चंपापुरी का राजा दधिवाहन चेटक राजा की पुत्री धारिणी से ब्याहा था। उन्हें वसुमती नामक पुत्री थी। इस दधिवाहन राजा को शतानिक राजा के साथ दुश्मनी थी। अतः शतानिक राजा ने सैन्य लेकर चंपापुरी को घेर लिया। घोर युद्ध हुआ। हजारों मनुष्य उसमें मारे गये। दधिवाहन राजा राज्य छोड़कर भाग गया। शतानिक राजा ने चंपापुरी को लूंटा। एक सैनिक ने दधिवाहन राजा की रानी धारिणी और पुत्री वसुमती को पकड़ा।
सैनिक ने धारिणी को अपनी स्त्री बनने को कहा लेकिन धारिणी ने सैनिक को धुत्कार कर कहा : ’अरे । अधम और पापिष्ठ ! तू यह क्या बोल रहा है ? मैं परस्त्री हूँ, और परस्त्रीलंपट तो मरकर नरक में जाता है।” सैनिक ने धर्मवचन अनसुने कर धारिणी का शील लुंटने का प्रयास किया तो धारिणीने प्राणत्याग कर दिये। माता के वियोग से वसुमती विलाप करने लगी। करुण आक्रंद करती हुए कहने लगी, हे माता ! तू मेरा स्नेह छोड़कर चल दी ! मुझे अब पराये हस्तों में जाना पड़ेगा, इससे तो अच्छा है कि मेरी भी मृत्यु हो जाये।” इस प्रकार रोतेमचलते हुए उसने मृत माता के चरण पकड़ लिये और "तूझे मैं अब नहीं जाने दूंगी, मुझे छोड़कर नहीं जाने दूंगी” ऐसे करुण विलाप करने लगी।
वसुमती के ऐसे रुदन-वचन सुनकर सैनिक ने कहा : हे मृगाक्षी ! मैंने तुझे कोई भी कुवचन नहीं कहे हैं। तू ऐसा सोचना भी मत कि मैं तुझसे शादी करूंगा । इस प्रकार वसुमती को समझाकर उसने धारिणी के शरीर पर से हार वगैरह मुख्य मुख्य अलंकार उतार लिये और वसुमती को अपने घर ले गया। घर पर उसकी स्त्री ने उसे कटु शब्दों में सुना दिया कि इस परस्त्री को आप घर लायें हो लेकिन मैं सहन नहीं करूंगी। इसे घर से बाहर निकाल दो । स्त्री के ऐसे वचन सुनकर वसुमती को लेकर सैनिक बाजार में बेचने चला। बाजार में वसुमती का रूप देखकर कई खरीदनेवाले तैयार हो गये। गाँव की वेश्याएँ उसे खरीदना चाह रही थी। एक वेश्या ने वसुमती का हाथ पकड़ा तो राजकुमारीने उसे पूछा, तुम्हारा कुल कौनसा है और तुम करती क्या हो ? वेश्या ने उत्तर दिया, तुझे कुल से क्या काम ? उत्तम वस्त्र और उत्तम भोजन हमारे यहाँ तुझे मिल जायेगा।’ वसुमती समझ चुकी थी कि ये तो वेश्याएँ हैं। इससे उनके साथ जाने की मनाही कर दी। उसे ले जाने के लिये वेश्याओं ने बलप्रयोग करना चाहा। इससे वसुमती चित्त में बहुत दुःखी हुई। उसके शील की रक्षा के लिए एक देव ने आकाश में से उतरकर वेश्या की नाक काट दी और उसकी काया काली तुंबी जैसी कर डाली। इससे वेश्याएँ घबराकर अपने घर चली गई। सुभट वसुमती को बेचने दूसरे बाजार में गया। वहाँ धनावह श्रेष्ठी उसे खरीदने आया। राजकुमारी ने उन्हें पूछा, “आपके घर में मुझे क्या करना होगा ? सेठ ने कहा, ’हमारे कुल में जिनदेवों की पूजा, साधुओं की सेवा, धर्मश्रवण, जीवदया पालन आदि होता हैं।” धनावह सेठ की ऐसी बात सुनकर हर्षित होकर वसुमती कहने लगी, ’हे सुभट ! यदि तू मुझे बेचना चाहता है तो इस सेठ को बेच, सैनिक ने उसे सेठ को बेच दिया । सेठ वसुमती को घर ले गया। इस प्रकार राजपुत्री शुभ कर्म से भले घर पहुँची ।
सेठ की स्त्री मूला उसे देखकर सोचने लगी : मेरा पति इसे स्त्री बनाकर रखने के लिए लाया लगता है। इस समय तो उसको वह पुत्री कह रहा है, लेकिन पुरुष का मन कौन समझ सकता है?
