उज्जयिनी नगरी में एक बार साधु समुदाय के साथ आचार्य श्री चंडरुद्रसूरिजी आये। कर्मयोग से आचार्यश्री शिष्यों की स्खलना सहन न कर पाते थे। इससे उनको बड़ा दुःख पहुँचता और वे क्रोधित हो उठते । वे बराबर समझते थे कि यह क्रोध उनका महान दोष है लेकिन दूसरों का हित करते हुए वे अपना चूक जाते थे। ऐसे दोष के प्रसंग बार बार न हो इसलिए समुदाय से थोडे दूर ही बैठते थे। यहाँ भी वे अपने समुदाय से थोड़े दूर एकांत स्थान में जप-तप तथा ध्यान आदि धार्मिक प्रवृत्ति में बैठे थे। उस दिन गाँव के पाँच-सात उच्छंखल युवक मजाक मस्ती करते हुए वहाँ आ पहुँचे ।
एक दूसरे की मजाक करते करते एक युवकने दूसरे एक युवक भद्रसेन को दीक्षा देने की बात कही। दूसरे नवयुवक भी बोले: “हाँ हाँ, मजे की बात तो यह है कि भद्रसेन तो है ही भद्रिक। व्रत-तप करता है, साधु-संतों की भक्ति करता है, वह साधु बन जाये तो अच्छा ! यों दिल्लगी-हँसी करते हुए उस साधु समुदाय के पास गये और कहा, साहब, यह भद्रसेन दीक्षा का भाविक है, इसका सिर मुण्ड डालिये! यह सुनकर दूसरे युवक हँसीठड्डा करने लगे। साधु समझ गये कि ये युवक मात्र हाहाहीही करने आये हैं। साधुसमुदाय ने यह बला टालने के लिये गुरुकी ओर अंगुलिनिर्देश करते हुए कहा, “भाइयों ! हमारे गुरुदेव आचार्यश्री वहाँ बैठे हैं, वहाँ जाओ और उनको अपनी बात बताओ ।
इस प्रकार वह टोली आचार्य चंडरुद्रसूरिजी के पास पहुँची और कहा, “महाराज ! यह हमारा दोस्त भद्रसेन ! इसने हाल ही में ब्याह किया है पर संसार का मोह नहीं है और भद्रिक है। इसे दीक्षा दीजिये” अन्य मित्रों ने यह सुनकर हाहाहीही करके ताली बजाकर उसमें साथ दिया। आचार्यश्री समझ चुके थे कि यह युवकों की जवानी का विनोद-मजाक है।
उन्होंने भद्रसेन से पूछा, “बोल भाई ! तेरी क्या इच्छा है ?” भद्रसेन ने मजाक में कहा, “हा महाराज ! बात सच है। संसार में कुछ सार नहीं है। मुझे दीक्षा दे दो तो मेरा कल्याण हो जायेगा और सुखपूर्वक रह पाऊंगा। आचार्यश्री इन युवकों का विनोद समझ चुके थे लेकिन इन युवकों को पाठ तो पढ़ाना ही चाहिये यों सोचकर भद्रसेन से कहा, “अरे भाई ! तुझे दीक्षा लेनी ही है न ? बराबर सोच-विचार कर कह रहा है न ? पलट तो नहीं जायेगा न?” भद्रसेन अब भी मजाक में ही कहता है, “हाँ महाराज! पलटे वे दूसरे । दीक्षा लेनी ही है, चलिये दे दीजिये, मैं तैयार हूँ ।
श्री चंडरुद्रसूरि ने एक दूसरे युवक को थोड़े दूर पडी राख भरी मिट्टी की कुण्डी लाने को कहा । युवकने ला दी और भद्रसेन के सिर पर मलकर आचार्य ने उसका केशलोच कर डाला। आचार्यश्री का रोष, उनकी मुखमुद्रा देखकर युवक स्तब्ध हो गये और यह तो लेने के देने पड़ गये यूं मानकर भागने की तैयारी की और भद्रसेन को कहा, चल, अब बहुत हो गया। साधुओं को अधिक सताने में सार नहीं है, चल हमारे साथ, दोड़...भाग चलें।!
