स्तम्बपुर में चंडिल नाम का एक अतिचतुर नाई रहता था। वह अपनी विद्या के बल से लोगों की हजामत करके अपने अस्त्रों को आकाश में अधर रख दिया करता था। एक दिन किसी त्रिदण्डी ने नाई का यह चमत्कार देखा तो उसके मुंह में भी नाई से विद्या ग्रहण करने की लार टपकी। त्रिदण्डी ने उस नाईं की खूब सेवा की और प्रसन्न करके उससे वह विद्या सीख ली। उसके बाद घूमता-घामता त्रिदण्डी हस्तिनापुर आया। वहाँ के लोगों ने त्रिदण्डी का चमत्कार देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गये; उसकी खूब सेवा-भक्ति करने लगे। धीरे-धीरे सारे नगर में उसकी शोहरत (प्रशंसा) हो गयी। वहाँ के उस समय के राजा पद्मरथ के कानों में भी त्रिदण्डी के चमत्कार की बात पड़ी। राजा भी उस कौतुक को देखने के लिए आया और उसने फिर सविनय त्रिदण्डी से पूछा-स्वामिन?! आप अपने त्रिदण्ड को आकाश में अधर लटका कर रखते हैं; यह किसी तप का प्रभाव है या किसी विद्या का? त्रिदण्डी ने उत्तर दिया--“राजन! यह विद्या की ही शक्ति का प्रभाव है।” तब राजा ने पूछा--स्वामिन्?! वह चित्तचमत्कारिणी विद्या आपने किससे सीखी? उस समय त्रिदण्डी ने लज्जावश अपने विद्यागुरु नाई का नाम न लेकर झूठमूठ ही बात बनायी कि राजन?! हम कई वर्षों पहले हिमालय गये थे। वहाँ हमने तपश्चर्या व कष्टकारी अनुष्ठान द्वारा सरस्वतीदेवी की आराधना की थी। उस समय सरस्वतीदेवी ने प्रत्यक्ष होकर मुझे अंबरालम्बिनी विद्या दी थी। सरस्वती देवी ही मेरी विद्यागुरु है।” त्रिदण्डी के इस प्रकार असत्य कहते ही आकाश में अधर लटकता हुआ उसका त्रिदंंड खटाक से जमीन पर आ गिरा। उसे देखकर त्रिदण्डी अत्यंत लज्जित हुआ। उपस्थित लोग भी उसकी हंसी उड़ाने और फटकारने लगे। इससे दुःखित होकर वह वहाँ से चुपचाप चला गया।
जैसे वह त्रिदण्डी विद्यागुरु का नाम छिपाने से अत्यंत दुःखी हुआ, वैसे ही जो कुशिष्य अपने गुरु का नाम छिपाता है, वह दुःखी और धिक्कार का पात्र होता है; यही इस कथा का तात्पर्य है!
सयलंमि वि जीयलोए,
तेण इहं घोसियो अमघाओ l
इक्कं पि जो दुहत्तं,
सत्तं बोहेइ जिणवयणे ll
शब्दार्थ - जो व्यक्ति इस संसार में जन्म-मरण के दुःख से पीड़ित एक भी प्राणी को श्रीजिनवचन का बोध कराता है, वह इस १४ रज्जू प्रमाण लोक में अमारी पटह से घोषणा कराने सरीखा लाभ प्राप्त करता है; क्योंकि एक भी व्यक्ति जिनशासन को भलीभांति प्राप्त कर लेने पर अनंत-जन्म-मरण के चक्र से बच जाता है
श्री धर्मदासजी गणि रचित