धनावह सेठ ने वसुमती का नाम चंदनबाला रखा, जिससे वसुमती अब चंदनबाला नाम से पहचानी जाने लगी।
एक बार मूला सेठानी पड़ोसन के घर गई होगी । इतने में धनावह सेठ घर पर आये। उस समय चंदनबाला सेठ पिता को आसनपर बिठाकर विनयपूर्वक उनके चरण धोने लगी। उस वक्त मूला सेठानी घर पर आ गई। चंदनबाला के केशों की चोटी भूमि को छू रही थी तो सेठ ने उसे ऊपर उठा रखा था। चंदनबाला को सेठ के चरण धोते देखकर सेठानी सोचने लगी कि सेठ किसी भी समय इसे अपनी स्त्री बना लेगा और मुझे निकाल देगा या विष देकर मार डालेगा। इसलिए विषबेल को पनपने से पहले ही काट देना चाहिये।
एक बार धनावह सेठ बाहरगाँव गये थे। उस समय मूला सेठानी ने चंदनबाला का सर मुण्डवा डाला और पैर में बैड़ी डालकर उसे तहखाने में छोड़कर ताला लगा दिया। वह अपने मन से संतोष मानने लगी, और सोचती रही कि सौतन को मारने में दोष कैसा?
तहखाने में पड़ी हुई चंदनबाला सोचती है कि मेरे कर्म ही ऐसे है। नगर में से सैनिक ने मुझे पकड़ा। मार्ग में माता की मृत्यु हुई। जानवर की तरह बाजार में बिकना पड़ा लेकिन कुछ अच्छे भाग्य से वेश्या के यहाँ बिकने से बची। अब अंधेरी कोठरी में भूखे-प्यासे रहना है। हे वीतराग ! अब तेरी शरण है, यहाँ एकांत है, धर्मध्यान करूंगी - ऐसा सोचते हुए वह नवकार मंत्र का जप करने लगी। इस प्रकार तीन दिन बीत गये। उसके कई कर्मों का नाश हो चुका था। धनावह श्रेष्ठी बाहरगाँव से लौटे। उन्होंने चंदनबाला को देखा नहीं जिससे उन्होंने पत्नी को पूछा, ’चंदनबाला कहाँ गई है ?” तब सेठानी ने कहा, “वह तो लड़को के साथ घूमती-फिरती है।” इस प्रकार सच बात छुपायी किंतु एक वृद्ध दासी ने सेठ को चुपके से आकर मूला तथा चंदनबाला की सब हकीकत बतायी और दिखाया कि चंदनबाला को कहाँ रखा गया है। धनावह सेठ ने स्वयं जाकर द्वार खोला। धनावह ने बेड़ी से बंधी हुई, मुण्डित सिर और अश्रुभरी आँखोंवाली चंदनबाला को देखा और ढाढ़स बंधाकर उसे स्वस्थ होने को कहा । उसकी भूख मिटाने के लिए रसोईघर में पडे हुए दलहन लाकर दिये और उसकी बेडी तोडने के लिये लुहार को बुलाने चल दिये।
चंदनबाला सोचती है, ’अहो ! कैसे कैसे नाटक मेरे जीवन में आये ! मैं राजकुमारी - किन संयोगों में बाजार में बिकी, कर्मयोग से कुलवान सेठ ने खरीदा। कैदी की भाँति बेड़ियों के साथ तहखाने में कैद हुई - तीन दिन के उपवास हुए। अब पारणा हो सकता है पर कोई तपस्वी आये और अट्ठम के पारणे पर उसे भोजन-भिक्षा देकर व्रत खोलूँ तो आत्मा को आनंद होगा। कोई अतिथि आये, उसे देने के पश्चात् ही मैं भोजन करूंगी, अन्यथा खाऊँगी ही नहीं । यों वह विचार कर रही है, इतने में भिक्षा के लिए घूमते घूमते श्री वीर भगवान वहाँ आ पहुँचे। उनका अभिग्रह था कि “यदि कोई स्त्री चोखट पर बैठी हो; उसका एक पैर घर के अन्दर और एक पैर घर के बाहर हो, जन्म से वह राजपुत्री हो पर दासत्व पाया हो, पाँव में बेड़ी पड़ी हो, सर मुण्डन किया हुआ हो व रुदन करती हो - ऐसी स्त्री अट्ठम के पारणे पर सूप के कोने से भिक्षाकाल व्यतीत हो जाने के बाद दलहन की भिक्षा दे तो उससे में पारणा करूँगा ।!
