वसंतपुर नगर में जिनदास नामक एक मंत्री था। उसके तत्त्वमालिनी नामक धर्मनिष्ठ पत्नी थी, जिसकी कोख से सुभद्रा का जन्म हुआ था। सुभद्रा ने उच्च शिक्षण प्राप्त करके जैन धर्म के तत्त्वज्ञान का अच्छा अभ्यास किया, जिससे वह जैन धर्मानुरागी तो थी ही लेकिन दृढ श्रद्धालु भी बनीं। वयस्क होने पर पिता ने योग्य वर ढूंढने की मेहनत की। जैसी पुत्री धर्म की ज्ञाता है वैसा ही धर्मी वर मिले ऐसी उसकी इच्छा थी। चंपानगरी से आये एक बुद्धदास नामक युवान ने सुभद्रा के रूप गुण के बखान सुने और तय किया कि शादी करूं तो सुभद्रा से ही। परंतु वह जैनधर्मी न था। सुभद्रा जैनधर्मी से ही शादी करना चाहती थी इसलिए बुद्धदास ने जैन धर्म के आचार विचार और क्रियाकांड ऊपर ऊपर से सीख लिये और कपटी श्रावक बन गया। जिनदास ने इस बुद्धदास को जैन क्रियाकांड करते देखा और सुभद्रा के लिये योग्य वर है ऐसा समझकर बुद्धदास के साथ सुभद्रा का ब्याह कर दिया। सुभद्रा बुद्धदास के साथ ससुराल आ गई। कुछ ही समय में सुभद्रा समझ गई कि बुद्धदास और उसका कुटुम्ब जैनधर्मी नहीं है, लेकिन अब वह लाचार थी। ब्याह हो चुका था, संसार निभाना ही रहा और वह पारिवारिक कर्तव्य ठीक तरह से निभा कर समय मिलने पर धर्मध्यान करती। परंतु उसकी सास को यह सब पसंद न था इसलिये वह सुभद्रा के छिद्र ढूंढती रहती थी। एक बार कोई तपस्वी साधु महाराज सुभद्रा के दरवाजे पर गोचरी के लिए आये। ऋषिमुनि का मुख देखकर सुभद्रा को ख्याल आया कि मुनि की आँख में तिनका पड़ा हुआ है और आँख में से खून बह रहा है। सुभद्रा को करुणा ऊपजी। कैसे भी करके मुनि की आँख मेंसे तिनका निकालना चाहिये ऐसे सद्भाव से उसने अपनी जीभ
फिराकर मुनि की आँख से तिनका निकाल दिया। यों करते हुए उसके ललाट का टीका साधु के ललाट पर लग गया। साधु धर्मलाभ देकर चले गये लेकिन जाते हुए मुनि के भाल पर टीका देखकर सास क्रुद्ध हो गई। बहु को न कहने योग्य शब्द कहे और पुत्र बुद्धदास को उकसाया कि "तेरी बहु तो कुलटा है। उसने साधु के साथ काला कारनामा किया है।!
सुभद्रा के सिर पर कलंक आया। उसका पति भी उसका पक्ष लेकर कुछ बोलता नहीं है। निर्दोष साधु और अपने पर लगे हुए कलंक के दूर होने तक सुभद्रा ने अन्नजल का त्याग किया ।
सती पर आये हुए अपार दुःख को देखकर शासनदेवता ने सती को सहाय करने का निश्चय किया और नगरी के चारों दरवाजे बंद कर दिये। इससे नगरी में हाहाकार मच गया। दरवाजे खोलने के लिये नागरिक और राजा के सैनिकों ने बहुत प्रयत्न किये फिर भी दरवाजे खुलते नहीं थे जिससे उसके द्वार तोड़ डालने का हुक्म राजा ने सुभटों को दिया। वे भी दरवाजे न तोड़ सकें। राजा तथा प्रजा दोनों ही चिंता में पड गये।
कुछ समय के बाद आकाशवाणी हुई कि “जो सती हो वह कच्चे सूत के तार से आटा छानने की चलनी से कुँए से जल निकालकर दरवाजे पर छिडकेगी तो दरवाजा खुलेगा।!
ऐसी आकाशवाणी सुनकर चंपानगरी की सेठानियाँ, राजा की रानियाँ “मैं सती हूँ, में सती हूँ” ऐसा मानती हुई कुँए में से जल निकालने के लिए चलनी को कच्चा सूत बांधकर बारी बारी से मेहनत करने लगी । परंतु कोई इस प्रकार जल न निकाल सका। वे सब नीचा मुँह करके लौट गयी।
राजा ने नगरी में ढिंढोरा पिटवाया कि जो इस प्रकार से दरवाजा खोलेगा उसे बहुत धन दिया जायेगा। सुभद्रा ने यह ढिंढोरा सुना और द्वार खोलने जाने के लिए सासुमाँ की आज्ञा माँगी। सास ने क्रोध से कहा, “बैठ...बैठ...चुपचाप। तेरे चरित्र कहाँ अनजाने हैं! अब पूरे गाँव में हँसी उडानी है क्या ?
लेकिन दृढ़ मन से सासु का कहना अनसुना करके नवकार गिनते गिनते वह कुँए के पास गई, कच्चे सूत के तार से चलनी को बाँधा, । कुँए में डाली और गाँव लोगों के आश्चर्य के बीच चलनी भरके जल निकाला। उस समय देवताओं ने आकाश से फूलों की वृष्टि की।
सुभद्रा ने बारी बारी से एक एक द्वार पर जल छिड़का और तीन दरवाजे खोलें तथा गाँव में अन्य कोई सती हो तो आये और चौथा द्वार खोले ऐसा आह्वान दिया पर कोई आगे न आया । (अन्य ग्रन्थों में ऐसी बात है कि मेरे जैसी कोई अन्य सती होगी वह दरवाजा खोलेगी ऐसा कहकर वह दरवाजा बंद ही रखा और कथा लिखनेवाले के समय भी बंद था) फिर सुभद्राने चौथे द्वार पर जाकर ’हे परमात्मा, मेरी लाज रखना, मैंने अपने पति के सिवाय अन्य किसी को स्पर्श न किया हो या उस के बारे में मन से भी न सोचा हो तो जल छिडकते ही द्वार खुल जाये” ऐसे भाव से पानी छिड़गा और चौथा दरवाजा भी खुल गया। यह देखकर सुभद्रा के ससुरालवाले, सास, श्वसुर, उसका भरथार वगैरह सुभद्रा सती की क्षमा माँगकर बोले, “धन्य सती, धन्य ! तेरे जैसी सती वाकई गाँव में अन्य कोई नहीं है।! साधु की आँख में से करुणा भाव से तिनका किस प्रकार निकाला था यह सुभद्रा ने समझाया और सबको समकिती बनाने के एकमात्र आशय से जैनधर्म समझाया। अंत में सती सुभद्रा ने दीक्षा ली और कर्मों का नाश करके केवलज्ञान पाकर मुक्तिपुरी में गई ।