यह कथानक चंद्रावतंस राजा के नाम से भी प्रसिद्ध है।
संध्याकाल का समय था। राज्य का काम निपटाकर राजा मुनिचन्द्र सायंकाल में चोविहार कर अंतःपुर में पधारें। अकेले ही थे, सो चिंतन करने लगे
’महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी को कहा था, एक क्षण भी बेकार मत जाने देना ।” इस समय फुरसत है - रानी अंतपुर में नहीं है, वह आये तब तक ध्यानस्थ हो जाऊँ, काउस्सग्ग करूं, यों सोचकर मन से प्रतिज्ञा ली कि सामने जो दीप है, वह जलता रहे तब तक काउस्सग्ग करूँगा।!’
मोम के पूतले की तरह वे काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे। कुछ समय के बाद दासी अंतःपुर में सब ठीक-ठाक करने आई। उसने राजा को ध्यान में खड़े देखा, लेकिन दीपक में घी घटता जा रहा था।
घी खत्म हो जायेगा तो दीपक बुझ जायेगा, और राजा को अंधेरे में खड़ा रहना पडेगा, ऐसा सोचकर दीपक में घी डाला। दीया बुझने से बच गया इसलिये राजा काउस्सग्ग ध्यान में ही खड़े रहे। फिर से घी खत्म होने आया तो दासी ने दुबारा घी डाला। राजा प्रतिज्ञावश है, सोचता है कि दीया अब भी जल रहा है तो काउस्सग्ग पूर्ण कैसे करूँ ? प्रतिज्ञा कैसे तोडी जाय ? समय बीत रहा है, शरीर में वेदना होने लगी है, पैर थक गये हैं, लेकिन राजा दृढ़ता से काउस्सग्ग में खड़े ही रहे । सोचते हैं कि, “यह वेदना तो कुछ भी नहीं है, इस जीव ने नारकी की वेदनाएँ भोगी है, वहाँ अनंत बार शरीर छिन्नभिन्न किया गया है, उस वेदना के अनंतवें भाग जितनी भी यह वेदना नहीं है। इस वेदना को सहन करने से अनंत गुनी निर्जरा ही होनेवाली है।’
इस प्रकार काउस्सग्ग ध्यान में ही प्रभात हो गया। उजाला हो जाने से दासी ने दीपक में घी डालना बंद कर दिया और दीपक बुझ गया। राजा की प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई। काउस्सग्ग पार करके राजा कदम उठाकर पलंग की ओर बढ़ते हैं परंतु अंग अकड़ जाने के कारण नीचे गिर पड़ते हैं। लेकिन पंच परमेष्ठी के ध्यान में लीन हो जाते हैं। आयुष्य पूर्ण होते ही मरकर उनका जीव सीधे ही देवलोक में जाता हैं।