सुदर्शन सेठ पक्के शील संपन्न होने के कारण बड़े प्रसिद्ध थे। शील का आदर्श प्रस्तुत करने के लि‌ए मुखतः इस पुण्यात्मा का नाम लिया जाता है। श्री सुदर्शन जिस प्रसंग के योग से ख्याति प्राप्त कर सके वह प्रसंग सामान्य श्रेणि का नहीं है। प्रारंभ से लेकर अंत तक सुदर्शन सेठ ने जो दृढ़ता बता‌ई है, सदाचार के सेवन में थोड़ी सी भी ढील नहीं छोड़ी है, उसे यदि बराबर से विचारा जाये तो समझ में आयेगा कि भौतिक अनुकूलता का अर्थपना टले बिना ऐसा बनना असंभव है।

 

अंगदेश की चंपापुरी नगरी के राजा दधिवाहन को अभया नामक पत्नी थी। सुदर्शन सेठ इस चंपापुरी में बसते थे। उन्हें मनोरमा नामक पत्नी थी। सुदर्शन सेठ को चंपापुरी के पुरोहित से गाढ़ मैत्री थी। मित्राचारी इतनी गाढ़ थी कि पुरोहित सुदर्शन के साथ अधिकतर रहता था। इस मैत्री के कारण पुरोहित अपने नित्यकर्म को भी क‌ई बार भूल जाता । पुरोहित की ऐसी हालत देखकर उसकी पत्नी कपिला ने एक बार उसे पूछा, ‘नित्यकर्म को भूलकर आप इतना सारा वक्त कहाँ बिताते हो?’ पुरोहित ने बताया, ‘मैं कहीं और नहीं जाता हूँ। मेरे परम मित्र सुदर्शन के पास ही रहता हूँ।’

 

कपिला के ‘सुदर्शन कौन है’ पूछने पर जवाब में पुरोहित ने कहा, ‘वह ऋषभदास श्रेष्ठि का पुत्र है।’ बुद्धिशाली व रूप में कामदेव समान है। सूर्यसमान तेजस्वी है । महासागर जैसा गंभीर है। उसमें अनेक गुण हैं । उसका सदाचार रूपी शीलगुण अद्भुत है। उसका सदाचरण थोड़ा सा भी ढीला नहीं पड़ता है।’

 

पुरोहित गुणानुरागी था। वह सुदर्शनों के गुणों से मुग्ध बन गया, उसकी की हु‌ई प्रशंसा का परिणाम कपिला के लि‌ए उलटा सिद्ध हु‌आ। ‘गुण और रूप में जिसकी जोड़ी नहीं है - ऐसा सुदर्शन है’ - सुनकर कपिला कामविह्वल बन ग‌ई। कामातुर बनी कपिला ने सुदर्शन को अपने पास लाने की इच्छा व्यक्त की। वह सुदर्शन के साथ भोग के लि‌ए बेकरार थी लेकिन उसकी इच्छा पूर्ति होना को‌ई सरल कार्य न था।

 

अचानक राजा के हुक्म से पुरोहित को बाहरगाँव जाना पड़ा। कपिला इस अवसर का लाभ उठाने के लिये सीधी सुदर्शन के घर पहुंची और सुदर्शन को कहा, ’तुम्हारा मित्र अत्यंत बीमार हो गया है और आपको बुला रहा है। इसलि‌ए मेरे साथ मेरे घर पर तुम्हारे मित्र को मिलने चलो। भोले भाव से सुदर्शन ने यह बात सच मान ली। इसमें कुछ कपट होगा? ऐसा खयाल तक उसे न आया और वह कपिला के साथ घर आया।

 

मकान में दाखिल होते ही उसने पूछा, ‘पुरोहित कहाँ है?’ उसे घर के अन्दर आगे लेजाकर आखिरी कमरे में पहुँचते ही कपिला ने दरवाजा अन्दर से बंद कर दिया और निर्लज्ज, बीभत्स नखरें करने लगी व क्रीड़ा की माँग की।

 

सुदर्शनपूरी स्थिति को पहचान गये और कपट-जाल से पूर्णरूप से बचने का उपाय सोचने लगे। सही ढंग से समझाने से कपिला माननेवाली थी नहीं। उसे समझाने से न समझे व खोटा आरोप भी लगा दे तो? चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को इकठ्ठा कर ले व बे‌इज्जती हो ऐसा समझकर हँसकर सुदर्शनने कहा :

