मगध देश के अंतर्गत एक मिथिला नाम की सुन्दर नगरी थी | उसके राजा थे पद्मरथ | वे बड़े बुद्धिमान और राजनीति के अच्छे जानने वाले थे, उदार और परोपकारी थे | सुतरा वे खूब प्रसिद्ध थे । 

एक दिन पद्मरथ शिकार के लिये वन में गये हुए थे | उन्हें एक खरगोश दीख पड़ा । उन्होंने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया | खरगोश उनकी नजर से बाहर होकर न जाने कहा अदृश्य हो गया । पद्मरथ भाग्य से काल्गुफा नाम की एक गुहा में जा पहुँचे | वहाँ एक मुनिराज रहा करते थे । वे बड़े तपस्वी थे | उनका दिव्य देह तप के प्रभाव से अपूर्व तेज धारण कर रहा था | उनका नाम था सुधर्म ॥ पद्मरथ रत्नत्रय विभूषित और परम शांत मुनिराज के पवित्र दर्शन से बहुत शांत हुए । जैसे तपा हुआ लौहपिण्ड जल से शांत हो जाता है | वे उसी समय घोड़े पर से उतर पड़े और मुनिराज को भक्ति पूर्वक नमस्कार कर उन्होंने उनके द्वारा धर्म का पवित्र उपदेश सुना | उपदेश उन्हें बहुत रुचा । उन्होंने सम्यक्त्व पूर्वक अणुव्रत ग्रहण किये | इसके बाद उन्होंने मुनिराज से पूछा-हे प्रभो ! है ससार के आधार ! कहिये तो जिनधर्म रूपी समुद्र को बढ़ाने वाले आप सरीखे गुणज़ चन्द्रमा और भी कोई है या नहीं ? और है तो कहाँ हैं ? है करुणा सागर ! मेरे इस सन्देह को मिटाइये | 

उत्तर में मुनिराज ने कहा--राजन्‌ ! चम्पानगरी में इस समय बारहवें तीर्थकर अगवान वासु पूज्य विराजमान हैं | उनके आतिक शरीर के तेज की समानता तो अनेक सूर्य मिलकर भी नहीं कर सकते और उनके अनंत ज्ञानादि गुर्णों को देखते हुए मुझमें और उनमें राई और सुमेरु का अतर है । अगवान्‌ वासु पूज्य का समाचार सुनकर पद्मरथ को उनके दर्शन की अत्यत उत्कण्ठा हुई । वे उसी समय फिर वहाँ से बड़े वैभव के साथ भगवान्‌ के दर्शनों के लिये चले | यह हाल धन्वन्तरी और विश्वानुलोम नाम के दो देवों को जान पड़ा | सो वे पद्मरथ की परीक्षा के त्रिये मध्यल्रोक में आये | उन्होंने पद्मरथ की भक्ति की इृढ़ता देखने के त्रिये रास्ते में उन पर उपद्रव करना शुरु किया । पहले उन्होंने उन्हें एक भयंकर कालत्र सर्प दिखलाया, इसके बाद राज्यछत्र का भंग, अग्नि का लगना प्रचण्ड वायु दवारा पर्वत और पत्थरों का गिरना, असमय में भयंकर जल वर्षा और खूब कीचड़ मय मार्ग और उसमें फँंसा हाथी आदि दिखलाया | यह उपद्रव देखकर साथ के सब लोग भय के मारे अधमरे हो गये । मत्रियों ने यात्रा अअमगलमय बतलाकर पद्मरथ से पीछे ल्रॉट चलने के लिये आग्रह किया । परंतु पद्मरथ ने किसी की बात नहीं सुनी और बड़ी प्रसन्‍नता के साथ “नमः श्रीवासुपूज्याय” कहकर अपना हाथी आगे बढ़ाया | पद्मरथ की इस प्रकार अचल भक्ति देखकर दोनों देवों ने उनकी बहुत बहुत प्रशंसा की | इसके बाद पद्मरथ को सब रोगों को नष्ट करने वाला एक दिव्य हार और बहुत सुन्दर वीणा, जिस की आवाज एक योजन पर्यत सुनाई पड़ती है देकर अपने स्थान चले गये | ठीक है--जिनके हृदय में जिनभगवान्‌ की भ्रक्ति सदा विद्यमान रहती है, उनके सब काम सिद्ध हो इसमें कोई सन्देह नहीं | 

पद्मरथ ने चम्पानगरी में पहुँचकर समवशरण में विराजे हुए, आठ प्रतिहायाँ से विभूषित, देव, विद्याधर, राजा, महाराजाओं दवारा पूज्य, केवल ज्ञान दवारा संसार के सब पदार्थों को जानकर धर्म का उपदेश करते हुए और अनंत जन्मों में बॉधे हुए मिथ्यात्द को नष्ट करने वाले भगवान्‌ वासु पूज्य के पवित्र दर्शन किये उनकी पूजा की, स्तुति की और उपदेश सुना | भगवान के उपदेश का उन के हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ा | वे उसी समय जिनदीक्षा लेकर तपस्वी बन गये ॥ प्रव्रजित होते ही उनके परिणाम इतने विशुद्ध हुए कि उन्हें अवधि और मनःपर्यय ज़न हो गया | भगवान वासु पूज्य के वे गणधर हुए | इसलिये भव्य पुरुषों को उचित है कि वे मिथ्यात्व को छोड़कर स्वर्ग-मोक्ष को देने वाली जिनभगवान्‌ की भक्ति निरंतर पवित्र आवों के साथ करें और जिस प्रकार पद्मरथ सच्चा जिनअक्त हुआ उसी प्रकार वे भी हों । 

जिनभक्ति सब प्रकार का सुख देती है और परम्परा मोक्ष की प्राप्ति का कारण है, जो केवलज़ान द्वारा संसार के प्रकाशक हैं और सत्पुरुषों दवारा पूज्य हैं, वे भगवान वासु पूज्य सारे संसार को मोक्ष सुख प्रदान करें कर्मों के उदय से घोर दुःख सहते हुए जीवों का उद्घार करें ।