जंबूदीप के महाविदेह क्षेत्र में पुंडरीकिणी नामक नगरी में महापद्म नामक राजा राज्य करता था। उसको दो पुत्र थे। राजा को वैराग्य होने से बड़े पुत्र पुंडरीक को राजगद्दी दी और छोटे पुत्र कुंडरीक को युवराज पदवी दी और स्वयं दीक्षा लेकर कर्मक्षय करके मोक्ष गये।
एक बार कुछ साधु उस नगरी में पधारे। दोनों भाई उन्हें वंदन करने गये। मुनि ने धर्म का तत्त्व समझाते हुए कहा, “जो प्राणी इस संसारसमुद्र में भटकते हुए महा कष्ट से प्राप्त जहाज जैसे मनुष्य भव को बेकार गँवा देता है, उससे अधिक मूर्ख किसे कहा जाय ?’
ऐसी देशना सुनकर दोनों भाई घर लौटे । पुंडरीक ने छोटे भाई से कहा, ’हे वत्स ! तू इस राज्य को ग्रहण कर, मैं दीक्षा ग्रहण करूँगा ।’ कुंडरीक बोला : हे भाई ! संसार के दुःखों में मुझे क्यों धकेल रहे हो ? में भी दीक्षा लूंगा।”
बड़े भाई ने कहा, हे भाई ! युवावस्था में इन्द्रियों के समूह को नहीं जीता जा सकता और परिषह भी सहन नहीं हो सकते” कुंडरीक बोला, हे भाई ! नरक के दुःख के आगे परिषह आदि का दुःख कुछ नहीं है, इसलिये में तो चारित्र ही ग्रहण करूंगा । कुंडरीक का ऐसा आग्रह देखकर पुंडरीक ने उसे अनुमति दे दी। उसने बड़े उत्साह-पूर्वक दीक्षा ग्रहण की और पुंडरीक मंत्रियों के आग्रह से भावचारित्रपूर्वक घर में ही रहा। कुंडरीक ऋषिने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, किन्तु रूखे सूखे भोजन से एवं बहुत तप करने से उसके शरीर में कई रोग उत्पन्न हुए।
कालांतरमें गुरु के साथ विहार करते करते कुंडरीक मुनि अपने नगर पुंडरीकिणी में आये। पुंडरीक राजा उन्हें वंदन करने गये। सब साधुओं को वंदन किया लेकिन शरीर कृश हो जाने के कारण अपने भाई को न पहचाना। इसलिये भाई सम्बन्धी समाचार गुरु को पूछे। गुरु ने कुंडरीक मुनि को बताकर कहा, “ये जो मेरे पास खडे हैं वे ही आपके भाई हैं।” राजा ने उन्हें प्रणाम किया, और उनका शरीर रोगग्रस्त जानकर गुरु से आज्ञा लेकर राजा उन्हें शहर में ले गया। उन्हें अपनी वाहनशाला में रखकर अच्छे अच्छे राजऔषधों से उन्हें रोगरहित कर दिया। वहाँ स्वादिष्ट भोजन करने से मुनि रसलोलुप हो गये इसलिये वहाँ से विहार करने की उन्हें इच्छा न हुई। राजा उन्हें कहने लगा, "हे पूज्य मुनि! आप तो अहर्निश विहार करनेवाले हो, द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव इन चारों प्रकार के प्रतिबंध से रहित हो । नीरोगी होने से अब विहार करने के लिए आप उत्सुक बने होंगे। आप निग्रंथ को धन्य है। मैं अधन्य हूँ क्योंकि भोगरूपी कीचड़ में धँसा होने से कदर्थना पाता हूँ।” इत्यादि वचन राजाने बार बार कहे। इससे कुंडरीक मुनि लज्जित होकर विहार करके गुरु के पास गये।
