पोतनपुर नगर के राजा प्रसन्नचंद्र…
प्रभु महावीर पोतनपुर पधारे हैं और मनोरम नामक उद्यान में रूके हैं ऐसा जानकर राजा प्रभु की वंदना के लिए आये और मोह का नाश करनेवाली प्रभु की देशना सुनकर वे संसार से उद्विग्न हुए और अपने बालकुमार को राज्यसिंहान पर बिठाकर उन्होंने प्रभु से दीक्षा ग्रहण की। प्रसन्नचंद्र राजर्षि क्रमशः सूत्रार्थ के पारगामी हुए।
प्रभु विहार करते करते राजगृह नगर पधारे। प्रभु के दर्शनार्थ श्रेणिक राजा पुत्र-परिवार, हाथी की सवारी एवं घोडों वगैरह की श्रेणी के साथ निकले। उसकी सेना में सबसे आगे सुमुख एवं दुर्मुख नामक सेनानी चल रहे थे। वे परस्पर विविध बातें करते चले जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने प्रसन्नचंद्र मुनि को एक पाँव पर खड़े होकर, ऊँचे हाथ रखकर तपस्या करते देखा। उनको देखकर सुमुख बोला, “अहोहो ! ऐसे कठिन तपस्या करनेवाले इन मुनि को स्वर्ग-मोक्ष भी दुर्लभ नहीं है।” यह सुनकर दुर्मुख बोला, “अरे ! यह तो पोतनपुर का राजा प्रसन्नचंद्र हे। बड़ी गाड़ी में बछड़े को जोडे वैसे ही इस राजाने राज्य भार अपने बालकुमार पर डाल दिया है, उसे क्या धर्मी कहेंगे ? इसके मंत्री चंपानगरी के राजा दधिवाहन से मिलकर राजकुमार को राज्य से भ्रष्ट करेंगे, इसलिए इस राजा ने उलटा अधर्म ही किया है।
ऐसे वचन ध्यानस्थ मुनि प्रसन्नचंद्र ने सुने और मन ही मन सोचविचार करने लगे, “अहो ! मेरे अकृतज्ञ मंत्रियों को धिक्कार है, वे मेरे पुत्र के साथ ऐसा भेद करते हैं ? यदि इस समय मैं राज्य संभाल रहा होता तो उन्हें बहुत कड़ी सजा देता । संकल्प विकल्प से दुःखी राजर्षि अपने व्रत को भूलकर मन ही मन मंत्रियों से युद्ध करने लगे।
इधर श्रेणिक महाराजा अपने परिजनों के साथ प्रभु के पास आये और वंदना करके प्रभु से पूछा : "मार्ग में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की ध्यानावस्था में मैंने वंदना की है, इस स्थिति में वे कदाचित मृत्यु प्राप्त करें तो कौनसी गति को जायेंगे ?” प्रभु बोले, “सातवें नर्क जायेंगे । सुनकर श्रेणिक राजा विचार में पड़े, ’साधु का नरकगमन ? हो नहीं सकता, प्रभु का कहना शायद मुझे बराबर सुनाई दिया नहीं होगा।” थोड़ी देर के बाद श्रेणिक राजा ने पुनः पूछा: हे भगवन्! प्रसन्नचंद्र मुनि इस समय कालधर्म प्राप्त करे तो कहाँ जायेंगे ? भगवंत ने कहा: ’सर्वार्थसिद्धि विमान को प्राप्त करेंगे।” श्रेणिक ने पूछा ’भगवंत ! आपने क्षण भर के अंतर में दो अलग बातें क्यों कहीं ? प्रभु ने कहा : “ध्यानभेद के कारण मुनि की स्थिति दो प्रकार की हो गई इसलिये मैंने वैसा कहा । दुर्मुख की वाणी सुनकर प्रसन्नचंद्र मुनि क्रोधित हुए थे और अपने मंत्री वगैरह से मन ही मन युद्ध कर रहे थे। उस समय आपने उन्हें वंदना की थी, उस समय वे नर्क के योग्य थे। उस समय से आपके यहाँ आने के दौरान उन्होंने मन में सोचा कि अब मेरे सभी आयुध समाप्त हो चुके हैं। अब मस्तिष्क पर रखे शिरस्त्राण से शत्रु को मार गिराऊँ ऐसा मानकर सिर पर हाथ रखा। सिर पर लोच किया हुआ जानकर ’मैं व्रतधारी हूँ” ऐसा ख्याल आ गया। अहो ! मैंने क्या कर डाला ? इस प्रकार वे अपनी आत्मा को कोसने लगे। उसका आलोचना प्रतिक्रमण करके पुनः वे प्रशस्त ध्यान में स्थिर हुए। आपके दूसरे प्रश्न के समय वे सर्वार्थसिद्धि के योग्य हो गये थे।” इस प्रकार वार्तालाप चल रहा था तब प्रसन्नचंद्र मुनि के समीप देवदुंदुभि वगैरह बजती सुनाई दी। सुनकर श्रेणिक ने प्रभु से पूछा : "स्वामी ! यह क्या हुआ ? प्रभु बोले : “ध्यान में स्थिर हुए प्रसन्नचंद्र मुनि को केवलज्ञान हुआ है और देवता उनके केवलज्ञान की महिमा का उत्सव मना रहे हैं। अंतिम घड़ी में क्षपक श्रेणी पर चढकर प्रसन्नचंद्र राजर्षि केवलज्ञानी हो गये हैं।