उस काल उस समय में कृतंगला नामकी नगरी थी। उस कृतंगला नगरी के बाहर ईशानकोण में छत्रपला – शक नामका चैत्य था। वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान – केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। यावत् – भगवान का समवसरण हुआ। परीषद् धर्मोपदेश सूनने के लिए नीकली। उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी। उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक नामका परिव्राजक रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चार वेदों का धारक, पारक, वेद के छह अंगों का वेत्ता था। वह षष्ठितंत्र में विशारद था, वह गणितशास्त्र, शिक्षाक – ल्पशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, निरुक्तशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र, इन सब शास्त्रों में, तथा दूसरे बहुत – से ब्राह्मण और परिव्रजक – सम्बन्धी नीति और दर्शनशास्त्रों में भी अत्यन्त निष्णात था। उसी श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक – पिंगल नामक निर्ग्रन्थ था। एकदा वह वैशालिक श्रावक पिंगल नामक निर्ग्रन्थ किसी दिन जहाँ कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक रहता था, वहाँ उसके पास आया और उसने आक्षेपपूर्वक कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक से पूछा – ‘मागध ! १ – लोक सान्त है या अनन्त है ?, २ – जीव सान्त है या अनन्त है ?, ३ – सिद्धि सान्त है या अनन्त है ?, ४ – सिद्ध सान्त है या अनन्त है ?, ५ – किस मरण से मरता हुआ संसार बढ़ाता है और किस मरण से मरता हुआ संसार घटाता है ? इतने प्रश्नों का उत्तर दो। इस प्रकार उस कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक तापस से वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ द्वारा पूर्वोक्त प्रश्न आक्षेपपूर्वक पूछे, तब स्कन्दक तापस शंकाग्रस्त हुआ, कांक्षा उत्पन्न हुई; उसके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई; उसकी बुद्धि में भेद उत्पन्न हुआ, उसके मन में कालुष्य उत्पन्न हुआ, इस कारण वह तापस, वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका। अतः चूपचाप रह गया। इसके पश्चात् उस वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने कात्यायन – गोत्रीय स्कन्दध परिव्राजक से दो बार, तीन बार भी उन्हीं प्रश्नों को साक्षेप पूछा कि मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? यावत् – किस मरण से मरने से जीव बढ़ता या घटता है ?; इतने प्रश्नों का उत्तर दो। जब वैशालिक श्रमण श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से दो – तीन बार पुनः उन्हीं प्रश्नों को पूछा तो वह पुनः पूर्ववत् शंकित, कांक्षित, विचिकित्साग्रस्त, भेदसमापन्न तथा कालुष्य (शोक) को प्राप्त हुआ, किन्तु वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका। अतः चूप होकर रह गया। उस समय श्रावस्ती नगरी में जहाँ तीन मार्ग, चार मार्ग, और बहुत – से मार्ग मिलते हैं, वहाँ तथा महापथों में जनता की भारी भीड़ व्यूहाकार रूप में चल रही थी, लोग इस प्रकार बातें कर रहे थे कि ‘श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में पधारे हैं।’ परीषद् भगवान महावीर को वन्दना करने के लिए नीकली। उस समय बहुत – से लोगों के मुँह से यह बात सूनकर और उसे अवधारण करके उस कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक तापस के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान महावीर कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में तप – संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं। अतः मैं उनके पास जाऊं, उन्हें वन्दना – नमस्कार करूँ। मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार करके, उनका सत्कार – सम्मान करके, उन कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और चैत्यरूप भगवान महावीर स्वामी की पर्युपासना करूँ, तथा उनसे इन और इस प्रकार के अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों आदि को पूछूँ। यों विचार कर वह स्कन्दक तापस, जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ आया। वहाँ आकर त्रिदण्ड, कुण्डी, रुद्राक्ष की माला, करोटिका, आसन, केसरिका, त्रिगड़ी, अंकुशक, पवित्री, गणेत्रिका, छत्र, पगरखी, पादुका, धातु से रंगे हुए वस्त्र, इन सब तापस के उपकरणों को लेकर परिव्राजकों के मठ से नीकला। वहाँ से नीकलकर त्रिदण्ड, कुण्डी, कांचनिका, करोटिका, भृशिका, केसरिका, त्रिगडी, अंकुशक, अंगूठी और गणेत्रिका, इन्हें हाथ में लेकर, छत्र और पगरखी से युक्त होकर, तथा धातुरक्त वस्त्र पहनकर श्रावस्ती नगरी के मध्य में से नीकलकर जहाँ कृतंगला नगरी थी, जहाँ छत्रपलाशक चैत्य था, जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, उसी ओर जाने के लिए प्रस्थान किया। ‘हे गौतम !’ इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री इन्द्रभूति अनगार को सम्बोधित करके कहा – ‘‘गौतम ! (आज) तू अपने पूर्व के साथी को देखेगा।’’ भगवन् ! मैं (आज) किसको देखूँगा? गौतम ! तू स्कन्दक (नामक तापस) को देखेगा। भगवन् ! मैं उसे कब, किस तरह से, और कितने समय बाद देखूँगा ? गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नामकी नगरी थी। उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता था। यावत् – उस स्कन्दक परिव्राजक ने जहाँ मैं हूँ, वहाँ – मेरे पास आने के लिए संकल्प कर लिया है। वह अपने स्थान से प्रस्थान करके मेरे पास आ रहा है। वह बहुत – सा मार्ग पार करके अत्यन्त निकट पहुँच गया है। अभी वह मार्ग में चल रहा है। यह बीच के मार्ग पर है। हे गौतम ! तू आज ही उसे देखेगा। फिर ‘हे भगवन् !’ यों कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार करके इस प्रकार पूछा – भगवन् ! क्या वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक आप देवानु – प्रिय के पास मुण्डित होकर आगार (घर) छोड़कर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! वह समर्थ है। जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी गौतम स्वामी से यह बात कह ही रहे थे, कि इतने में वह कात्यायन – गोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक उस स्थान में शीघ्र आ पहुँचे। तब भगवान गौतम स्कन्दक परिव्राजक को देखकर शीघ्र ही अपने आसन से उठे, उसके सामने गए। स्कन्दक परिव्राजक के पास आकर उससे कहा – हे स्कन्दक ! तुम्हारा स्वागत है, तुम्हारा आगमन अनुरूप है। हे स्कन्दक ! क्या श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे आक्षेप पूर्वक पूछा था कि हे मागध ! लोक सान्त है इत्यादि ? इसके उत्तर के लिए तुम यहाँ आए हो क्या यह सत्य है ? फिर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक ने भगवान गौमत से इस प्रकार पूछा – ‘‘गौतम ! कौन ऐसा ज्ञानी और तपस्वी पुरुष है, जिसने मेरे मन की गुप्त बात तुमसे शीघ्र कह दी; जिससे तुम मेरे मन की गुप्त बात को जान गए? तब भगवान गौतम ने कहा – ‘हे स्कन्दक ! मेरे धर्मगुरु, धर्मोपदेशक, श्रमण भगवान महावीर, उत्पन्न ज्ञान – दर्शन के धारक हैं, अर्हन्त हैं, जिन हैं, केवली हैं, भूत, भविष्य और वर्तमान काल के ज्ञाता हैं, सर्वज्ञ – सर्वदर्शी हैं; उन्होंने तुम्हारे मन में रही हुई, गुप्त बात मुझे शीघ्र कह दी, जिससे हे स्कन्दक ! मैं तुम्हारी उस गुप्त बात को जानता हूँ। तत्पश्चात् कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक ने भगवान गौतम से कहा – हे गौतम ! (चलो) हम तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास चलें, उन्हें वन्दना – नमस्कार करें, यावत् – उनकी पर्युपासना करें। हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। विलम्ब मत करो। तदनन्तर भगवान गौतम स्वामी ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक के साथ जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ जाने का संकल्प किया। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर व्यावृत्तभोजी थे। इसलिए व्यावृत्त – भोजी श्रमण भगवान महावीर का शरीर उदार, शृंगाररूप, अतिशय शोभासम्पन्न, कल्याणरूप, धन्यरूप, मंगलरूप बिना अलंकार के ही सुशोभित, उत्तम लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त तथा शारीरिक शोभा से अत्यन्त शोभायमान था। अतः व्यावृत्तभोजी श्रमण भगवान महावीर के उदार यावत् शोभा से अतीव शोभायमान शरीर को देखकर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को अत्यन्त हर्ष हुआ, सन्तोष हुआ, एवं उसका चित्त आनन्दित हुआ। वह आनन्दित, मन में प्रीतियुक्त परम सौमनस्यप्राप्त तथा हर्ष से प्रफुल्लहृदय होता हुआ जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके निकट आकर प्रदक्षिणा की, यावत् पर्युपासना करने लगा। तत्पश्चात् ‘स्कन्दक !’ इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से इस प्रकार कहा – हे स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे इस प्रकार आक्षेपपूर्वक पूछा था कि – मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ! आदि। यावत् – उसके प्रश्नों से व्याकुल होकर तुम मेरे पास शीघ्र आए हो। हे स्कन्दक ! क्या यह बात सत्य है ? ‘हाँ, भगवन् ! यह बात सत्य है।’ (भगवान ने फरमाया – ) हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प समुत्पन्न हुआ था कि ‘लोक सान्त है, या अनन्त ?’ उस का यह अर्थ (उत्तर) है – हे स्कन्दक ! मैंने चार प्रकार का लोक बतलाया है, वह इस प्रकार है – द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक। उन चारों में से द्रव्य से लोक एक है, और अन्त वाला है, क्षेत्र से लोक असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन तक लम्बा – चौड़ा है असंख्य कोड़ाकोड़ी योजन की परिधि वाला है, तथा वह अन्तसहित है। काल से ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें लोक नहीं था, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें लोक नहीं है, ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें लोक न होगा। लोक सदा था, सदा है और सदा रहेगा। लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। उसका अन्त नहीं है। भाव से लोक अनन्त वर्णपर्यायरूप, गन्धपर्यायरूप, रसपर्यायरूप और स्पर्श – पर्यायरूप है। इसी प्रकार अनन्त संस्थानपर्यायरूप, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप एवं अनन्त अगुरुलघुपर्यायरूप है। उसका अन्त नहीं है। इस प्रकार हे स्कन्दक ! द्रव्य – लोक अन्तसहित है, क्षेत्र – लोक अन्तसहित है, काल – लोक अन्तरहित है और भाव – लोक भी अन्तरहित है। अत एव लोक अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है। और हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में यह विकल्प उठा था, कि यावत् – ‘जीव सान्त है या अन्तरहित है ?’ उसका भी अर्थ इस प्रकार है – ‘यावत् द्रव्य से एक जीव अन्तसहित है। क्षेत्र से – जीव असंख्य प्रदेश वाला है और असंख्य प्रदेशों का अवगाहन किये हुए है, अतः वह अन्तसहित है। काल से – ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें जीव न था, यावत् – जीव नित्य है, अन्तरहित है। भाव से – जीव अनन्त – ज्ञानपर्यायरूप है, अनन्तदर्शनपर्यायरूप है, अनन्त – चारित्रपर्यायरूप है, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप है, अनन्त – अगुरुलघुपर्यायरूप है और उसका अन्त नहीं है। इस प्रकार द्रव्यजीव और क्षेत्रजीव अन्तसहित है, तथा कालजीव और भावजीव अन्तरहित है। अतः हे स्कन्दक ! जीव अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है। हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में यावत् जो यह विकल्प उठा था कि सिद्धि सान्त है या अन्तरहित है ? उसका भी यह अर्थ है – हे स्कन्दक ! मैंने चार प्रकार की सिद्धि बताई है। वह इस प्रकार है – द्रव्यसिद्धि, क्षेत्रसिद्धि, काल – सिद्धि और भावसिद्धि। द्रव्य से सिद्धि एक है, अतः अन्तसहित है। क्षेत्र से – सिद्धि ४५ लाख योजन की लम्बी – चौड़ी है, तथा एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ विशेषाधिक है, अतः अन्त – सहित है। काल से – ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें सिद्धि नहीं थी, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें सिद्धि नहीं है तथा ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें सिद्धि नहीं रहेगी। अतः वह नित्य है, अन्तरहित है। भाव से सिद्धि – जैसे भाव लोक के सम्बन्ध में कहा था, उसी प्रकार है। इस प्रकार द्रव्यसिद्धि और क्षेत्रसिद्धि अन्तसहित है तथा काल – सिद्धि और भावसिद्धि अन्तरहित है। हे स्कन्दक ! सिद्धि अन्त – सहित भी है और अन्तरहित भी है। हे स्कन्दक ! फिर तुम्हें यह संकल्प – विकल्प उत्पन्न हुआ था कि सिद्ध अन्तसहित हैं या अन्तरहित हैं ? उसका अर्थ भी इस प्रकार है – यावत् – द्रव्य से एक सिद्ध अन्तसहित है। क्षेत्र से – सिद्ध असंख्यप्रदेश वाले तथा असंख्य आकाश – प्रदेशों का अवगाहन किये हुए हैं, अतः अन्तसहित हैं। काल से – (कोई भी एक) सिद्ध आदि – सहित और अन्तरहित है। भाव से – सिद्ध अनन्तज्ञानपर्यायरूप हैं, अनन्तदर्शनपर्यायरूप हैं, यावत् – अनन्त – अगुरु – लघुपर्यायरूप हैं तथा अन्तरहित हैं। इसलिए हे स्कन्दक ! सिद्ध अन्तसहित भी हैं और अन्तरहित भी। और हे स्कन्दक ! तुम्हें जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, यावत् – संकल्प उत्पन्न हुआ था कि कौन – से मरण से मरते हुए जीव का संसार बढ़ता है और कौन – से मरण से मरते हुए जीव का संसार घटता है ? उसका भी अर्थ यह है – हे स्कन्दक ! मैंने दो प्रकार के मरण बतलाए हैं। वे इस प्रकार हैं – बालमरण और पण्डितमरण। ‘वह बालमरण क्या है ?’ बालमरण बारह प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है – (१) बलयमरण (तड़फते हुए मरना), (२) वशार्तमरण (पराधीनतापूर्वक मरना), (३) अन्तःशल्यमरण, (४) तद्भवमरण, (५) गिरि – पतन, (६) तरुपतन, (७) जलप्रवेश, (८) ज्वलनप्रवेश, (९) विषभक्षण (विष खाकर मरना), (१०) शस्त्राघात से मरना, (११) वैहानस मरण (गले में फाँसी लगाने या वृक्ष आदि पर लटकने से होने वाला मरण) और (१२) गृध्रपृष्ठ – मरण (गिद्ध आदि पक्षीयों द्वारा पीठ आदि शरीरावयवों का माँस खाए जाने से होने वाला मरण)। हे स्कन्दक ! इन बारह प्रकार के बालमरणों से मरता हुआ जीव अनन्त बार नारक भवों को प्राप्त करता है, तथा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इस चातुर्गतिक अनादि – अनन्त संसाररूप वन में बार – बार परिभ्रमण करता है। यह है – बालमरण का स्वरूप। पण्डितमरण क्या है ? पण्डितमरण दो प्रकार का कहा गया है। पादपोपगमन (वृक्ष की कटी हुई शाखा की तरह स्थिर (निश्चल) होकर मरना) और भक्त – प्रत्याख्यान (यावज्जीवन तीन या चारों आहारों का त्याग करने के बाद शरीर की सारसंभाल करते हुए जो मृत्यु होती है)। पादपोपगमन (मरण) क्या है ? पादपोपगमन दो प्रकार का है। निर्हारिम और अनिर्हारिम। यह दोनों प्रकार का पादपोपगमन – मरण नियम से अप्रतिकर्म है। भक्तप्रत्याख्यान (मरण) क्या है ? भक्तप्रत्याख्यान मरण दो प्रकार का है। निर्हारिम और अनिर्हारिम। यह दोनों प्रकार का भक्त – प्रत्याख्यान मरण नियम से सप्रतिकर्म होता है। हे स्कन्दक ! इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरता हुआ जीव नारकादि अनन्त भवों को प्राप्त नहीं करता; यावत् संसाररूपी अटवी को उल्लंघन कर जाता है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरते हुए जीव का संसार घटता है। हे स्कन्दक ! इन दो प्रकार के मरणों से मरते हुए जीव का संसार बढ़ता और घटता है।
(भगवान महावीर से समाधान पाकर) कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को सम्बोध प्राप्त हुआ। उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार करके यों कहा – ‘भगवन् ! मैं आपके पास केवलिप्ररूपित धर्म सूनना चाहता हूँ।’ हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब मत करो। पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामीने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को और उस बहुत बड़ी परीषद् को धर्मकथा कही। तत्पश्चात् वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक भगवान महावीर के श्रीमुख से धर्मकथा सूनकर एवं हृदयमें अवधारण करके अत्यन्त हर्षित हुआ, सन्तुष्ट हुआ, यावत् उसका हृदय हर्ष से विकसित हो गया। तदनन्तर खड़े होकर और श्रमण भगवान महावीर को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करके स्कन्दक परिव्राजक ने इस प्रकार कहा – ‘भगवन् निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं श्रद्धा करता हूँ, निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं प्रतीति करता हूँ, भगवन् ! निर्ग्रन्थ – प्रवचनमें मुझे रुचि है, भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन में अभ्युद्यत होता हूँ। हे भगवन् ! यह (निर्ग्रन्थ प्रवचन) इसी प्रकार है, यह तथ्य है, यह सत्य है, यह असंदिग्ध है, भगवन् ! यह मुझे इष्ट है, प्रतीष्ट है, इष्ट – प्रतीष्ट है। हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है। यों कहकर स्कन्दक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार किया। ऐसा करके उसने ईशानकोण में जाकर त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गेरुए वस्त्र आदि परिव्राजक के उपकरण एकान्त में छोड़ दिए। फिर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आकर भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा – ‘भगवन् ! वृद्धावस्था और मृत्युरूपी अग्नि से यह लोक आदीप्त – प्रदीप्त है, वह एकदम जल रहा हे और विशेष जल रहा है। जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह घर जल रहा हो, तब वह उस जलते घर में से बहुमूल्य और अल्प भार वाले सामान को पहले बाहर नीकालता है, और उसे लेकर वह एकान्त में जाता है। वह यह सोचता है – बाहर नीकाला हुआ यह सामान भविष्य में आगे – पीछे मेरे लिए हितरूप, सुखरूप, क्षेमकुशलरूप, कल्याणरूप एवं साथ चलने वाला होगा। इसी तरह हे देवानुप्रिय भगवन् ! मेरा आत्मा भी एक भाण्ड रूप है। यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोरम, स्थिरता वाला, विश्वासपात्र, सम्मत, अनुमत, बहुमत और रत्नों के पिटारे के समान है। इसलिए इसे ठंड न लगे, गर्मी न लगे, यह भूख – प्यास से पीड़ित न हो, इसे चोर, सिंह और सर्प हानि न पहुँचाए, इसे डाँस और मच्छर न सताएं, तथा वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि विविध रोग और आतंक परीषह और उपसर्ग इसे स्पर्श न करें, इस प्रकार मैं इनसे इसकी बराबर रक्षा करता हूँ। मेरा आत्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप, कल्याणरूप और अनुगामीरूप होगा। इसलिए भगवन् ! मैं आपके पास स्वयं प्रव्रजित होना, स्वयं मुण्डित होना चाहता हूँ। मेरी ईच्छा है कि आप स्वयं मुझे प्रव्रजित करें, मुण्डित करें, आप स्वयं मुझे प्रतिलेखनादि क्रियाएं सिखाएं, सूत्र और अर्थ पढ़ाएं। मैं चाहता हूँ कि आप मुझे ज्ञानादि आचार, गोचर, विनय, विनय का फल, चारित्र और पिण्ड – विशुद्धि आदि करण तथा संयम यात्रा और संयमयात्रा के निर्वाहक आहारादि की मात्रा के ग्रहणरूप धर्म को कहें।’ तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने स्वयमेव कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को प्रव्रजित किया, यावत् स्वयमेव धर्म की शिक्षा दी कि हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार (यतना) से चलना चाहिए, इस तरह से खड़ा रहना चाहिए, इस तरह से बैठना चाहिए, इस तरह से सोना चाहिए, इस तरह से खाना चाहिए, इस तरह से बोलना चाहिए, इस प्रकार से उठकर सावधानतापूर्वक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व के प्रति संयमपूर्वक वर्ताव करना चाहिए। इस विषय में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। तब कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक मुनि ने पूर्वोक्त धार्मिक उपदेश को भलीभाँति स्वीकार किया और जिस प्रकार की भगवान महावीर की आज्ञा अनुसार श्री स्कन्दकमुनि चलने लगे, वैसे ही खड़े रहने लगे, वैसे ही बैठने, सोने, खाने, बोलने आदि क्रियाएं करने लगे; तथा तदनुसार ही प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के प्रति संयमपूर्वक बर्ताव करने लगे। इस विषय में वे जरा – सा प्रमाद नहीं करते थे। अब वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक अनगार हो गए। वह अब ईर्यासमिति, भाषासमिति, एकणासमिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चार – प्रस्रवण – खेल – जल्ल – सिंघाणपरिष्ठापनिका समिति, एवं मनःसमिति, वचनसमिति और कायसमिति, इन आठ समितियों का सम्यक् रूप से सावधानतापूर्वक पालन करने लगे। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से गुप्त रहने लगे, वे सबको वश में रखने वाले, इन्द्रियों को गुप्त रखने वाले, गुप्तब्रह्मचारी, त्यागी, लज्जावान, धन्य, क्षमावान, जितेन्द्रिय, व्रतों आदि के शुद्धिपूर्वक आचरणकर्ता, नियाणा न करने वाले, आकांक्षारहित, उतावल से दूर, संयम से बाहर चित्त न रखने वाले, श्रेष्ठ साधुव्रतों में लीन, दान्त स्कन्दक मुनि इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन को सम्मुख रखकर विचरण करने लगे।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से नीकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे। इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शास्त्र – अध्ययन करने के बाद श्रमण भगवान महावीर के पास आकर वन्दना – नमस्कार करके इस प्रकार बोले – भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं मासिकी भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरना चाहता हूँ। (भगवान – ) हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। शुभ कार्य में प्रतिबन्ध न करो। तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त करके अतीव हर्षित हुए और यावत् भगवान महावीर को नमस्कार करके मासिक भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरण करने लगे। तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने सूत्र के अनुसार, यथातत्त्व, सम्यक् प्रकार से स्वीकृत मासिक भिक्षुप्रतिमा का काया से स्पर्श किया, पालन किया, उसे शोभित किया, पार लगाया, पूर्ण किया, उसका कीर्तन किया, अनुपालन किया, और आज्ञापूर्वक आराधन किया। उक्त प्रतिमा का काया से सम्यक् स्पर्श करके यावत् उसका आज्ञापूर्वक आराधन करके श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आए यावत् वन्दन – नमस्कार करके यों बोले – भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ। इस पर भगवान ने कहा – हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब न करो। तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार ने द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा को स्वीकार किया। यावत् सम्यक् प्रकार से आज्ञापूर्वक आराधन किया। इसी प्रकार त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पंच – मासिकी, षाण्मासिकी एवं सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा की यथावत् आराधना की। तत्पश्चात् प्रथम सप्तरात्रि – दिवस की, द्वीतिय सप्तरात्रि – दिवस की एवं तृतीय सप्तरात्रि – दिवस की फिर एक अहोरात्रि की, तथा एकरात्रि की, इस तरह बारह भिक्षुप्रतिमाओं का सूत्रानुसार यावत् आज्ञापूर्वक सम्यक् आराधन किया। फिर स्कन्दक अनगार अन्तिम एकरात्रि की भिक्षुप्रतिमा का यथासूत्र यावत् आज्ञापूर्वक सम्यक् आराधन करके जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आकर उन्हें वन्दना – नमस्कार करके यावत् इस प्रकार बोले – ‘भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं ‘गुणरत्नसंवत्सर’ नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरण करना चाहता हूँ।’ भगवान ने फरमाया – ‘तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो; धर्मकार्य में विलम्ब न करो।’ स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त करके यावत् उन्हें वन्दना – नमस्कार करके गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण स्वीकार करके विचरण करने लगे। जैसे कि – पहले महीने में निरन्तर उपवास करना, दिन में सूर्य के सम्मुख दृष्टि रखकर आतापनाभूमि में उत्कटुक आसन से बैठकर सूर्य की आतापना लेना और रात्रि में अपावृत (निर्वस्त्र) होकर वीरासन से बैठना एवं शीत सहन करना। इसी तरह निरन्तर बेले – बेले पारणा करना। दिन में उत्कटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख रखकर आतापनाभूमि में सूर्य की आतापना लेना, रात्रि में अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना। इसी प्रकार तीसरे मास में उपर्युक्त विधि के अनुसार निरन्तर तेले – तेले पारणा करना। इसी विधि के अनुसार चौथे मास में निरन्तर चौले – चौले पारणा करना। पाँचवे मास में पचौले – पचौले पारणा करना। छठे मास में निरन्तर छह – छह उपवास करना। सातवे मास में निरन्तर सात – सात उपवास करना। आठवे मास में निरन्तर आठ – आठ उपवास करना। नौवें मास में निरन्तर नौ – नौ उपवास करना। दसवे मास में निरन्तर दस – दस उपवास करना। ग्यारहवे मास में निरन्तर ग्यारह – ग्यारह उपवास करना। बारहवे मास में निरन्तर बारह – बारह उपवास करना। तेरहवे मास में निरन्तर तेरह – तेरह उपवास करना। निरन्तर चौदहवे मास में चौदह – चौदह उपवास करना। पन्द्रहवें मास में निरन्तर पन्द्रह – पन्द्रह उपवास करना और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह – सोलह उपवास करना। इन सभी में दिन में उत्कटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख करके आतापनाभूमि में आतापना लेना, रात्रि के समय अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना। तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण की सूत्रानुसार, कल्पानुसार यावत् आराधना की। इसके पश्चात् जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ वे आए और उन्हें वन्दना – नमस्कार किया। और फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचौला, मासखमण, अर्द्ध मासखमण इत्यादि विविध प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। इसके पश्चात् वे स्कन्दक अनगार उस उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, श्रीयुक्त, उत्तम, उदग्र, उदात्त, सुन्दर, उदार और महा – प्रभावशाली तपःकर्म से शुष्क हो गए, रूक्ष हो गए, मांसरहित हो गए, वह केवल हड्डी और चमड़ी से ढका हुआ रह गया। चलते समय हड्डियाँ खड़ – खड़ करने