भोजपुर नगर में लक्षण नामक एक धार्मिक वणिक रहता था। उसे नौ तत्त्व की ज्ञाता नंदा नामक पुत्री थी। लक्षण पुत्री के लिए वर खोज़ रहा था। एक बार अपने पिता को नंदा ने कहा, ‘हे पिताजी ! जो पुरुष काजल बगैर का, बती रहित तेल के व्यय बगैर का - और चंचलता से रहित दीपक को धारण करे वही मेरा पति बने।’
पुत्री का यह वचन सुनकर, उसकी दुष्कर प्रतिज्ञा जानकर चिंतातुर बने लक्षण सेठ ने इस बात की नगर में उद्घोषणा की। यह बात नागिल नामक एक जुआरी ने सुनी, सो उसने किसी यक्ष की सहाय से एक ऐसा दीपक बनवाया जिसको देखकर लक्षण श्रेष्ठि हर्षित हुए और अपनी पुत्री नंदा की शादी नागिल से कर दी।
नंदा अपने पति को व्यमन-आसक्त जानकर बड़ी दुःखी रहने लगी। पर नागिल ने कोई व्यसन छोड़ा नहीं, इससे हमेशा द्रव्य का व्यय होता गया। लक्षण सेठ पुत्री के स्नेह के कारण द्रव्य देते जाते थे और नंदा पति के साथ मन नहीं होने पर भी स्नेह रखती थी।
एक बार नागिल को ऐसा विचार आया कि, ‘अहो हो ! यह स्त्री कैसे गंभीर मनवाली है कि मैं बड़ा अपराधी होने पर भी मुझ पर रोष करती नहीं है। इस विचार से नागिल ने एक बार कोई मुनि को भक्तिपूर्वक पूछा,
‘हे महामुनि ! यह मेरी प्रिया शुद्ध आशयवाली है फिर भी मुझ में मन क्यों नहीं लगाती? उसका कारण क्या ?’
मुनि ने नागिल को योग्य जानकर उसके अंतरंग दीपक का स्वरूप इस प्रकार बताया, ‘तेरी स्त्री की ऐसी इच्छा थी कि जो पुरुष के अंत:करण में मायारूप काजल न हो, जिसे नौ तत्त्व के बारे में अश्रद्धारूपी बत्ती न हो, जिसमें स्नेह को नष्ट करने रूप तैल का व्यय न हो और जिसमें समकित के खण्डन रूप कंप (चंचलता) न हो ऐसे विवेकरूपी दीपक को धारण किया हो वह मेरा पति बने।’
इस प्रकार दीपक का अर्थ नंदा ने सोचा था जिसे कोई जान नहीं पाया। तूने धूर्तपने से यक्ष की आराधना करके कृत्रिम बाह्य दीपक बनाया इसलिये श्रेष्ठी ने अपनी पुत्री तूझे दी।
अब तू महाव्यसनी तो है ही। तूझ पर शील आदि गुणयुक्त ऐसी तेरी स्त्री का मन लगता नहीं है; इसलिये यदि तू व्रत को स्वीकार करेगा तो तेरा इच्छित पूर्ण होगा।’
नागिल ने पूछा, ‘हे भगवन् ! सर्व धर्म में कौनसा धर्म श्रेष्ठ है ?’ मुनि बोले, ‘हे भद्र ! श्री जिनेन्द प्रभु ने अपनी महक से तीनों भुवन को सुगंधित करनेवाला, समकितपूर्वक शीलधर्म को सर्वधर्म में श्रेष्ठ कहा है।’ उसके बारे शासन में कहा है, ‘जिस पुरुष ने अपने शीलरूपी कपूर की सुगंध से समस्त भुवन को खुशबुदार किया हो उस पुरुष को हम बार बार नमस्कार करते हैं।’
आगे कहा है कि, ‘क्षण भर भावना व्यक्त करनी, अमुक समय दान देना, फलाँ तपस्या करनी, वह स्वल्पकालीन होने से सुकर है लेकिन आजीवन शील पालना दुष्कर है।’
नारद सब जगह पर क्लेश करानेवाला, सर्व जनों का विध्वंस करनेवाला और सावद्य योग में तत्पर होने पर भी सिद्धि को पाता है सौ निश्चय ही शील का ही माहात्म्य है।’
इस प्रकार के गुरु वचन सुनकर नागल ने प्रतिबोध पाया और तत्काल समकितशील और विवेकरूपी दीपक का स्वीकार करके वह उस दिन से श्रावक धर्म का आचरण करने लगा ।