भद्रसेन अब घर जाने के लिए ना कहता है, उसके हृदयमें निर्मल विचारणा जाग उठी है। वह मन ही मन कहता है, में अब घर कैसे जाऊँ ? मैंने स्वयं मांगकर व्रत स्वीकारा है । अब भागूंगा तो मेरी खानदानी लज्जित हो जायेगी, मेरा कुल कलंकित होगा । अब तो मैं विधिपूर्वक गुरुमहाराज से व्रत लेकर मेरी आत्मा का कल्याण साध लूँ। बिना कोई प्रयत्न से अनायास ही ऐसा उत्तम मार्ग मुझे मिल गया। मेरा तो श्रेय हो ही गया ।!
ऐसी निर्मल विचारणापूर्वक वह आचार्यश्री से प्रार्थना करता है, भगवन् ! आपने कृपा करके मुझे संसारसागर से तारा है, अब आप विधिपूर्वक व्रत देकर मुझे कृतार्थ करिये। आपके मुझ पर अनंत उपकार हैं ।!
तत्पश्चात् चंडरुद्राचार्य उसे विधिपूर्वक व्रत ग्रहण कराते हैं और भद्रसेन अब भद्रसेन मुनि बनते हैं। नवदीक्षित मुनि अब सोचते हैं कि मेरे मां बाप, सास, ससुर, पत्नी वगैरह उज्जयिनी में ही हैं, वे यहाँ आकर मुझे दीक्षा छुड़वाकर घर ले जायेंगे, परंतु किसी भी प्रकार से अब मुझे यह धर्म छोड़ना नहीं है।” इसलिए गुरुमहाराज को हाथ जोड़कर विनती करते है, “भगवन् ! मेरा कुटुम्ब बड़ा है। उनको ये युवक खबर दे देंगे, तो वे मुझे यहाँ लेने अवश्य आयेंगे और जबरदस्तीपूर्वक यहाँ से ले जाने का प्रयत्न करेंगे। आपका गच्छ तो बहुत बड़ा है। सबके साथ तुरंत तो विहार हो नहीं पायेगा । लेकिन हम दोनों को यहाँ से चुपके से चल देना चाहिये। सब विहार करेंगे तो लोग जान जायेंगे और हमें अटकायेंगे, तो कृपा करके जल्दी कीजिये। आचार्य महाराज नूतनदीक्षित मुनि से कहते है, “तेरी बात सही है। तू एक बार रास्ता देखकर आ। अब शाम होने आई है। अंधेरा हो जायेगा तो रास्ते में तकलीफ खड़ी हो जायेगी । भद्रसेन मुनि थोडे दूर जाकर रास्ता देख आते है और आचार्यश्री को लेकर उस स्थान से निकल जाते है। गुरुमहाराज वृद्ध हैं और आँखे कमजोर है इसलिए भद्रसेन मुनि उन्हें कंधों पर बिठाकर जल्दी जल्दी विहार करते हैं। रास्ता उबडखाबड होने से कंधे पर बैठे महाराज को हिचकोले आते हैं और वे नूतन दीक्षित को बराबर चलने के लिए चेतावनी देते हैं। अंधेरा बढ़ने पर रास्ते के खड्डे में पाँव धंसने से भद्रसेन मुनि कभी कभी संतुलन गँवा देते है। इस कारण आचार्य अति क्रोध से नूतन मुनि के सिर पर जोर से डण्डा मारते हैं और कहते है, “तुझे दीखता नहीं है ? मेरी इस वृद्धावस्था में भी तू मुझे इस प्रकार दुःख दे रहा है।” डण्डे की चोट से और केशलोच भी उसी दिन किया होने से नूतन मुनि के गंजे सिर में से खून आने लगता है। इस अवस्था में भी नवदीक्षित भद्रसेन मुनि समता धारण कर सोचते हैं, “धिक्कार है मेरी आत्मा को, मैंने पूज्यश्री गुरुदेव को प्रथम दिन ही कष्ट पहुँचाया। मुझे धीरे धीरे संभल संभल कर चलना चाहिए था। ऐसे गुणरत्नसागर जैसे गुरुदेव को मैंने रोष का निमित्त दिया । इसमें उनका कोई दोष नहीं है। दोषित तो वाकई मैं हूँ ।” इस प्रकार हृदय की सरलता से भद्रिक ऐसे नूतन मुनि अपने दोषों को देखते हुए शुभ ध्यान में डूब गये और क्षपक श्रेणी में पहुँचते ही उन्हें केवलज्ञान हुआ । केवलज्ञानी ऐसे भद्रसेन मुनि ज्ञान के योग से अब सब कुछ जान सकते हैं । अब वे कंधों पर बैठे गुरुमहाराज को थोडा सा भी धक्का न लगे उस प्रकार से सीधे रास्ते पर ले जाते हैं। आचार्य महाराज कहते हैं, “अब तू वाकई में ठिकाने आ गया । संसार में ऐसा नियम है कि चमत्कार के बिना नमस्कार नहीं । डंडा पड़ा तो कैसा सीधा हो गया ! क्यों बराबर है ना ? अब सीधा चलने लगा न ?’