लगीं, वे कृश – दुर्बल हो गए, उनकी नाड़ियाँ सामने दिखाई देने लगीं, अब वे केवल जीव के बल से चलते थे, जीव के बल से खड़े रहते थे, तथा वे इतने दुर्बल हो गए थे कि भाषा बोलने के बाद, भाषा बोलते – बोलते भी और भाषा बोलूँगा, इस विचार से भी ग्लानि को प्राप्त होते थे, जैसे कोई सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्तों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्ते, तिल और अन्य सूखे सामान से भरी हुई गाड़ी हो, एरण्ड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, या कोयले से भरी हुई गाड़ी हो, सभी गाड़ियाँ धूप में अच्छी तरह सूखाई हुई हों और फिर चलाई जाएं तो खड़ – खड़ आवाज करती हुई चलती हैं और आवाज करती हुई खड़ी रहती है, इसी प्रकार जब स्कन्दक अनगार चलते थे, खड़े रहते थे, तब खड़ – खड़ आवाज होती थी। यद्यपि वे शरीर से दुर्बल हो गए थे, तथापि वे तप से पुष्ट थे। उनका मांस और रक्त क्षीण हो गए थे, किन्तु राख के ढेर में दबी हुई अग्नि की तरह वे तप और तेज से तथा तप – तेज की शोभा से अतीव – अतीव सुशोभित हो रहे थे।
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर में पधारे। समवसरण की रचना हुई। यावत् जनता धर्मोपदेश सूनकर वापिस लौट गई। तदनन्तर किसी एक दिन रात्रि के पीछले प्रहर में धर्म – जागरणा करते हुए स्कन्दक अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस प्रकार के उदार यावत् महाप्रभावशाली तपःकर्म द्वारा शुष्क, रूक्ष यावत् कृश हो गया हूँ। यावत् मेरा शारीरिक बल क्षीण हो गया, मैं केवल आत्मबल से चलता हूँ और खड़ा रहता हूँ। यहाँ तक की बोलने के बाद, बोलते समय और बोलने से पूर्व भी मुझे ग्लानि – खिन्नता होती है यावत् पूर्वोक्त गाड़ियों की तरह चलते और खड़े रहते हुए मेरी हड्डियों से खड़ – खड़ आवाज होती है। अतः जब तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम है, जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर सुहस्ती की तरह विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए श्रेयस्कर है कि इस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर कल प्रातःकाल कोमल उत्पलकमलों को विकसित करने वाले, क्रमशः पाण्डुरप्रभा से रक्त अशोक के समान प्रकाशमान, टेसू के फूल, तोते की चोंच, गुंजा के अर्द्ध भाग जैसे लाल, कमलवनों को विकसित करने वाले, सहस्त्ररश्मि, तथा तेज से जाज्वल्यमान दिनकर सूर्य के उदय होने पर मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार यावत् पर्युपासना करके, आज्ञा प्राप्त करके, स्वयमेव पंचमहाव्रतों का आरोपण करके, श्रमण – श्रमणियों के साथ क्षमापना करके कृतादि तथारूप स्थविर साधुओं के साथ विपुलगिरि पर शनैः शनैः चढ़कर, मेघसमूह के समान काले, देवों के अवतरणस्थानरूप पृथ्वीशिलापट्ट की प्रतिलेखना करके, उस पर डाभ (दर्भ) का संथारा बिछाकर, उस दर्भ संस्तारक पर बैठकर आत्मा को संलेखना तथा झोषणा से युक्त करके, आहार – पानी का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन संथारा करके, मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विचरण करूँ। इस प्रकार का सम्प्रेक्षण किया और रात्रि व्यतीत होने पर प्रातःकाल यावत् जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी की सेवा में आकर उन्हें वन्दना – नमस्कार करके यावत् पर्युपासना करने लगे। तत्पश्चात् ‘हे स्कन्दक !’ यों सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने स्कन्दक अनगार से इस प्रकार कहा – ‘‘हे स्कन्दक ! रात्रि के पीछले प्रहर में धर्म जागरणा करते हुए तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि इस उदार यावत् महाप्रभावशाली तपश्चरण से मेरा शरीर अब कृश हो गया है, यावत् अब मैं संलेखना – संथारा करके मृत्यु की आकांक्षा न करके पादपोपगमन अनशन करूँ। ऐसा विचार करके प्रातःकाल सूर्योदय होने पर तुम मेरे पास आए हो। हे स्कन्दक ! क्या यह सत्य है ?’’ हाँ, भगवन् ! यह सत्य है। हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो; इस धर्मकार्य में विलम्ब मत करो।
