उस काल उस समय में राजगृह नगर था। गुणशीलक उद्यान था। श्रेणिक राजा थे। चेलना रानी थी। ‘अर्जुन’ नाम का एक माली रहता था। उसकी पत्नी बन्धुमती थी, जो अत्यन्त सुन्दर एवं सुकुमार थी। अर्जुन माली का राजगृह नगर के बाहर एक बड़ा पुष्पाराम था। वह पुष्पोद्यान कहीं कृष्ण वर्ण का था, यावत् समुदाय की तरह प्रतीत हो रहा था। उसमें पाँचों वर्णों के फूल खिले हुए थे। वह बगीचा इस भाँति हृदय को प्रसन्न एवं प्रफुल्लित करने वाला अतिशय दर्शनीय था। उस पुष्पाराम फूलवाड़ी के समीप ही मुद्गरपाणि यक्ष का यक्षायतन था, जो उस अर्जुनमाली के पुरखाओं – से चली आई कुलपरम्परा से सम्बन्धित था। वह ‘पूर्णभद्र’ चैत्य के समान पुराना, दिव्य एवं सत्य प्रभाववाला था। उसमें मुद्गरपाणि नामक यक्ष की एक प्रतिमा थी, जिसके हाथ में एक हजार पल – परिमाण भारवाला लोहे का एक मुद्गर था। वह अर्जुनमाली बचपन से ही मुद्गरपाणि यक्ष का उपासक था। प्रतिदिन बाँस की छबड़ी लेकर वह राजगृह नगर के बाहर स्थित अपनी उस फूलवाड़ी में जाता था और फूलों को चून – चून कर एकत्रित करता था। फिर उन फूलों में से उत्तम – उत्तम फूलों को छाँटकर उन्हें उस मुद्गरपाणि यक्ष के समक्ष चढ़ाता था। इस प्रकार वह उत्तमोत्तम फूलों से उस यक्ष की पूजा – अर्चना करता और भूमि पर दोनों घुटने टेककर उसे प्रणाम करता। इसके बाद राजमार्ग के किनारे बाजार में बैठकर उन फूलों को बेचकर अपनी आजीविका उपार्जन किया करता था उस राजगृह नगर में ‘ललिता’ नाम की एक गोष्ठी थी। वह धन – धान्यादि से सम्पन्न थी तथा वह बहुतों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो पाती थी। किसी समय राजा का कोई अभीष्ट – कार्य संपादन करने के कारण राजा ने उस मित्र – मंड़ली पर प्रसन्न होकर अभयदान दे दिया था कि वह अपनी ईच्छानुसार कोई भी कार्य करने में स्वतन्त्र है। राज्य की ओर से उसे पूरा संरक्षण था, इस कारण यह गोष्ठी बहुत उच्छृंखल और स्वच्छन्द बन गई। एक दिन राजगृह नगर में एक उत्सव मनाने की घोषणा हुई। इस पर अर्जुनमाली ने अनुमान किया कि कल इस उत्सव के अवसर पर बहुत अधिक फूलों की माँग होगी। इसलिए उस दिन वह प्रातःकाल में जल्दी ही ऊठा और बाँस की छबड़ी लेकर अपनी पत्नी बन्धुमती के साथ जल्दी घर से नीकला। नगर में होता हुआ अपनी फुलवाड़ी में पहुँचा और अपनी पत्नी के साथ फूलों को चून – चून कर एकत्रित करने लगा। उस समय पूर्वोक्त ‘‘ललिता’’ गोष्ठी के छह गोष्ठिक पुरुष मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन में आकर आमोद – प्रमोद करने लगे। उधर अर्जुनमाली अपनी पत्नी बन्धुमती के साथ फूल – संग्रह करके उनमें से कुछ उत्तम फूल छाँटकर उनसे नित्य – नियम अनुसार मुद्गरपाणि यक्ष की पूजा करने के लिए यक्षायतन की ओर चला। उन छह गोष्ठिक पुरुषों ने अर्जुनमाली को बन्धुमती भार्या के साथ यक्षायतन की ओर आते देखा। परस्पर विचार करके निश्चय किया – ‘‘अर्जुनमाली अपनी बन्धुमती भार्या के साथ इधर ही आ रहा है। हम लोगों के लिए यह उत्तम अवसर है कि अर्जुनमाली को तो औंधी मुश्कियों से बलपूर्वक बाँधकर एक और पटक दें और बन्धुमति के साथ खूब काम क्रीड़ा करें।’’ यह निश्चय करके वे छहों उस यक्षायतन के किवाड़ों के पीछे छिप कर निश्चल खड़े हो गए और उन दोनों के यक्षायतन के भीतर प्रविष्ट होने की श्वास रोककर प्रतीक्षा करने लगे। इधर अर्जुनमाली अपनी बन्धुमती भार्या के साथ यक्षायतन में प्रविष्ट हुआ और यक्ष पर दृष्टि पड़ते ही उसे प्रणाम किया। फिर चूने हुए उत्तमोत्तम फूल उस पर चढ़ाकर दोनों घुटने भूमि पर टेककर प्रणाम किया। उसी समय शीघ्रता से उन छह गोष्ठिक पुरुषों ने किवाड़ों के पीछे से नीकलकर अर्जुनमाली को पकड़ लिया और उसकी औंधी मुश्कें बाँधकर उसे एक ओर पटक दिया। फिर उसकी पत्नी बन्धुमती मालिन के साथ विविध प्रकार से कामक्रीड़ा करने लगे। यह देखकर अर्जुनमाली के मन में यह विचार आया – ‘‘मैं अपने बचपन से ही भगवान मुद्गरपाणि को अपना इष्टदेव मानकर इसकी प्रतिदिन भक्तिपूर्वक पूजा करता आ रहा हूँ। इसकी पूजा करने के बाद ही इन फूलों को बेचकर अपना जीवन – निर्वाह करता हूँ। तो यदि मुद्गरपाणि यक्ष देव यहाँ वास्तव में ही होता हो तो क्या मुझे इस प्रकार विपत्ति में पड़ा देखता रहता ? अतः वास्तव में यहाँ मुद्गरपाणि यक्ष नहीं है। यह तो मात्र काष्ठ का पूतला है। तब मुद्गरपाणि यक्ष ने अर्जुनमाली के इस प्रकार के मनोगत भावों को जानकर उसके शरीर में प्रवेश किया और उसके बन्धनों को तड़ातड़ तोड़ डाला। तब उस मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट अर्जुनमाली ने लोहमय मुद्गर को हाथ में लेकर अपनी बन्धुमती भार्या सहित उन छहों गोष्ठिक पुरुषों को उस मुद्गर के प्रहार से मार ड़ाला। इस प्रकार इन सातों का घात करके मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट वह अर्जुनमाली राजगृह नगर की बाहरी सीमा के आसपास चारों ओर छह पुरुषों और एक स्त्री, इस प्रकार सात मनुष्यों की प्रतिदिन हत्या करत हुए घूमने लगा। उस समय राजगृह नगर के शृंगाटक आदि सभी स्थानों में बहुत से लोग परस्पर इस प्रकार बोलने लगी – ‘‘देवानुप्रियों ! अर्जुनमाली, मुद्गरपाणि यक्ष के वशीभूत होकर राजगृह नगर के बाहर एक स्त्री और छह पुरुष इस प्रकार सात व्यक्तियों को प्रतिदिन मार रहा है।’’ उस समय जब श्रेणिक राजा ने यह बात सूनी तो उन्होंने अपने सेवक पुरुषों को बुलाया और उनको इस प्रकार कहा – ‘हे देवानुप्रियों ! राजगृह नगर के बाहर अर्जुनमाली यावत् छह पुरुषों और एक स्त्री – इस प्रकार सात व्यक्तियों का प्रतिदिन घात करता हुआ घूम रहा है। अतः तुम सारे नगर में मेरी आज्ञा को इस प्रकार प्रसारित करो कि कोई भी घास के लिए, काष्ठ, पानी अथवा फल – फूल आदि के लिए राजगृह नगर के बाहर न नीकले। ऐसा न हो कि उनके शरीर का विनाश हो जाए। हे देवानुप्रियों ! इस प्रकार दो तीन बार घोषणा करके मुझे सूचित करो।’ यह राजाज्ञा पाकर राजसेवकों ने राजगृह नगर में घूम घूम कर राजाज्ञा की घोषणा की और घोषणा करके राजा को सूचित कर दिया। उस रागजृह नगर में सुदर्शन नाम के एक धनाढ्य शेठ रहते थे। वे श्रमणोपासक – थे और जीव – अजीव का ज्ञाता था यावत् अपनी आत्मा को भावित – वासित करते हुए विहरण कर रहे थे। उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह पधारे और बाहर उद्यान में ठहरे। उनके पधारने के समाचार सूनकर राजगृह नगर के शृंगाटक राजमार्ग आदि स्थानों में बहुत से नागरिक परस्पर इस तरह वार्तालाप करने लगे – यावत् विपुल अर्थ को ग्रहण करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है ? इस प्रकार बहुत से नागरिकों के मुख से भगवान के पधारने के समाचार सूनकर सुदर्शन शेठ के मन में इस प्रकार, चिंतित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ – ‘‘निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर नगर में पधारे हैं और बाहर गुणशीलक उद्यान में विराजमान हैं, इसलिए मैं जाऊं और श्रमण भगवान महावीर को वंदन – नमस्कार करूँ।’’ ऐसा सोचकर वे अपने माता – पिता के पास आए और हाथ जोड़कर बोले – हे माता – पिता ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी नगर के बाहर उद्यान में बिराज रहे हैं। अतः मैं चाहता हूँ कि मैं जाऊं और उन्हें वंदन – नमस्कार करूँ। यावत् पर्युपासना करूँ। यह सूनकर माता – पिता, सुदर्शन शेठ से इस प्रकार बोले – हे पुत्र ! निश्चय ही अर्जुन मालाकार यावत् मनुष्यों को मारता हुआ घूम रहा हे इसलिए हे पुत्र ! तुम श्रमण भगवान महावीर को वंदन करे के लिए नगर के बाहर मत नीकलो। सम्भव है तुम्हारे शरीर को हानि हो जाए। अतः यही अच्छा है कि तुम यहीं से श्रमण भगवान महावीर को वंदन – नमस्कार कर लो।’’ तब सुदर्शन शेठ ने कहा ‘‘हे माता – पिता ! जब श्रमण भगवान महावीर यहाँ पधारे हैं, और बाहर उद्यान में बिराजमान हैं तो मैं उनको यहीं से वंदन – नमस्कार करूँ यह कैसे हो सकता है। अतः आप मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं वहीं जाकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन करूँ, नमस्कार करूँ यावत् उनकी पर्युपासना करूँ।’’ सुदर्शन शेठ को माता – पिता जब अनेक प्रकार की युक्तियों से नहीं समझा सके तब माता – पिता ने अनिच्छापूर्वक इस प्रकार कहा – ‘‘हे पुत्र ! फिर जिस प्रकार तुम्हें सुख उपजे वैसा करो।’’ सुदर्शन शेठ ने माता – पिता से आज्ञा प्राप्त करके स्नान किया और धर्मसभा में जाने योग्य शुद्ध मांगलिक वस्त्र धारण किये फिर अपने घर से नीकला और पैदल ही राजगृह नगर के मध्य से चलकर मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन के न अति दूर और न अति निकट से होते हुए जहाँ गुणशील नामक उद्यान और जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे उस ओर जाने लगा। तब उस मुद्गरपाणि यक्ष ने सुदर्शन श्रमणोपासक को समीप से ही जाते हुए देखा। देखकर वह क्रुद्ध हुआ, रुष्ट हुआ, कुपित हुआ, कोपातिरेक से भीषण बना हुआ, क्रोध की ज्वाला से जलता हुआ, दाँत पीसता हुआ वह हजार पल भार वाले लोहे के मुद्गर को घूमात – घूमाते जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था, उस ओर आने लगा। उस समय क्रुद्ध मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी ओर आता देखकर सुदर्शन श्रमणोपासक मृत्यु की संभावना को जानकर भी किंचित् भय, त्रास, उद्वेग अथवा क्षोभ को प्राप्त नहीं हुआ। उसका हृदय तनिक भी विचलित अथवा भयाक्रान्त नहीं हुआ। उसने निर्भय होकर अपने वस्त्र के अंचल से भूमि का प्रमार्जन किया। फिर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठ गया ! बैठकर बाएं घूटने को ऊंचा किया और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलिपुट रखा। इसके बाद इस प्रकार बोला – मैं उन सभी अरिहंत भगवंतों को, जो अतीतकाल में मोक्ष पधार गए हैं, एवं धर्म के आदिकर्ता तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर को जो भविष्य में मोक्ष पधारने वाले हैं, नमस्कार करता हूँ। मैंने पहले श्रमण भगवान महावीर से स्थूल प्राणातिपात का आजीवन त्याग किया, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान का त्याग किया, स्वदार संतोष और ईच्छापरिणाम रूप व्रत जीवनभर के लिए ग्रहण किया है। अब उन्हीं की साक्षी से प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और संपूर्ण – परिग्रह