महाविदेहक्षेत्र मे वज्रनाभ नामक एक चक्रवर्ती सम्राट हो गया है। उसने अपनी समस्त राज्य-ऋद्धि छोड़कर मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली। उसके बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नामक चार छोटे भाईयों ने भी विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर ली। वे सभी ११ अंगों के ज्ञाता बनें। उन चारों में बाहुमुनि ५०० मुनियों को आहार लाकर देता था; सुबाहुमुनि उतने ही मुनियों की वैयावत्त्य (सेवा) करता था; पीठ और महापीठ मुनि विद्याध्ययन करते थें। एक दिन उनके गुरु ने बाहु और सुबाहु मुनि की प्रशंसा की, जिसे सुनकर पीठ और महापीठ मुनि ईर्ष्या से जल उठे। सोचने लगे-इन गुरुजी का अविवेक तो देखो! अभी तक इनका राजत्व स्वभाव नहीं बदला, तभी तो अपनी वैयावृत्य करने वाले और आहार-पानी ला देने वाले मुनियों की प्रशंसा करते हैं और हम दोनों सदा स्वाध्याय-तप में रत रहते हैं, मगर हमारी प्रशंसा नहीं करते। इस प्रकार ईर्ष्यावश गुणग्राहिता को छोडकर अवगुण-दोषदृष्टि अपनाकर अशुभ कर्मबंधन कर लिया। चारित्रपालन करने से पाँचों मुनि वहाँ से आयुष्य पूर्णकर सवर्थिसिद्ध विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वज्रनाभ का जीव श्री ऋषभदेव भगवान् बना। बाहु और सुबाहु के जीव क्रमशः भरत और बाहुबलि बनें; किन्तु पीठ और महापीठ के जीवों ने पूर्वजन्मकृत ईर्ष्या के फल स्वरूप स्त्रीवेद-कर्म बांधने से ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी के रूप में जन्म लिया।
मतलब यह है कि जो गुणी व्यक्ति की प्रशंसा सुनकर ईर्ष्या करता है, वह पीठ और महापीठ की तरह आगामी जन्म में हीनत्व प्राप्त करता है। इसीलिए विवेकी पुरुषों को गुणों के प्रति ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए.
श्री धर्मदासजी गणि रचित