 

अरे मूरख! तूने बड़ी भूल की है। जो कार्य के लि‌ए तू मुझे यहाँ ला‌ई है, उसके लि‌ए तो मैं बेकार हूँ। मैं नपुंसक हूँ और मेरे पुरुष भेस से तू धोखा खा ग‌ई है।’

 

सुदर्शन का जवाब सुनकर कपिला ठंडी पड़ ग‌ई। उसका कामावेश बैठ गया। कितनी मेहनत और कैसा परिणाम! अपनी मूर्खता के परिणाम से बैचेन हो उठी और सुदर्शन को धक्का मारकर ‘चलता बन’ कहकर घर से बाहर निकाल दिया।

 

सुदर्शनने सोचा, ‘मैं झूठ नहीं बोला हूँ। परस्त्री के लि‌ए मैं नपुंसक ही हूँ। वे शीघ्रता से अपने घर आ गये। दुबारा कभी भी ऐसा न हो इसलिये किसीके घर भविष्य में अकेले न जाने की प्रतिज्ञा की।

 

एक बार चंपानगरी के राजा दधिवाहन ने इन्द्रमहोत्सव का आयोजन किया। वहाँ महारानी अभया के साथ पुरोहितपत्नी कपिला भी थी। एक ओर सुदर्शन सेठ की पत्नी मनोरमा भी अपने छः पुत्रों के साथ महोत्सव में भाग ले रही थी। उसे देखकर कपिला ने महारानी अभया को पूछा : ‘यह रूपलावण्य के भण्डार समान बा‌ई कौन है?’

अभया ने कहा, ‘अरे! तू इसे पहचानती नहीं है? यह सेठ सुदर्शन की पत्नी है और उसके साथ उसके छ: बेटे हैं। यह सुनकर कपिला को आश्चर्य हु‌आ। यदि सुदर्शन की गृहिणी है, तो बड़ी कुशल स्त्री है - ऐसा मानना पड़ेगा।’ रानी अभया ने पूछा, ‘कौनसी कुशलता?’ कपिला ने कहा, ‘वही कि इतने पुत्रों की माता है?’ रानी कुछ जानती न थी सो समझ न सकी इसलि‌ए कहा, ‘जो स्त्री का स्वाधीन पति है - वह ऐसे रूपवान और इतने पुत्रों की माता बने उसमें उसकी क्या कुशलता?’

 

कपिला ने कहा, ‘देवी! आपकी बात तो है सच्ची लेकिन वह तब हो सके जब पति पुरुष हो, सुदर्शन तो पुरुष के भेस में नपुंसक है।’ अभया ने पूछा, ‘तूने किस प्रकार जाना?’

 

रानी के पूछने पर कपिलाने अथ से इति तक की स्वयं अनुभव की सुदर्शन के साथ सम्बन्ध बनाने की बात कह सुना‌ई।

 

रानी ने कहा, ‘तेरे साथ ऐसा हु‌आ? यदि तू कहती है ऐसा सचमुच बना है तो तू धोखा खा ग‌ई है। सुदर्शन व्यंढल है लेकिन परस्त्री के लि‌ए, स्वस्त्री के लि‌ए तो भरपूर पुरुषत्ववाला है।’ ऐसा सुनकर कपिला को अत्यंत खेद हु‌आ। उसके दिल में ईर्ष्या जाग उठी। उसने अभया को कहा, ‘मैं तो मूढ़ हूँ इसलि‌ए धोखा खा ग‌ई पर आप तो बुद्धिशाली हैं। आप में कुशलता हो तो आजमा‌इये और सुदर्शन के साथ भोग कीजिये।’

 

अभया ने गर्व से कहा, ‘मुग्धे! राग से मैने जो हाथ पकड़ा तो पत्थर भी पिघल जाता है तो संज्ञावान्‌ पुरुष के लि‌ए तो कहना ही क्या? चालाक रमणी‌ओं ने तो कठोर वनवासियों व तपस्वियों को भी फंसाया है तो यह तो मृदु मनवाला गृहस्थ है।’

 

ईर्ष्या से जलती कपिला ने कहा, ‘देवी! ऐसा गर्व न करो! यदि ऐसा ही अभिमान है तो सुदर्शन के साथ खेलो।’ कपिला के ऐसे कथन से अभया का गर्व बढ़ गया। उसने कहा, ‘ऐसी बात है! तो तू समझ ले कि मैं सुदर्शन के साथ खेल चुकी।’