एक बार नंदा ने कहा, ‘हे स्वामी ! आपने बहुत अच्छा किया आत्मा को विवेकी बनाया। शास्त्र में कहा है कि जिनेश्वर की पूजा, मुनि को दान, साधर्मी का वात्सल्य, शील पालन और परोपकार आदि विवेकरूपी वृक्ष के पल्लव हैं ।’ नागिल बोला, ‘प्रिया ! सर्व को आत्मा के हित के लिये विवेक से धर्म करना है। विवेकरूपी अंकुश के बिना मनुष्य सर्वदा दुःखी ही होता है। इस प्रकार के वचन सुनकर नंदा बहुत ही हर्षित हुई और भाव से पति की सेवा करने लगी ।’
एक बार नंदा पिता के घर गई थी । नागिल अकेला चन्द्रमा के ऊजाले में सो रहा था। इतने में किसी पतिवियोगी विद्याधर की पुत्री ने उसको देखा और तत्काल कामातुर होकर वहाँ आयी और कहा, ‘हे महापुरुष ! यदि मुझे स्त्री के रूप में स्वीकारोगे तो मैं तुम्हें अपूर्व विद्या सीखाऊँगी । यह मेरा लावण्य देखो, मेरे वचन को मिथ्या मत करना।’
इस प्रकार कहकर थरथराती हुई वह बाला नागिल के चरणों में गिर पड़ी। इस कारण नागिल मानो अग्नि से जल रहे हो वैसे पाँव संकोर लिये । बाला लोहे का अग्नि से गर्म किया हुआ गोला बताकर कहने लगी, ‘अरे अधम ! मुझे भज, नहीं तो मैं तूझे भस्मीभूत कर डालूंगी ।’
यह सुनकर नागिल निर्भयता से सोचने लगा कि, ‘दस मस्तिष्कवाले रावण जैसा, कामदेव समान राक्षस, जो देव-दानवों से दुर्जय है, वह भी शील-समान अस्त्र से साध्य होता है।’ यूं वे सोच रहे थे कि सुत्कार शब्द कहती हुई उस बाला ने अग्निमय रक्तवर्णी लोहे का गोला उसके उपर फेंका। उस वक्त नागिल जिस नमस्कार मन्त्र का स्मरण करे जा रहा था उसके प्रभाव से गोले के छोटे छोटे टुकडे हो गये ।
इससे बाला लज्जित होकर अदृश्य हो गई और कुछ ही देर में नंदा का रूप लेकर एस दासी द्वारा खोले गये दरवाजे से वहाँ आयी और मधुर वाणी से बोली, ‘हे स्वामी ! आपके बिना मुझको पिता का घर नहीं भाया। इस कारण रात्री होने पर भी मैं यहाँ चली आई।’
उसे देखकर नागिल सोच में पड़ गया कि, ‘नंदा विषय भोग में स्वपति के सम्बन्ध भी संतोषी है, इसलिये उसकी ऐसी चेष्टा संभवित नहीं है। इसका रूप-रंग सब कुछ नंदा जैसा है लेकिन परिणाम उसके जैसे दिखते नहीं है। इसलिये उसकी परीक्षा किए बिना विश्वास करना योग्य नहीं है। ऐसा सोचकर नागिल ने कहा ‘ ’हे प्रिये ! यदि तू वाकई में नंदा हो तो मेरे समीप अस्खलितपूर्वक चली आ।’ यह सुनकर वह खेचरी जैसे ही उसके सामने चली वैसे ही वह मार्ग में स्थिर हो गई। बड़े कष्ट के बाद भी पाँव न उठा। धर्म की महिमा से नागिल ने उसका सर्व कपट जान लिया।
तत्पश्चात् उसने सोचा, कभी अन्य किसीके कपट से इस प्रकार शील का भंग भी हो सकता है सो सर्व प्रकार से विरतिता ही ग्रहण करने योग्य है । ऐसा सोचकर उसने तत्काल केश लोचन किया और उस यक्षदीप को कहा, ‘अब तु तेरे स्थान पर लौट जा।’ यक्ष ने कहा, ‘मैं आजीवन आपकी सेवा करूंगा।
मेरे तेज से आपको उजेही (दीपक की जो उजेही गिरती है, वह स्थान मुनि को वर्ण्य है) नहीं पड़ेगी।’ तत्पश्चात् सूर्य का उदय होते ही नागिल ने नंदा के साथ गुरु के पास जाकर व्रत ग्रहण किया और यक्षदीप के साथ आश्चर्य सहित पृथ्वी पर विहार करके संयम पालते हुए दंपती मृत्यु पाकर हरिवर्ष क्षेत्र में युगलिये जन्में । वहाँ से देवता बनकर पुनः नरभव पाया और मोक्ष प्राप्त किया।
इस नागिल ने द्रव्यदीप से शुभ ऐसे भावदीप का चिंतन किया और स्वदारा संतोष के व्रत में दृढ प्रतिज्ञा पाली तो वह विद्याधरी से भी कंपित नहीं हुआ। इसलिये सर्व प्राणियों को स्वदारा संतोष व्रत दृढता से धारण करना चाहिये।