ऐसे अभिग्रहवाले वीर प्रभु को अचानक आया देखकर प्रसन्न होकर वह कहने लगी; ’हे तीनों जगत के वंदनीय प्रभु ! मेरे ऊपर प्रसन्न होकर, यह शुद्ध अन्न स्वीकार करके मुझे कृतार्थ करिए।” अपने अभिग्रह के १३ वचन में से १ वचन कम था याने अभिग्रह के वचन सब तरह से पूर्ण हो रहे थे लेकिन एक रुदन की अपूर्णता देखकर प्रभु वापिस लोटने लगे। यह देखकर चंदनबाला स्वयं को हीनभाग्य समझकर जोर से रुदन करने लगी। वीर भगवान ने रुदनध्वनि सुनकर अपना अभिग्रह पूर्ण हुआ माना और दलहन की भिक्षा का स्वीकार किया कि तुरंत ही देवताओं ने आकर बारह करोड़ सुवर्णमुद्राओं की वृष्टि की। उसी समय चंदनबाला की लोहे की बेडियाँ टूट गई और सुन्दर आभूषण बन गये। आकाश में देवदुंदुभि बजने लगी। देवदुंदुभि सुनकर नगरजन एकत्रित हुए। राजा शतानिक भी वहाँ आ पहुँचा। वहाँ देवकृत्य सुवर्णवृष्टि देखकर वह आश्चर्यचकित हो गया और बोला कि “यह सर्व सुवर्ण इस चंदनबाला का हो जाये । इस प्रकार वीर भगवंत ने पाँच माह ओर पच्चीस दिन बीतने पर पारणा किया।
चंदनबाला बड़े हर्ष से बोली, “आज मेरे महाभाग्य है कि मैंने प्रभु को पारणा करवाया; इसमें मूला सेठानी को भी धन्य हैं। वे मेरी माता समान हैं। मेरी माता धारिणी जो कार्य न कर सकी वे सब मेरी इन मूलादेवी माता से सिद्ध हुए है।” उसने धनावह सेठ को भी समझाया कि, मूलादेवी को कुछ कहना मत । इससे मूला श्राविका बनी और चंदनबाला का योग्य सम्मान करने लगी।
महावीर प्रभु यहाँ से विहार कर गये। अनुक्रमसे उनके सर्व कर्मों का क्षय हुआ और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। प्रभु के पास आकर चंदनबाला ने प्रभु को प्रणाम करके चारित्र की याचना की। देवताओं का दिया हुआ धन सात क्षेत्रों में खर्च करके उसने दीक्षा ली।
जिन्होंने चंदनबाला से दीक्षा ली थी वह मृगावती एक बार भगवान की वाणी सुनने गई थी। भगवान की वाणी श्रवण करने के लिये सूर्य, चन्द्र भी विमानसहित आये थे। उनके उजाले के कारण मृगावती उपाश्रय पर बड़ी देर से पहुँची; रात्रि हो जाने के कारण चंदनबाला ने उन्हें डाटा ।
मृगावती अपने को लगे अतिचार के लिए आत्मा की निंदा करती हुई, अब आगे से ऐसा नहीं करूंगी”! कहकर मिथ्या दृष्कृत्य देने लगी। आत्मनिंदा के उत्कृष्ट परिणाम से उन्हें केवलज्ञान हुआ। उसी रात्री को मृगावती जो चन्दनबाला के पास ही बैठी थी, उसने चन्दनबाला के समीप से जाता हुआ एक साँप देखा। अतः उसने चंदनबाला का हाथ उठाकर दूसरी ओर रखा। तब चंदनबाला जगकर बोली, “तुमने मेरा हाथ क्यों उठाया ?” मृगावती ने उत्तर दिया, “यहाँ से सर्प जा रहा था, जिससे मैंने आपका हाथ उठाकर दूसरी ओर रखा । चंदनबाला ने पूछा, रात्रि के घोर अंधकार में तुमने सर्प कैसे देखा ?”
मृगावतीने कहा, "ज्ञान से अहो ! प्रतिपाती या अप्रतिपाती ज्ञान से ? यों चंदनबालाने पूछा। जवाब में मृगावतीने “अप्रतिपाती ज्ञान से” कहा। चंदनबाला समझ गई कि मृगावती को केवलज्ञान हुआ है। उसने मृगावती से क्षमायाचना करके मिथ्या दृष्कृत किया। इस से चंदनबाला को भी केवलज्ञान हुआ और अंतमें दोनों ने मुक्ति पाई।