नवदीक्षित कहते है, ’भगवन् ! यह सब आपकी कृपा का फल है। रास्ता बराबर जान सकता हूँ, यह आपकी कृपादृष्टि के फलरूप ज्ञान से पता चल जाता है” यह सुनकर आचार्य चकित हो जाते हैं और सोचते है कि नूतन दीक्षित कहता है कि ज्ञान से जाना जा सकता हैं तो उसे कौन सा ज्ञान हुआ होगा ? अब थोड़ा थोड़ा उजाला होने से गुरुमहाराज को शिष्य के सिर से खून निकला हुआ दीखता है, वे पूछते हैं, मेरे डण्डे की चोट से तुझे यह खून तो नहीं निकला है न? लेकिन भद्रसेन मौन रहते हैं। आचार्य पूछते हैं, “तूझे सीधा रास्ता दीखा तो कौन से ज्ञानयोग से ? रास्ते में तुझे कुछ स्खलना तो नहीं आई है ना ? वत्स ! क्या हकीकत है? तू मुझे यथार्थ बता दे।” भद्रसेन कहते हैं, ’प्रभु! आपकी कृपा से ही ज्ञान प्राप्त हुआ है। उसके योग से में सही मार्ग जान सका हूँ।” आचार्यश्री अधिक स्पष्टीकरण के लिए शिष्य से पूछते है, “वत्स ! वह ज्ञान प्रतिपाती या अप्रतिपाती ?”
भद्रसेन कहते हैं, भगवन् ! अप्रतिपाती ।” यह सुनकर आचार्यश्री कंधे पर से उतरकर केंवलज्ञानी शिष्य से क्षमा-याचना करते हैं। अपने ही क्रोध के कारण जो अपराध हुआ है उसका उन्हें तीव्र पश्चात्ताप होता है और मन ही मन सोचते हैं, “हा...मैं कैसा पापी ? इतने इतने वर्षों से संयम, तप, स्वाध्याय आदि की आराधना करने पर भी बात बात में क्रोध के आधीन होकर मुझे उग्र होने में देर नहीं लगती है। आचार्य के पद पर आरूढ़ होने के बावजूद मैं इतनी भी क्षमा नहीं रख सकता हूँ। मेरा संयम, मेरी आराधना वाकई निष्फल गई। इस नवदीक्षित को धन्य है। अभी कल ही जिसने संयम स्वीकार किया है, उसमें कैसी अद्भुत क्षमा ! कैसी अप्रतिम सरलता ! और कैसा अनुपम समर्पण ! में हीनभाग्य हूँ। यह पुण्यात्मा तैर गया, मैंने पाया है फिर भी डूब रहा हूँ।’ इस प्रकार सोचते और केवलज्ञानी नूतन मुनि से क्षमा माँगते हुए, अपनी लघुता और सरलतापूर्वक निंदा करते हुए, शुभ ध्यान में लीन होकर आचार्य महाराज ने भी क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान पाया। इस प्रकार गुरु व शिष्य दोनों ही तैर गये। धन्य सरलता ! धन्य क्षमापना…...