भरत क्षेत्र के कच्छ देश में विजय नामक एक श्रावक रहता था। बचपन में ही धार्मिक संस्कारों के कारण कृष्ण पक्ष याने वद के पखवारे में उसने चौथा व्रत पालने का निश्चय कर लिया था। कर्म संयोग से विजया नामक सुन्दर कन्या के साथ उसका संबंध हुआ। सद्गुरु के योग से विजयाने शुक्ल पक्ष में चौथा व्रत पालने का नियम लिया हुआ था। शुभ दिन उनका विवाह हुआ । शादी के बाद पिया को मिलने सजधज कर रात्रि को विजया शयनकक्ष में पहुँची। कृष्ण पक्ष के तीन दिन बाकी थे इसलिये विजय ने कहा, “हम तीन दिन के बाद संसारसुख भोगेंगे। मैंने कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचारी रहने का नियम लिया है।!” यह सुनकर विजया चिंतातुर हो गई। उसे दिग्मूढ हुई देखकर विजयने पूछा, “क्या मेरे व्रतपालन में तू सहकार नहीं देगी ?” तब विजया बोली, “आपने कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया है वैसे ही मैंने शुक्ल पक्ष में ब्रह्मचारी रहने का चौथा व्रत धारण किया हुआ है। आप सुखपूर्वक दूसरी स्त्री से ब्याह करो और आपके व्रत अनुसार कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचारी रहना और नई स्त्री के साथ शुक्ल पक्ष में संसारसुख भोगना।
तब भर्तार ने प्रत्युत्तर दिया, “अरे! हम लिये हुए व्रत को जीवनभर बराबर पालेंगे। इसकी जानकारी किसीको भी न होने देंगे। जब माता-पिता हमारे व्रत की बात जानेंगे तब हम दीक्षा ले लेंगे।” दोनों ने सोच विचार कर तय किया कि जीवनभर व्रत का पालन करेंगे।
एक ही कमरे में एक ही पलंग पर दोनों साथ साथ सोते थे। बीच में एक तलवार रखते जिससे एक दूसरे का अंग एक दूसरे को छू न जाय । इस प्रकार पर्वत की तरह अडिग रहकर दुनिया की नजर में संसारी लेकिन यथार्थ रूप से वैरागी रहे । इस प्रकार भावचारित्र पालते हुए कई वर्ष बीत गये।
एक बार चंपानगरी में विमल नामक केवली पधारे। वहाँ के एक श्रावक जिनदास ने कहा: “जिन्दगी का एक मनोरथ है कि चौरासी हजार साधु मेरे घर पारणा करें।” तब विमल केवली ने कहा, “यह बात होनी संभवित नहीं है, क्योंकि इतने तपस्वी साधु आये कहाँ से ? उनको सूझता आहार कैसे दिया जाय ? लेकिन उतना ही फल मिले ऐसा एक मार्ग है सही । यदि आप कच्छ देश में जाकर विजय सेठ और विजया सेठानी जो भविष्य में दीक्षा ग्रहण करनेवाले हैं उन्हें भोजन कराओ तो चोरासी हजार साधुको पारणा करानेका फल प्राप्त होगा ।”
जिनदास ने केवली से पूछा : “अहो ! ऐसे उनमें क्या गुण हैं ? केवली बोले, “अनंत गुणों से वे भरपूर हैं। एक ने कृष्ण पक्ष में और दूसरे ने शुक्ल पक्ष में चौथा व्रत पालन करने का नियम धारण किया होने के कारण वे शुद्धतापूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहे हैं ।” केवली के मुख से यह बात सुनकर जिनदास श्रावक कच्छ देश आये। इन श्रावक-श्राविका को ढूंढ निकाला। दोनों को वंदन करके उन्होंने केवली के मुख से सुनी हुई बात जाहिर की। फिर उन्हें भोजन कराकर जिनदास सेठ धन्य बने और केवली के कथनानुसार चौरासी हजार साधुओं को पारणा कराने का जो फल मिलता वह इस दम्पती को भिक्षा देकर प्राप्त किया। अब माता-पिता को अपने शीलपालन का पता लग गया है यह जानकर अपनी प्रतिज्ञानुसार विजय सेठ और विजया सेठानी ने केवली के पास जाकर चारित्र ग्रहण किया और अष्ट कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान पाया ।