का सर्वथा आजीवन त्याग करता हूँ। मैं सर्वथा क्रोध, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य तक के समस्त पापों का भी आजीवन त्याग करता हूँ। सब प्रकार का अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का भी त्याग करता हूँ। यदि मैं इस आसन्नमृत्यु उपसर्ग से बच गया तो पारणा करके आहारादि ग्रहण करूँगा। यदि मुक्त न होऊं तो मुझे यह संपूर्ण त्याग यावज्जीवन हो। ऐसा निश्चय करके सुदर्शन शेठ ने उपर्युक्त प्रकार से सागारी पडिमा धारण की। इधर वह मुद्गरपाणि यक्ष उस हजार पल के लोहमय मुद्गर को घूमाता हुआ जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था वहाँ आया। परन्तु सुदर्शन श्रमणोपासक को अपने तेज से अभिभूत नहीं कर सका अर्थात् उसे किसी प्रकार से कष्ट नहीं पहुँचा सका। मुद्गरपाणि यक्ष सुदर्शन श्रावक के चारों ओर घूमता रहा और जब उसको अपने तेज से पराजित नहीं कर सका तब सुदर्शन श्रमणोपासक के सामने आकर खड़ा हो गया और अनिमेष दृष्टि से बहुत देर तक उसे देखता रहा। इसके बाद उस मुद्गरपाणि यक्ष ने अर्जुन माली के शरीर को त्याग दिया और उस हजार पल भार वाले लोहमय मुद्गर को लेकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। मुद्गरपाणि यक्ष से मुक्त होते ही अर्जुन मालाकार ‘धस्’ इस प्रकार के शब्द के साथ भूमि पर गिर पड़ा। तब सुदर्शन श्रमणोपासक ने अपने को उपसर्ग रहित हुआ जानकर अपनी प्रतिज्ञा का पारण किया और अपना ध्यान खोला। इधर वह अर्जुन माली मुहूर्त्त भर के पश्चात् आश्वस्त एवं स्वस्थ होकर उठा और सुदर्शन श्रमणोपासक को सामने देखकर इस प्रकार बोला – ‘देवानुप्रिय ! आप कौन हो ? तथा कहाँ जा रहे हो ?’ यह सूनकर सुदर्शन श्रमणोपासक ने अर्जुन माली से इस तरह कहा – ‘देवानुप्रिय ! मैं जीवादि नव तत्त्वों का ज्ञाता सुदर्शन नामक श्रमणोपासक हूँ और गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर को वंदन – नमस्कार करने जा रहा हूँ।’ यह सूनकर अर्जुन माली सुदर्शन श्रमणोपासक से बोला – ‘हे देवानुप्रिय ! मैं भी तुम्हारे साथ श्रमण भगवान महावीर को वंदना यावत् पर्युपासना करना चाहता हूँ।’ सुदर्शन ने अर्जुन माली से कहा – ‘देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो।’ इसके बाद सुदर्शन श्रमणोपासक अर्जुन माली के साथ जहाँ गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर बिराजमान थे, वहाँ आया और अर्जुन माली के साथ श्रमण भगवान महावीर को आदक्षिण प्रदक्षिणा की, यावत् उस समय श्रमण भगवान महावीर ने सुदर्शन श्रमणोपासक, अर्जुन माली और उस विशाल सभा के सम्मुख धर्मकथा कही। सुदर्शन धर्मकथा सूनकर अपने घर लौट गया। अर्जुन माली श्रमण भगवान महावीर के पास धर्मोपदेश सूनकर एवं धारण कर अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुआ और प्रभु महावीर को तीन बार आदक्षिण – प्रदक्षिणा कर, वंदन – नमस्कार करके इस प्रकार बोला – ‘‘भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, रुचि करता हूँ, यावत् आपके चरणों में प्रव्रज्या लेना चाहता हूँ। भगवान महावीर ने कहा – ‘‘देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो।’’ तब अर्जुन माली ने ईशानकोण में जाकर स्वयं ही पंचमौष्टिक लुंचन किया, वे अनगार हो गये। संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। इसके पश्चात् अर्जुन मुनि ने जिस दिन मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण की, उसी दिन इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया – ‘‘आज से मैं निरन्तर बेले – बेले की तपस्या से आजीवन आत्मा को भावित करते हुए विचरूँगा।’’ इसके पश्चात् अर्जुन मुनि बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे प्रहर में ध्यान करते। फिर तीसरे प्रहर में राजगृह नगर में भिक्षार्थ भ्रमण करते थे। उस समय अर्जुन मुनि को राजगृह नगर में उच्च – नीच – मध्यम कुलों में भिक्षार्थ घूमते हुए देखकर नगर के अनेक नागरिक – स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध इस प्रकार कहते – ‘इसने मेरे पिता को मारा है। इसने मेरी माता को मारा है। भाई को, बहन को, भार्या को, पुत्र को, कन्या को, पुत्रवधू को, एवं इसने मेरे अमुक स्वजन संबंधी या परिजन को मारा है। ऐसा कहकर कोई गाली देता, यावत् ताड़ना करता। इस प्रकार उन बहुत से स्त्री – पुरुष, बच्चे, बूढ़े और जवानों से आक्रोश – यावत् ताड़ित होते हुए भी वे अर्जुन मुनि उन पर मन से भी द्वेष नहीं करते हुए उनके द्वारा दिये गये सभी परीषहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए उन कष्टों को समभाव से झेल लेते एवं निर्जरा का लाभ समझते हुए राजगृह नगर के छोटे, बड़े एवं मध्यम कुलों में भिक्षा हेतु भ्रमण करते हुए अर्जुन मुनि को कभी भोजन मिलता तो पानी नहीं मिलता और पानी मिलता तो भोजन नहीं मिलता। वैसी स्थिति में जो भी और जैसा भी अल्प स्वल्प मात्रा में प्रासुक भोजन उन्हें मिलता उसे वे सर्वथा अदीन, अविमन, अकलुष, अमलिन, आकुल – व्याकुलता रहित अखेद – भाव से ग्रहण करते, थकान अनुभव नहीं करते। इस प्रकार वे भिक्षार्थ भ्रमण करके वे राजगृह नगर से नीकलते और गुणशील उद्यान में, जहाँ श्रमण भगवान महावीर बिराजमान थे, वहाँ आते और फिर भिक्षा में मिले हुए आहार – पानी को प्रभु महावीर को दिखाते। दिखाकर उनकी आज्ञा पाकर मूर्च्छा रहित, गृद्धि रहित, राग रहित और आसक्ति रहितः जिस प्रकार बिल में सर्प सीधा ही प्रवेश करता है उस प्रकार राग – द्वेष भाव से रहित होकर उस आहार – पानी का सेवन करते। तत्पश्चात् किसी दिन श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के उस गुणशील उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। अर्जुन मुनि ने उस उदार, श्रेष्ठ, पवित्र भाव से ग्रहण किये गये, महालाभकारी, विपुल तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए पूरे छह मास श्रमण धर्म का पालन किया। इसके बाद आधे मास की संलेखना से अपनी आत्मा को भावित करके तीस भक्त के अनशन को पूर्ण कर जिस कार्य के लिए व्रत ग्रहण किया था उसको पूर्ण कर वे अर्जुन मुनि यावत् सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए।

अर्जुन माली
- अंजना सती
- पीठ-महापीठ मुनि की कथा
- अतिस्नानी त्रिदण्डी की कथा
- अंजन चोर की कथा
- अजित सेन
- बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त
- पद्मरथ राजा
- दृढसूर्य
- धनदत्त राजा की कथा
- परिग्रह से डरे हुए दो भाइयों की कथा
- महाबळ नामना राजकुमारनुं दृष्टांत
- अकम्पित गणधर
- अग्निभूति गणधर
- अचल बलदेव
- अचलभ्राता गणधर
- अजितनाथ भगवान्
- पृथ्वीचंद्र अने गुणसागरनुं दृष्टांत
- अर्जुन माली
- कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक मुनि
- 59. अगड़दत्त मुनि
- 60. अट्टणमल्ल
- अंतूकारी भट्टा
- अभग्गसेन चोर
- अभयकुमार
- अभीचिकुमार
- आर्यरक्षित