एकदा बसंत ऋतु में अपनी अपनी स्त्रियों के साथ क्रीडा करते हुए नगरजनों को देखकर चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने से कुंडरीक मुनि का मन चारित्र से चलायमान हुआ । इस कारण गुरु की आज्ञा लिये बिना वे पुंडरीकिणी नगरी के पास के एक उपवन में आये और पात्र वगैरह उपकरण पेड़ की डाली पर लटकाकर कोमल हरे घास पर लोटने लगे। इस प्रकार संयम से भ्रष्ट चित्तवाले कुंडरीक को उनकी धावमाता ने देखा। उसने नगर में जाकर पुंडरीक राजा को बात बताई। यह सुनकर राजा परिवार सहित वहाँ आया। उस वक्त कुंडरीक को चिंतातुर, प्रमादी और भूमि कुरेदते हुए देखकर राजा ने कहा, हे सुखदुःख में समभाववाले ! हे निःस्पृह ! हे निर्ग्रंथ ! हे मुनि! आप पुण्यशाली हो और संयम पालन में धन्य हो । इत्यादि अनेक प्रकार से उनकी प्रशंसा की लेकिन वे नीचे ही देखते रहे तथा कोई उत्तर भी न दिया । इसलिये राजाने उन्हें संयम से भ्रष्ट और संयम की अनिष्टतावाला मानकर पूछा, हे मुनि ! इस भाई के सामने क्यों नहीं देखते हो ? आप प्रशस्त ध्यान में मग्न हो या अप्रशस्त ध्यान में ? यदि अप्रशस्त ध्यान में आरूढ हुए हो तो आपने पूर्व में जबरदस्ती से बड़े भावराज्य को ग्रहण किया था उसके चिह्नभूत पात्र आदि मुझे दो और परिणाम में अति विरस फल देनेवाले राज्य के चिह्नभूत ये पट्टहस्ती वगैरह आप ग्रहण करो । राजा के इस प्रकार के वचन सुनकर कुंडरीक बहुत हर्षित हुआ और शीघ्र ही पट्टहस्ती पर सवार होकर नगर में गया । साधुश्रेष्ठ ऐसे पुंडरीक ने विलाप करती रानियाँ आदि को सर्प की केंचुली की भाँति छोड़कर यति का भेष धर कर तुरंत ही वहाँ से विहार किया ।
यहाँ कुंडरीक ने लम्बे अरसे से भूखा होने के कारण अपनी इच्छानुसार भक्ष्याभक्ष्य के विवेक बिना अनेक प्रकार का भोजन किया। कृश शरीर को आहार न पचने से व रात्रि के भोगविलास के जागरण के कारण शीघ्र ही रात्रि को उसे विसूचिका व्याधि उत्पन्न हुई। पेट चढ़ गया, अपानवायु बंद हो गई और तृषाक्रांत होने से उसे अत्यंत पीड़ा होने लगी। उस समय “यह व्रत का भंग करनेवाला है अतः अति पापी है” ऐसा मानकर सेवक पुरुषों ने उसकी कोई चिकित्सा न की। इससे कुद्ध होकर उसने सोचा, “यदि रात्रि बीत जाये तो प्रातःकाल में ही सब सेवकों को मार डालूँगा । इस प्रकार रोद्र ध्यान में उसी रात्रि को कुंडरीक मर गया और सातवें नरक में अप्रतिष्ठान नामक नरकावास में उत्पन्न हुआ।
पुंडरीक राजर्षि ने अपनी नगरी से चलते ही अभिग्रह लिया कि “गुरु के पास जाकर व्रत ग्रहण करने के बाद ही आहार लूंगा ।” ऐसा अभिग्रह करके चलते हुए मार्ग में क्षुधा, तृषा वगैरह परिसह सहन करने पड़े। कोमल देह होने पर भी उन्होंने दुःख न माना। दो दिन छट्ठ का तप होने पर गुरु के पास पहुँचकर चारित्र लिया। फिर गुरु की आज्ञा लेकर पारणा करने के लिये गोचरी लेने गये। उसमें तुच्छ और रूखा आहार पाकर उन्होंने प्राणतृप्ति की। परंतु ऐसा तुच्छ आहार पहले कभी किया न था जिससे उन्हें अति तीव्र वेदना हुई। फिर भी शुभ आराधना पूर्वक पुंडरीक राजर्षि की मृत्यु हुई और वे सर्वार्थसिद्धि नामक विमान में उत्पन्न हुए। इस विषय पर ज्ञानियों ने कहा है कि “हजार वर्ष तक विपुल संयम पालने पर भी यदि अंत में क्लिष्ट अध्यवसाय हो तो वे कुंडरीक की भाँति सिद्धिपद नहीं पा सकते और जो कुछ समय के लिए भी चारित्र ग्रहण करके यथार्थ पालते हैं, वे पुंडरीक ऋषि की भाँति अपना कार्य सिद्ध कर लेते हैं।”
इस प्रकार सम्यक् प्रकार से चारित्र पालकर कई जीव थोड़े समय में मोक्षगति पाते हैं और अन्य जीव अतिचार सहित लम्बे समय तक चारित्र पालते हैं फिर भी वे सिद्धिपद नहीं पा सकते।