्रार्थना संसार में रहने की सुनी लेकिन धन्नाजी के मनोबल के आगे कुछ काम न आ‌ई। पत्नियाँ भी वीर थी। संसार के क्षणिक सुखों को लात मारकर, त्याग के मार्ग पर जाते धन्नाजी को पुनित मार्ग पर जाने के लि‌ए हृदय से सद्भावपूर्ण अनुमति दी।

 

भद्रा माता ने अपने इकलौते पुत्र को संसार सुख न छोड़ने के लि‌ए बहुत समझाया लेकिन धन्नाजी अटल रहें। निश्चित किये मार्ग को छोड़ने के लि‌ए लालायित न हु‌ए। अंत में माताजी ने भी पुत्र को दीक्षा के लि‌ए अनुमति दी।  भद्रा माता के आँगन में दीक्षा महोत्सव प्रारंभ हु‌आ। काकंदी के नाथ जितशत्रु राजा धन्नाजी के त्याग की बात सुनकर भद्रा माता के घर आये। धन्ना जैसे वीर की जननी होने के नाते उन्हें धन्यवाद दिया और उत्सव मनाने का लाभ स्वयं को मिले ऐसी मांग की।

 

राजाने भी धन्नाजी को आशीर्वाद दिया, उन्हें स्वयं स्नान कराया, मनोहर वस्त्र और मूल्यवान्‌ आभूषण पहिनाये। विशेष रूप से तैयार की ग‌ई पालकी में घुमाया। खूब आडंबर के साथ निकला जूलुस दुंदुभि आदि वाद्यों के नाद के साथ नगर के मार्गों से गुजरकर उद्यान में आकर रूका। इस जूलुस के मुख्य घुड्सवार बनने का लाभ जितशत्रु राजा ने लिया । ईशान दिशा में जाकर धन्नाजी ने वस्त्र-आभूषण उतारे एवं सब कुछ माताजी को सौंपा ।

 

भद्रा माता का हर्ष संभाले नहीं संभल रहा था। उन्होंने वीर प्रभु के पास आकर प्रार्थना करते हु‌ए कहा, “प्रभु ! मेरे लाडले की भिक्षा का आपको लाभ दे रही हूँ। आप इसका स्वीकार करें। आज से यह मेरा न रहकर समस्त संसार व चौदह राजलोक के जीवों का सच्चा रखवाला बन रहा है, उसे आप संभालना ।’

 

प्रभुश्री ने महारथी धन्ना को दीक्षा दी। उसी दिन धन्नाजीने श्री महावीर देव को विनती की, ’हे करुणासागर ! आज से छट्ठ के पारणे आयंबिल और फिर छट्ठ इस प्रकार यावज्जीवन मुझे करना हैं।! भगवान ने धन्नाजी को उनकी इच्छानुसार यह घोर प्रतिज्ञा दी। धन्नाजी ने इस प्रतिज्ञा का पालन अटलरूप से किया। गहन जंगल में एकांत स्थान में का‌उसग्ग ध्यान में स्थिर रहते। छठ्ट के पारणे छट्ठ का तप चालू रहा। आत्मा संयमी जीवन के सुखरस में टहलती रही। एक प्रातः प्रभु महावीर अपने चौदह हजार मुनिवरों के साथ राजगृही के गुणशील नामक उद्यान में पधारे। देवों द्वारा रचित समवसरण में बिराजित होकर भगवान ने देशना दी। यह देशना सुनने राजगृही के राजा श्रेणिक भी पधारे थे।

 

देशना पूर्ण होने पर महाराजा श्रेणिक ने परमात्मा से प्रश्न किया, “भगवंत ! आपश्री का साधु समुदाय त्याग, तप और संयम के गुणों से उत्कृष्ट है, फिर भी आपके इन चौदह हजार मुनिवरों में कौन से महर्षि सबसे उत्कृष्ट परिणाम में स्थित हैं? कृपा करके भगवन्‌ ! उस पुण्यशाली महामुनि का पुण्यनाम बता‌इयें।!

 

भगवान श्री महावीर देव ने स्वमुख से कहा, “राजन ! चौदह हजार अणगार में काकंदी का अणगार धन्ना ऋषि। धन्य हैं वह मुनि जो चारित्र में बढ़ा है, तप में जल चुका है। जो सदा छठ्ठ के पारणे में छठ्ट करता है और पारणे में मक्खी भी न बैठे ऐसा रुक्ष आहार लेता है, वह ऋषि जंगलों में एकांत स्थान पर कायोत्सर्ग में रहता है।”

 

प्रभु के मुख से यह बात सुनकर मगध का नाथ श्रेणिक चकित हो गया एवं मनोमन बोल उठा, “अहा धन्य वह महामुनि! जिसके अनुपम तपोबल की स्वयं प्रभु महावीर प्रशंसा करते हैं। वंदन है उन महर्षि के चरणों में ।” ऐसा सोचकर श्रेणिक वहाँ से उठकर तपोवन में गया, जहाँ पर धन्ना अणगार ध्यानस्थ अवस्था में खड़े थे। धन्नाजी तुरंत तो न दिखा‌ई पड़े लेकिन खूब घूर घूर कर देखने पर एक अस्थिपंजर जैसा उन्हें कुछ दीखा। वे ही महर्षि धन्ना अणगार थे।

 

छठ्ट के पारणे में रसकस रहित आयंबिल का आहार; इससे तपस्वी की देह कोयले जैसी श्याम हो चुकी थी, आँखें गहरी धँस ग‌ई थी, हाथ-पैर सूख गये थे, काया खून-माँस रहित अस्थिपंजर जैसी हो ग‌ई थी। शरीर क्षीण जरूर था लेकिन आत्मा पुष्ट थी। आत्मा के अनंत बल की महक से उन्होंने मोह, मान, माया, क्रोध पर विजय पायी थी। श्रेणिक महाराज वंदना करके लौट चले। कालक्रम से महर्षि धन्नाजी ने प्रभु की आज्ञा लेकर वैभारगिरि पर एक माह का अनशन किया। माह पूर्ण होते ही समाधिपूर्वक मृत्यु पाकर वे सवार्थिसिद्ध विमान में अनुत्तरवासी देव बने; वहाँ से महाविदेह में जाकर अंत में मोक्ष पायेंगे ।