तदनन्तर श्री स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर अत्यन्त हर्षित, सन्तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हुए। फिर खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की और वन्दना – नमस्कार करके स्वयमेव पाँच महाव्रतों का आरोपण किया। फिर श्रमण – श्रमणियों से क्षमायाचना की, और तथारूप योग्य कृतादि स्थविरों के साथ शनैः शनैः विपुलाचल पर चढ़े। वहाँ मेघ – समूह के समान काले, देवों के ऊतरने योग्य स्थानरूप एक पृथ्वीशिलापट्ट की प्रतिलेखना की तथा उच्चार – प्रस्रवणादि परिष्ठापनभूमि की प्रति – लेखना की। ऐसा करके उस पृथ्वीशिलापट्ट पर डाभ का संथारा बिछाकर, पूर्वदिशा की ओर मुख करके, पर्यकासन से बैठकर, दसों नख सहित दोनों हाथों को मिलाकर मस्तक पर रखकर, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले – ‘अरिहन्त भगवंतों को, यावत् जो मोक्ष को प्राप्त हो चूके हैं, उन्हें नमस्कार हो। तथा अविचल शाश्वत सिद्ध स्थान को प्राप्त करने की ईच्छा वाले श्रमण भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार हो। तत्पश्चात् कहा – ‘वहाँ रहे हुए भगवान महावीर को यहाँ रहा हुआ मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ विराजमान श्रमण भगवान महावीर यहाँ पर रहे हुए मुझ को देखें।’ ऐसा कहकर भगवान को वन्दना – नमस्कार करके वे बोले – ‘मैंने पहले भी श्रमण भगवान महावीर के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात का त्याग किया था, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग किया था। इस समय भी श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग करता हूँ। और यावज्जीवन के लिए अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार का त्याग करता हूँ। तथा यह मेरा शरीर, जो कि मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय है, यावत् जिसकी मैंने बाधा – पीड़ा, रोग, आतंक, परीषह और उपसर्ग आदि से रक्षा की है, ऐसे शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक व्युत्सर्ग करता हूँ, यों कहकर संलेखना संथारा करके, भक्त – पान का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन अनशन करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरण करने लगे। स्कन्दक अनगार, श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन पूरे बारह वर्ष तक श्रमण – पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को संलिखित करके साठ भक्त का त्यागरूप अनशन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त करके क्रमशः कालधर्म को प्राप्त हुए।
तत्पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने स्कन्दक अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया। फिर उनके पात्र, वस्त्र आदि उपकरणों को लेकर वे विपुलगिरि से शनैः शनैः नीचे ऊतरे। ऊतरकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए। भगवान को वन्दना – नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों ने इस प्रकार कहा – हे भगवन् ! आप देवानुप्रिय के शिष्य स्कन्दक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, प्रकृति से विनीत, स्वभाव से उपशान्त, अल्पक्रोध – मान – माया – लोभ वाले, कोमलता और नम्रता से युक्त, इन्द्रियों को वश में करने वाले, भद्र और विनीत थे, वे आपकी आज्ञा लेकर स्वयमेव पंचमहाव्रतों का आरोपण करके, साधु – साध्वीयों से क्षमापना करके, हमारे साथ विपुलगिरि पर गए थे, यावत् वे पादपोपगमन संथार करके कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं। ये उनके धर्मोपकरण हैं। गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! स्कन्दक अनगार काल के अवसर पर कालधर्म को प्राप्त करके कहाँ गए और कहाँ उत्पन्न हुए ? श्रमण भगवान महावीर ने फरमाया – हे गौतम ! मेरा शिष्य स्कन्दक अनगार, प्रकृतिभद्र यावत् विनीत मेरी आज्ञा प्राप्त करके, स्वयमेव पंचमहाव्रतों का आरोपण करके, यावत् संलेखना – संथारा करके समाधि को प्राप्त होकर काल के अवसर पर काल करके अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ कतिपय देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की है। तदनुसार स्कन्दक देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। तत्पश्चात् श्री गौतमस्वामी ने पूछा – भगवन् ! स्कन्दक देव वहाँ की आयु का क्षय, भव का क्षय और स्थिति का क्षय करके उस देवलोक से कहाँ जाएंगे और कहाँ उत्पन्न होंगे ? गौतम ! स्कन्दक देव वहाँ की आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर महाविदेहवर्ष (क्षेत्र) में जन्म लेकर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त करेंगे और सभी दुःखों का अन्त करेंगे। श्री स्कन्दक का जीवनवृत्त पूर्ण हुआ।