इतना कहकर अहंकार के आवेश में होश खोकर अभया ने प्रतिज्ञा ली, ‘सुदर्शन के साथ यदि मैं रतिक्रीडा न कर पा‌ऊँ और यदि उसे फँसा न लूं तो मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी।’

 

रानी अभया ने अपने महल में जाकर यह कूट प्रतिज्ञा की बात साथ मैं रहती पण्डिता नामक धावमाता को बता‌ई।

 

धावमाता ने उसको कहा, ’तूने यह ठीक नहीं किया। तूझे महान आत्मा‌ओं की धैर्यशक्ति की खबर नहीं है । साधारण श्रावक भी परनारी का त्यागी होता है, यह तो महासत्त्व शिरोमणि सुदर्शन के लि‌ए तेरी धारणा अनुसार बनना लगभग असंभव है। गर्विष्ठ अभया ऐसा समझ सकनेवाली न थी। वह बोली, ‘कुछ भी करके-येनकेन प्रकारेण सुदर्शन को एक बार मेरे आवास में ले आ‌ओ। बाद में मैं सबकुछ संभाल लूंगी।’

 

पण्डिता आखिर थी तो एक नौकरानी ही और इससे उसकी ताबेदार ही थी। पण्डिता ने कहा, ‘मुझे एक ही मार्ग ठीक लगता है। उसे समझा-बहकाकर तो यहाँ नही लाया जा सकता। वह जब पर्व के दिन शून्य घर आदि में कायोत्सर्ग करता है, सिर्फ उसी वक्त उसे उठा लाना चाहिये। दूसरा अन्य को‌ई उपाय दिखता नहीं है।’ रानी ने भी कहा वही ठीक है, तू ऐसा ही करना!’

 

शहर में कौमुदी महोत्सव का समय आया। इस महोत्सव को देखने हरेक को आना होगा - ऐसा राजा का फरमान निकला। उस दिन धार्मिक पर्व होने से राजा से मिलकर धर्म आराधना करने के लि‌ए सेठ नगर में रूकने की आज्ञा ले आये।

 

वे नगर के एकांत स्थल में पौषध व्रत लेकर कायोत्सर्ग में स्थिर रहे। अभया रानी एवं धावमाता पंडिता ऐसे ही मौके की ताक में थी। उन्हें मालूम होमया कि सुदर्शन सेठ कौमुदी महोत्सव देखने जानेवाले नहीं है। नगर में रुककर "कायोत्सर्ग में रहेंगे। अभया के पास जाकर पंडिता ने कहा, ‘तेरे मनोरथ शायद आज पूर्ण होंगे। तू उद्यान में कौमुदी महोत्सव देखने मत जाना।’ इस हिसाब से रानी भी सरदर्द हो रहा है - ऐसा बहाना निकालकर महोत्सव मे न ग‌ई। भोले भाव से राजा ने भी बहाना मान लिया। वे रानी को आवास में ही छोड़कर महोत्सव मे भाग लेने गये।

 

अब धावमाता ने अपना दाव आजमाया। राजमहल में कुछ मूर्तियाँ ढककर लानी है - ऐसा कहकर पहले कुछ मूर्तियाँ ढककर सेवकों से उठवायीं और कायोत्सर्ग में खड़े सुदर्शन सेठ को भी कपड़ो से ढककर सेवकों द्वारा उठवाकर रानी के आवास मे रख दिये। सुदर्शन सेठ तो कायोत्सर्ग में थे जिसके कारण सेवकों को सहूलियत मिल ग‌ई थी।

 

‘सुदर्शन को लाने के बाद पण्डिता वहाँ से चल दी और अभया ने अपनी निर्लज्जता दिखाना शुरू कर दिया। प्रथम बिनती करके समझाने का प्रयत्न किया और तत्पश्चात अंगस्पर्श, आलिंगन वगैरह करके देखा, परंतु सुदर्शन के एक रोम पर भी उसका असर न हु‌आ। मेरु की भाँति वे अटल रहे । जिस प्रकार जड पूतले को कुछ असर नहीं होता है उसी प्रकार सुदर्शन के उपर अभया की कामचेष्टा का कुछ असर न पडा। वे निर्विकार ही रहे।

 

