चम्पापुरी में जितशत्रु नामक राजा राज्य करते थे, उन्हें सुयोग्य नामवाली सुकुमालिका नामक रानी थी। राजा जितशत्रु उस पर इतना आसक्त था कि वह राज्यादिक की भी चिंता करता नहीं था। राजा के इस प्रकार के आचरण से मंत्री वर्ग ने राजा को श्री सहित मदिरापान कराकर अरण्य में छोड़ दिया और उसके पुत्र को राजगद्दी पर बिठा दिया। मदिरा का नशा उतरने के बाद राजा-रानी दोनों सोचने लगे, अरे हम यहाँ कहाँ से ? हमारी कोमल शपय्या कहाँ गयी ? हमारे राज्यवैभव का क्‍या हु‌आ ?” ऐसा सोचते हु‌ए दोनों वहाँ से आगे बढ़े।

थोड़ी दूर चले तो सुकुमालिका को प्यास लगी। उसका कण्ठ और तालू सूखने लगे। उसने राजा को कहा, “स्वामी ! मुझे जीवित रखने के लि‌ए कहीं से जल ला दो ।” राजा जल लेने गया, मगर कहीं पर जल देखने में नहीं आया। पश्चात्‌ पलाश वृक्ष के पत्तों का दोना बनाया, ओर उसमें अपने बाहु की नस में से रुधिर निकाल कर भरा। वह दोना रानी के पास लाकर कहा, ’प्रिये! यह डबरे का जल अति मलिन है, उसे आँखें बंद करके पी जा।” रानी ने वैसा किया। कुछ देर बाद वह बोली, “स्वामी ! मुझे बहुत भूख लगी है।” राजा ने कुछ दूर जाकर छुरी से अपनी जांघ का माँस काटकर उसे अम्रनि में पकाकर रानी के पास रखा ओर पक्षी का माँस कहकर उसे खिलाया। अनुक्रमसे वहाँ से किसी देश में जाकर अपने आभूषणों को बेचकर कुछ व्यापार करके राजा उसका पोषण करने लगा।

 

एक बार रानी ने कहा, “स्वामी ! जब आप व्यापार करने बाहर जाते हो तब मैं अकेली घर में नहीं रह पाती हूँ।” ऐसे वचन सुनकर राजा ने एक पंगु मनुष्य को चोकीदार के रूप में घर पर रखा। उस पंगु मनुष्य का कण्ठ बड़ा मधुर था। इस कारण उस पर मोहित होकर रानी ने उसको अपना स्वामी स्वीकार लिया, तब से सुकुमालिका अपने पति जितशत्रु को मारने के विचार करने लगी।

 

एक बार राजा रानी को लेकर वसंतऋतु में जलक्रीडा करने के लिये गंगा तट पर गया। राजा ने मध्यपान किया। जब राजा बेहोश हो गया तो रानी ने उसे गंगा के प्रवाह में बहता छोड़ दिया। फिर रानी सुकुमालिका उस पंगु को कंधे पर बिठाकर भीख माँगती हु‌ई घूमती और उसके पास स्वेच्छा से गान करवाती यह देखकर लोग उसे पूछते, “यह कौन है ? तब वह कहती, “मेरे माता-पिता ने ऐसा पति देखा है, इसलिये स्कंध पर उसको वहन करती हूँ ।!

 

इधर राजा जितशत्रु को गंगा में बहते हु‌ए होश आया, तब एक लकड़ी का तख्ता हाथ लगा। उसके सहारे वह तैर कर बाहर निकला एवं वहीं एक वृक्ष के नीचे सो गया। उस समय समीपवर्ती नगर के राजा की अपूत्र मृत्यु हो जाने से उसके मंत्रियों ने पंचदिव्य किये, वे उस वृक्ष के पास आकर खड़े रहे, इसलिये मंत्रियों ने राजा को जगाकर राज्यगद्दी पर बिठाया। दैव योग से वह सुकुमालिका पंगु को लेकर उसी नगर में आ पहुँची । वे दोनों सतीपने और गीतमाधुर्य से उस नगर में विख्यात हु‌ए। , उनकी प्रसिद्धि सुनकर राजा ने उनको अपने पास बुलवाया। दोनों को देखकर राजा ने पहचान लिया। राजा बोला, ’हे बा‌ई ! ऐसे बीभत्स पंगु को उठाकर तू क्‍यों घुमती है ? वह बोली, “मातापिता ने जैसा पति ढूंढा हो उसे सतियों को इन्द्र तुल्य मानना चाहिये।” यह सुनकर राजा बोला, हे पतिव्रता तुझे धन्य है। पति के बाहु का रुधिर पिया और जांघ का माँस खाया तो भी अंत में गंगाके प्रवाह में डाल दिया । अहो ! कैसा तेरा सतीपना !” इस प्रकार कहकर उस न्यायी राजाने स्त्रीको अवध्य मान कर अपने देशकी सीमा से बाहर निकलवा दिया और इस प्रकार प्रत्यक्ष स्त्रीचरित्र देखकर उसने सर्व स्त्रियों का त्याग करके महाव्रत लिया।

 

सुकुमालिका का चरित्र देखकर जितशत्रु राजा विषयसुख से विरक्त बना और काम-क्रोधादि शत्रु‌ओं पर जय पाकर अपना जितशत्रु नाम सार्थक किया।