आर्यरक्षित ’दशपर’ नगर में ’सोमदेव’ नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम ’सोमा’ था और पुत्र का नाम ’रक्षित’ था। रक्षित की शिक्षा पाटलिपुत्र में हु‌ई। जब वह विद्याध्ययन करके लौटा तो सबने उसका सम्मान किया; लेकिन माता सोमा उदास रही। रक्षित ने माता से उसकी उदासी का कारण पूछा तो उसने कहा.-’पुत्र ! यदि तुम दृष्टिवाद का अध्ययन करते तो मुझे प्रसन्नता होती; क्योंकि जितनी विद्या‌एँ तुमने पढ़ी हैं, वे सब तो संसार को बढ़ाने वाली ही हैं, एकमात्र दृष्टिवाद का ज्ञान ही संसार से पार उतारने वाला है।’ पुत्र ने पूछा’ माता ! दृष्टिवाद का ज्ञान मुझे कहाँ प्राप्त होगा? कौन आचार्य इसको जानने वाले हैं?’ माता ने आचार्य तोषलीपुत्र का नाम बता दिया।

रक्षित आचार्य तोषलीपुत्र के पास पहुँचा और उनसे दृष्टिवाद का ज्ञान प्रदान करने की विनयपूर्वक प्रार्थना की। आचार्यश्री ने कहा’दृष्टिवाद विशिष्ट प्रकार का ज्ञान है। इसका पारायण करने के लि‌ए गृहस्थ त्यागकर श्रमण बनना आवश्यक है। विशिष्ट प्रकार की तपस्या‌एँ और साधना‌एँ करनी पड़ती हैं, तभी दृष्टिवाद को हृदयंगम किया जा सकता है।’

आचार्यश्री के इन शब्दों को सुनकर रक्षित ने दीक्षित होने की सहमति प्रकट कर दी, साथ ही कहा’गुरुदेव ! यदि मैं यहीं रहूँगा तो संभवतः राजा एवं मेरे परिवारी जन मुझे वापस गृहस्थवास में ले जायें, इसलि‌ए प्रव्रजित करने के उपरान्त शीघ्र ही कहीं और भेज दें।’ आचार्य तोषलीपुत्र ने रक्षित की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और दीक्षा देने के तुरन्त बाद वहाँ से विहार कर दिया। गुरु-कृपा से रक्षित ने शास्त्राभ्यास किया। विशिष्ट ज्ञान-प्राप्ति के लि‌ए गुरु ने उन्हें आर्य वज्रस्वामी के पास भेजा। मार्ग में स्थविरकल्पी आचार्य भद्रगुप्त सूरि के उन्होंने दर्शन किये। भद्रगुप्त सूरि की आयु थोड़ी ही शेष रह ग‌ई थी। उन्होंने अनशन ग्रहण कर लिया । अन्तिम समय के अनगारी संथारे में आर्य रक्षित उनकी सेवा करते रहे। उनके समाधिमरण के पश्चात्‌ ये आर्य वज्रस्वामी के पास पहुँचे। आर्य वज्रस्वामी दृष्टिवाद के दश पूर्वो के ज्ञाता थे। उनके नेश्राय में रहकर ये पूर्वो का अध्ययन करने लगे। नौ पूर्वो का अध्ययन पूरा हो चुका था और दशवें पूर्व का अध्ययन चल रहा था, तभी इनका छोटा भा‌ई फल्गुरक्षित इन्हें बुलाने आ गया। उसने कहा- ’आप दशपुर चलें, वहाँ आपकी प्रेरणा से बहुत मनुष्यों का उद्धार होगा।’ इनके मन में भी दशपुर जाने की बात आ ग‌ई। गुरु वज्रस्वामी से आज्ञा माँगी तो उन्होंने अपने आयुष्य का विचार करके जान लिया कि थोड़ा ही बाकी है। यदि रक्षित दशपुर चला गया तो दशवें पूर्व का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि इसके वापस लौटने से पहले ही मेरा आयुष्य पूरा हो जायेगा और दशवें पूर्व का शेष ज्ञान मेरे साथ ही विलुप्त हो जायेगा । यह सब सोचकर उन्होंने रक्षित से कहा- ’ -’तुम घर मत जा‌ओ, ज्ञान का अभ्यास करो।’ आर्य रक्षित ने पूछा’गुरुदेव ! दशवें पूर्व का ज्ञान कितना मैं प्राप्त कर चुका हूँ और कितना बाकी है?’ वज्रस्वामी ने कहा- ’अभी तो तुम बिन्दु के बराबर ज्ञान प्राप्त कर सके हो, सिन्धु के बराबर शेष है; लेकिन चिन्ता मत करो। तुम मेधावी हो, शीघ्र ही दशवें पूर्व का शेष ज्ञान प्राप्त कर लोगे ।’ इतना सुनने के बाद भी आर्यरक्षित बार-बार आग्रह करने लगे, तब आर्य वज्रस्वामी ने इन्हें दशपुर जाने की आज्ञा दे दी ।

आर्यरक्षित इसके बाद अपने भा‌ई फल्गुरक्षित के साथ दशपुर चले गये । वहाँ इनके निमित्त से इनका सारा परिवार प्रतिबुद्ध हु‌आ, राजा ने भी सम्यक्त्व ग्रहण किया। फल्गुरक्षित भी दीक्षित हो गये । उनके निमित्त से अन्य भी अनेक मनुष्यों का उद्धार हु‌आ ।

एक बार सौधर्म इन्द्र महाविदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामी की वंदना करने गया । उनके मुख से सूक्ष्म निगोद का स्वरूप सुनकर उसने पूछा- ’भगवन्‌ ! भरतक्षेत्र में भी सूक्ष्म निगोद का स्वरूप जानने वाला को‌ई है ?’ भगवान्‌ सीमंधर स्वामी ने बताया- ’आर्यरक्षित है।’ इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप रखकर इनसे (आर्यरक्षित से) सूक्ष्म निगोद का स्वरूप पूछा । इन्होंने यथातथ्य वर्णन कर दिया । इसपर इन्द्र संतुष्ट हु‌आ और इनकी वंदना करके देवलोक को चला गया।

इनके समय तक मनुष्यों की स्मरण शक्ति कम हो चली थी, अतः ज्ञान को सही ढंग से हृदयंगम करने के लि‌ए इन्होंने चारों अनुयोगों को पृथक्‌-पृथक्‌ कर दिया।

इनका जन्म वीर. नि. सं. ५२२ में हु‌आ । २२ वर्ष की अवस्था में प्रव्रजित हु‌ए, ४० वर्ष तक मुनि रहे और १३ वर्ष तक आचार्य रहे । इस प्रकार ७५ वर्ष की आयु पूरी करके वीर. नि. सं. ५६७ में देवलोक हु‌ए ।