रानी अभया ने जब अंगस्पर्श आदि की भयंकर कुटिलता प्रारंभ की तो सुदर्शन ने मन से प्रतिज्ञा कर ली कि ‘जब तक यह उपसर्ग न टले तब तक मुझे कायोत्सर्ग ही रहे और जब तक कायोत्सर्ग न टले तब तक मेरा अनशन हो।’ इस प्रतिज्ञा को समतापूर्वक पालने के लि‌ए सुदर्शन धर्म-ध्यान में सुस्थिर बने।

 

एक तरफ पूरी रात अभया की कुचेष्टा‌एँ चलती रही। जब ऐसे उपसर्गो से भी सुदर्शन जरा से भी चलित न हु‌ए तो अभया ने धमकियाँ देना शुरू किया और साफ शब्दों में कह दिया, ‘या तो मेरे वश हो जा, नहीं तो यम के वश होना पड़ेगा, मेरी अवगणना मत कर, मुझे वश न हु‌आ और मेरी इच्छा की पूर्ति न की तो समझ ले अब तेरी मौत हो जायेगी।

 

सुदर्शन जिंदगी को प्रिय समझकर सदाचार छोड़ने के लिये तैयार न थे। असाधारण दृढ़ मन से पूरी रात अभया द्वारा होते उपसर्गों को सहन किया। प्रभात होने आया लेकिन अभया की युक्ति काम न आ‌ई। इससे वह घबरा ग‌ई। बहुत सोचकर अब अंत में वह सुदर्शन पर तोहमत लगाने का विचार करने लगी।

 

सुदर्शन को कलंकित ठहराने के लिये उसने स्वयं अपने आप शरीर पर खरोंचे भरी और ‘बचा‌ओ, बचा‌ओ... मुझ पर को‌ई बलात्कार करने आया है’ ऐसा चिल्लाने लगी।

 

आवाज़ - चीखपुकार सुनकर क‌ई नौकरों ने वहां आकर सेठ की कायोत्सर्ग मुद्रा देखी, यह संभव नहीं ऐसा मानकर वे राजा को बुला लाये। राजाने आकर पूछा : ‘क्या है?’

 

अभया ने कहा, ‘मैं यहाँ बैठी थी, इतने में पिशाच जैसे इसको अचानक आया ह‌आ मैंने देखा । भैंसे समान उन्मत बने इस पापी कामव्यसनीने कामक्रीडा के लि‌ए अनेक प्रकार से नम्रतापूर्वक मुझको प्रार्थना की लेकिन मैंने इसको धुत्कार दिया, तु असती की तरह सती की इच्छा मत कर, परंतु मेरा कहा इसने माना नहीं और बलात्कार से इसने मुझे ऐसा किया।’

 

इस प्रकार कहकर उसने खरोंचे बता‌ई और अंत में कहा, ‘इस कारण मैं चिल्लाने लगी, अबला और करे भी क्या?’ रानी ने ऐसा कहा लेकिन राजा को विचार आया कि ‘सुदर्शन के लिये यह संभव नहीं है।’ .

 

सुदर्शन को अंत:पुर में खड़े देखा और खुद अपनी पटरानी ने आरोप लगाया, जुल्म गुजारा हो ऐसे चिह्न भी राजा ने देखे । ऐसे दार्शनिक ठोस सबूत होने पर भी राजा ने सोचा, ’सुदर्शन के लि‌ए यह संभवित नहीं है!’ सुदर्शन की ख्याति, धर्मशीलता एवं उसकी प्रतिष्ठा ने चंपानगरी के मालिक राजा दधीवाहन को सोच में डाल दिया।

 

रानी की हाजिरी में राजा ने सुदर्शन को कहा, ‘जो भी हो वह सच कहो! इसमें सत्य क्या है?’ सुदर्शन तो कायोत्सर्ग में ही स्थिर थे। राजा ने बार बार पूछा लेकिन सुदर्शन मौन रहे । वे समझते थे कि ‘मैं बेगुनाह हूँ लेकिन सच्ची बात कहूँगा तो रानी का क्या होगा? जो आपत्ति मुझे इष्ट नहीं है वह रानी पर आयेगी। रानी बदनाम हो जायेगी और शायद सूली पर लटकना पड़ेगा।’

 

सुदर्शन अब मौन रहते हैं तो आपत्ति उन्हें झेलनी पड़ती है और यदि बोलते हैं तो आपत्ति रानी को उठानी पड़े ऐसा है।

 

