अवन्ती देश के 'तुम्बवन' जनपद में धनगिरि नाम का एक सेठ पुत्र रहता था, जिसमें बाल्यकाल से हीं विरक्त भाव वपित थे । माता-पिता उसका विवाह करना चाहते थे, किन्तु वह मना कर देता था ।

 

माता-पिता के दबाव से धनपाल सेठ की कन्या सुनंदा के साथ शुभ मुहूर्त में धनगिरी ने विवाह किया । कुछ समयावधि के बाद सुनंदा ने गर्भ धारण किया तो, धनगिरि ने यह कहकर कि "अब यह बालक तुम्हारा अवलम्बन होगा"

 

 

सुनंदा दो जीवा हु‌ई है - ऐसा ज्ञात होने ही पूर्वानुसार हु‌ई शर्त के अनुसार उसका प्रति प्रभु वीर के पथ पर दीक्षा लेने चल पड़ा। सुनंदा की कोख से व्रजस्वामीने जन्म लिया।

 

जन्म के साथ ही वृद्धा‌ओं के मुख से वज्रस्वामी ने सुना, ‘इस बालक के पिता ने दीक्षा न ली होती तो इस बालक का जन्ममहोत्सव धामधूम से सम्पन्न होता।’

 

दीक्षा शब्दों को सुनकर ही तुरंत जन्मे बालक को जातिस्मरण ज्ञान हु‌आ और दीक्षा लेकर कल्याण करने की भावना जाग्रत हु‌ई। उन्हें लगा कि माता मुझ जैसे बालक को दीक्षा नहीं लेने देगी। माता को उकताने के लि‌ए उन्होने रोना शुरू कर दिया।

 

एक-दो दिन नहीं, एक दो महिने नहीं लेकिन लगातार छ: माह तक रोते रहे। कितने ही उच्च संस्कार इस बालक की आत्मा में भरे होंगे इसलि‌ए ही वे दीक्षा लेने की भावना से रोये होंगे।

 

सतत रुदन से माँ उकता ग‌ई। उसने साधू बने अपने पति जिस उपाश्रय में जाकर ठहरे थे उस उपाश्रय जाकर, ‘लो यह तुम्हार बेटा ! मैं तो थक ग‌ई। चुप ही नहीं रहता है, संभालो तुम।’ ऐसा कहकर छः माह के छोटे बालक वज्रकुमार को अर्पण कर दिया।

 

श्राविका बहिने उसकी देखभाल करती हैं । साध्वीजियों के पास वे पालने में झूल रहे हैं। साध्वीजी जो विद्याभ्यास पढ़ती थी वह सुनते सुनते वे ग्यारह अंग सीख गये। सुनंदा अब सोचती है, ‘ऐसे चतुर बालक को मैंने अर्पण कर दिया. यह ठीक न किया।’ ऐसा सोचकर माता बालक को वापिस लेने जाती है। गुरु महाराज और संघ ने उसे लौटाने की ना कही सो माता ने राजा के पास जाकर फरियाद की। राजा ने न्याय तोला: ‘जिसके पास जाय उसीका यह बालक।’

 

माता ने खिलौने, मीठा‌इयाँ वगैरह अनेक वस्तु‌एँ बालक को लुभाने के लि‌ए रखीं लेकिन साधू महाराज ने ओघा व मुहपत्ति रखें। राजा बीच में खड़े है। संघ देख रहा है, माता मानती है कि अभी बालक मेरे पास आयेगा और मुझे मिल जायेगा। बालक तो वैरागी था इसलि‌ए खिलौने या मिठा‌इयों से बहकनेवाला न था। वह तो शीघ्र ही ओघा और मुहपत्ति लेकर नाचने लगा और जैनशासन की जयजयकार हु‌ई।

 

यह वज्रस्वामी नामक बालक... ८ वर्ष की उम्र में दीक्षा ली। देवों द्वारा ली ग‌ई परीक्षा में दो बार उतीर्ण हु‌ए। देवी ने प्रसन्न होकर वैक्रिय लब्धिऔर आकाश में उडने की विद्या दी। उन्होंने बोद्ध राजा को उपदेश देकर जैनधर्मी बनाया।

 

एक बार सुवर्णमुद्रा‌एँ लेकर को‌ई स्त्री वज्रस्वामी के साथ ब्याह करने की मनोकामना से आ‌ई। उसे बोध देकर बिदा दी। अकाल के समय उन्होंने अपने संघ का रक्षण किया।

 

स्वयं भद्रगुप्त आचार्य से दशपूर्व का अभ्यास किया था। उन्होंने आर्यरक्षित सूरि महाराज को साढ़े नौ पूर्व का अभ्यास कराया। अंत में वज्रसेन नामक बड़े शिष्य पाट पर स्थापित करके अनेक साधु‌ओं के साथ स्थावर्तगिरि पर जाकर तप प्रारंभ किया। तप के प्रभाव से इन्द्र महाराजा वंदनार्थ पधारें। उन्होंने जैन शासन की विजय पताका‌एँ फहरायी और शासन की उन्नति के अनेक कार्य कर देवगति पधारें।