इलावर्धन नामक नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। ! उस गाँव में इभ्य नामक सेठ व धारिणी नामक उसकी सद्गुणी स्त्री रहते थे। वे सर्व प्रकार से सुखी थे लेकिन संतान न होने का एकमात्र दुःख था। इस दम्पती ने अधिष्ठायिका इलादेवी की आराधना करके कहा, “यदि हमे पुत्र होगा तो उसका नाम तेरा ही रखेंगे ।” कालक्रम से उन्हें पुत्र हुआ और मनोती अनुसार उसका नाम इलाचीकुमार रखा।
आठ वर्ष का होते ही, इलाचीकुमार को पढ़ने के लिये अध्यापक के पास भेजा गया। उसने शास्त्रों का सूत्रार्थ सहित अध्ययन किया। युवा अवस्था आई लेकिन युवा स्त्रियों से वह जरा भी मोहित न हुआ। घर में साधु की तरह आचरण करता रहा। पिता ने सोचा, “यह पुत्र धर्म, अर्थ और काम इन तीनों में प्रवीण नहीं होगा तो इसका क्या होगा ?” इसलिये उसे व्यसनी लोगों की टोली में रक्खा, जिससे वह जैन कुल के आचार विचार न पालकर, धीरे धीरे दुराचारी बन गया।
इतने में वसंतऋतु आयी। इलाचीपुत्र अपने कुछ साथियों के साथ फल-फूल से सुशोभित ऐसे उपवन में गया, जहाँ आम्र, जामुन वगैरह फल तथा सुगंधित फूलों के वृक्ष थे। वहाँ लखीकार नामक नट की पुत्री को नृत्य करते देखकर वह उस पर मोहित हो गया और दिगमूढ होकर पूतलेकी भाँति खड़ा रह गया। मित्र इलाचीकुमार के मनोविकार को समझ गये और उसे समझाकर घर ले गये । घर जाने के बाद वह रात्रि को सोया लेकिन लेशमात्र निद्रा न आई, क्योंकि नटपुत्री को वह भूल न सकता था।
ऐसी स्थिति देखकर उसके पिता ने पूछा, ’हे पुत्र । तेरा मन क्यों व्यग्र है? किसी ने तेरा अपराध किया है क्या? इलाचीकुमार मौन रहा । बहुत पूछने पर जवाब दिया, “पिताजी ! मैं सन्मार्ग प्रवर्तनादि सब कुछ समझता हूँ, पर लाचार हूँ। मेरा मन नटपुत्री में ही लगा हुआ है।’ पिताजी समझ गये कि ’"मैंने ही भूल की थी। उसे कुसंगति में छोड़ा जिसका फल भुगतने की बारी आई। अब में निषेध करके उसको रोकूंगा तो वह मर जायेगा, तो मेरी क्या स्थिति होगी !” भला-बुरा । सोचकर आखिर वह उस नट से मिला और अपने पुत्र के लिए उसकी पुत्री की माँग की। नट बोला, “अच्छा ! यदि आपके पुत्र को ऐसी ही ’ इच्छा हो तो उसे हमारे पास भेजो ।
कोई और मार्ग न होने से पिता ने इलाचीपुत्र को नटपुत्री के साथ ब्याह करने को स्वीकृति देकर उसे नट के पास भेजा। नट ने इलाची पुत्र को कहा, “यदि मेरी पुत्री से ब्याह करना हे तो हमारी नृत्यकला सीख । उसमें प्रवीणता मिलने पर यह कन्या तुझको दूँगा ।!
कामार्थी इलाचीकुमार नृत्यकला सीखने लगा। अल्प समय में ही वह नृत्यकला में माहिर हो गया। लखीकार इलाचीकुमार और अपनी पुत्री को नचाते हुए द्रव्य उपार्जन करने लगा। खूब द्रव्य उपार्जन करने । के बाद महोत्सवपूर्वक पुत्रीका ब्याह करनेकी लखीकारने अनुमति दी।
बड़े पैमाने पर द्रव्य उपार्जन करना हो तो किसी बड़े राज्य में जाकर राजा-महाराजा को नृत्य से खुश करना चाहिये - ऐसे ख्याल से लखीकार इलाचीकुमार तथा उसकी पूरी मण्डली को लेकर बेनातट नगर में गया। वहाँ इलाचीकुमार ने राजा महीपाल को कहा, “हमें आपको एक नाटक बताना हैं।” राजा ने हाँ कह दी। उसने विनय सहित नाट्य और नृत्य के प्रयोग शुरू किये। बांस की दो घोडी बनायी। दोनों के बीच एक रस्सा बांधकर वह रस्से पर नृत्य करने लगा।
उस समय राजा की नजर लखीकार की पुत्री पर पड़ी और वह भी उस पर मोहित हो गया। उसे कैसे पाया जाय ? उसने सोचा कि यह नट रस्से पर से गिर जाय और मर जाय तो नटनी को वह पा । सकेगा। इस कारण नट को दुबारा रस्से पर नाच करने को कहा। इलाचीकुमार ने दुबारा रस्से पर चढकर उत्कृष्ट नृत्य किया लेकिन राजा खुश न हुआ। उसने फिर से उसे निराधार रस्से पर नृत्य करने को कहा।
इस बार राजा के भाव ऐसे थे कि नट थककर सन्तुलन गँवा दे और रस्से से नीचे गिरकर मर जाये तो नटनी मुझे प्राप्त हो जाये। इलाचीकुमार के भाव ऐसे हैं कि राजा खुश होकर बड़ा इनाम दे और नटनी के साथ मैं ब्याह करूं। दोनों के भाव भिन्न भिन्न थे। इसलिये राजा बार बार नृत्य करने को कहते थे। इलाचीकुमार समझ गया कि राजा की भावना बुरी है। वह मेरी मृत्यु चाह रहा है।
इस बार रस्से पर चढे हुए इलाचीकुमार ने दूर से एक दृश्य देखा। एक सुंदर स्त्री साधु महाराज को भिक्षा दे रही है, और साधु रंभा जैसी उस स्त्री के सामने देखते भी नहीं हैं।
धन्य है ऐसे साधु को। वे कहाँ और मैं कहाँ ? मातापिता की बात न मानी और एक नटनी पर मोहित होकर मैंने कुल को कलंकित किया ।” ऐसा सोचते सोचते उसका चित्त वैराग्यवासित हुआ। रस्से पर नाचता हुआ इलाचीकुमार अनित्य भावना का चिंतन करने लगा और उसके कर्मसमूह का भेदन हुआ, जिससे उसने केवलज्ञान पाया और देवताओं ने आकर स्वर्णकमल रचा। उस पर बैठकर इलाचीकुमार ने राजा सहित सबको धर्मदेशना दी और राजा के पूछने पर अपने पूर्वभव की बात कही। जाति के घमण्ड के कारण पूर्व भव की उसकी स्त्रि मोहिनी लखीकार की पुत्री बनी और पूर्वभव के स्नेहवश स्वयं नटपुत्री पर मोहित हुआ था I