सुदर्शन ने सोचा कि मेरा धर्म क्या है? अहिंसा पालन - यह सदाचार है। और हिंसा अनाचार है। अहिंसा पालनरूपी सदाचार की रक्षा करने का कर्तव्य एक सदाचारी के सम्मुख मौका बनकर खड़ा था।

 

कुछ भी हो, दृढ़ता से मौन रहने का निश्चय कर लिया, अपनी बदनामी ही नहीं, अपितु सूली भी संभव है। शीलरक्षा के लि‌ए अभया का कष्ट सहा अब दयापालन के लि‌ए जो भी आफत आये वह सहने के लि‌ए सुदर्शन तैयार हु‌ए। बार बार पूछने पर भी सुदर्शन मौन ही रहे और राजा ने सोचा, ‘संभव है कि सुदर्शन दोषित हो।

 

क्योंकि, ‘मौन’ व्यभिचारियों का और चोरों का एक लक्षण है।’ इस कारण राजा क्रोधाधीन हु‌आ और अपने सेवकों को सुदर्शन का वध करने की आज्ञा दे दी। सुदर्शन को ऐसे सजा दी जाये तो नगर में, लोगो में उत्तेजना फैल जायेगी। सदाचारी माने जाते सुदर्शन को ऐसी सजा साधारणतया नगरजन सहन नहीं करेंगे. इसलि‌ए पहले सुदर्शन को गाँव में घूमाकर, उसके दोषों की विज्ञप्ति करने के बाद ही उसका वध करने की आज्ञा राजा ने फरमायी।

 

राजा की आज्ञानुसार राजसेवकों ने सुदर्शन को पकड़कर मुँह पर मसी पोती और शरीर पर लाल गेरु का लेप लगाया। गले में विचित्र प्रकार की माला‌एँ पहना‌ई और गधे पर बिठाकर सूप का छत्र धरा । और फटा हु‌आ ढोल उसके आगे पीटते पीटते सुदर्शन को गाँव में ग्रजसेवक घूमाने लगे। वे उद्घोषणा करते हु‌ए कहते थे कि ‘सुदर्शन ने रानीवास में गुनाह किया है, इसलि‌ए उसका वध किया जा रहा है, राज-आज्ञा है, लेकिन इसमें राजा का को‌ई दोष नहीं है।’

 

इतना बीतने पर भी सुदर्शन तो अपने ध्यान में पूर्ववत स्थिर ही रहे हैं। स्वयं सर्वदा निर्दोष होने पर भी केवल सदाचार की रक्षा के खातिर आफत झेलनी पड़ी हैं। खुद के उपर दुराचारी का कलंक आये, पूर्वकालीन अशुभोदय आया हो तो ही ऐसा हो सकता है। निर्दोष होने पर भी दोषित बनकर शिक्षा भोगने का वक्त आ गया है।

 

सुदर्शन को पूरे गाँव में घूमाते घूमाते उसके घर के सामने लाया गया। उसकी स्त्री महासती मनोरमा ने यह सब देखा, सुना और सोचा, ‘मेरे पति सदाचारी हैं। मेरे पति ऐसा कार्य कर ही नहीं सकते। वाक‌ई यह पूर्व के अशुभ कर्म का ही फल उपस्थित हु‌आ है।’

 

उसने मनोमन निश्चय किया कि ‘जहाँ तक मेरे पति पर आयी हु‌ई विपत्ति टलेगी नहीं वहाँ तक मुझे कायोत्सर्ग में रहना है और अनशन करना है।’

 

महासती मनोरमा की दृढ प्रतिज्ञा एवं सुदर्शन सेठ का पवित्र शील अंत में विजयी बने। असत्य के गाढ़ आवरण टूट गये। राजा के नोकरों ने सुदर्शन सेठ को सूली पर चढाया तो सूली टूट ग‌ई और आश्चर्य के साथ सोने के एक सिंहासन पर सेठ दिखा‌ई दिये। सुदर्शन श्रेष्ठी की जयजयकार हु‌ई। शासन देवता‌ओं ने इस अवसर पर रानी की पोल खोल कर रहस्योद्घाटन किया। रानी परदेश भाग ग‌ई।

 

राजा ने सेठ को आदरपूर्वक नमस्कार किया और अपराध के लि‌ए क्षमा मांगी। दोनों ने एक-दूसरे को सांत्वना दी। क्रमानुसार संयम ग्रहण करके सुदर्शन सेठ केवलज्ञान पाकर मुक्तिपुरी में पहुंचे।