कापिल्ल्य नामक नगर में एक ब्रहमरथ नाम का राजा रहता था | उसकी रानी का नाम था रामिली | वह सुन्दरी थी, विदुषी थी और राजा को प्राणों से भी प्यारी थी, बारहवें चक्रवर्ती ब्रहमदत्त इसी के पुत्र थे | वे छह खण्ड पृथ्वी को अपने वश में करके सुख पूर्वक अपना राज्य शासन का काम करते थे ।
एक दिन राजा भोजन करने को बैठे उस समय उनके विजयसेन नाम के रसोड़ये ने उन्हें खीर परोसी | पर वह बहुत गरम थी, इसलिये राजा खा न सके । उसे इतनी गरम देखकर राजा रसोइये पर बहुत गुस्सा हुए । गुस्से में आकर उन्होंने खीर के उसी बर्तन को रसोड़ये के सिर पर दे मारा | उसका सिर सब जल गया | साथ ही वह मर गया | हाय ! ऐसे क्रोध को धिक्कार है, जिससे मनुष्य अपना हिताहित न देखकर बड़े बड़े अनर्थ कर बैठता है और फिर अनंत काल तक कुगतियों में भोगता रहता है |
रसोइया बड़े दु:ख से मरा सही, पर उसके परिणाम उस समय ओ शांत रहे । वह मर कर लवण समुद्रान्तर्गत विशालरत्न नामक दवीप में व्यन्तर देव हुआ । विभगावधिज्ञान से वह अपने पूर्वभव की कष्ट कथाजानकर क्रोध के मारे कॉपने लगा | वह एक सन्यासी के वेष में राजा के पास आया और राजा को उसने केला, आम, सेब, संतरा आदि बहुत से फल भेंट किये । राजा जीभ की लोलुपता से उन्हें खाकर सन्यासी से बोला--साधुजी, कहिये आप ये फल कहा से लाये ? और कहाँ मिलेंगे ? ये तो बड़े ही मीठे हैं | मैंने तो आज तक ऐसे फल कभी नहीं खाये | मैं आपकी इस भेंट से बहुत खुश हुआ ।
संन्यासी ने कहा महाराज, मेरा घर एक टापू में है । वहीं एक बहुत सुन्दर बगीचा है | उसी के ये फल हैं | और अनत फल उसमें लगे हुए हैं | सन्यासी की रसभरी बात सुनकर राजा के मुँह में पानी भर आया | उसने सन्यासी के साथ जाने की तैयारी की | सच है-
शुभाअशुभं न जानाति हा कष्ट लंपट. पुमान ।
ब्रहम नेमिदत्त
अर्थात्-जिहवालोलुपी पुरुष भला बुरा नहीं जान पाते, यह बड़े दुःख की बात है । यही हाल राजा का हुआ | जब वह लोलुपता के वश हो उस सन्यासी के साथ समुद्र के बीच में पहुँचा, तब उसने राजा को मारने के लिये बड़ा कष्ट देना शुरु किया | चक्रवर्ती अपने को कष्ट में घिरा देखकर पच नमस्कार मंत्र की आराधना करने लगा । उसके प्रभाव से कपटी संन्यासी की सब शक्ति रुद्ग हो गयी | वह राजा को कुछ कष्ट न दे सका | आखिर प्रगट होकर उसने राजा से कहा--दुष्ट, याद है ? मैं जब तेरा रसोइया था, तब तूने मुझे जान से मार डाला था ? वही आग आज मेरे हृदय को जला रही है, और उसी को बुझाने के लिये, अपने पूर्व भव का वैर निकालने के लिये मैं तुझे यहॉँ छलकर लाया हूँ और बहुत कष्ट के साथ तुझे जान से मारुँगा, जिससे फिर कभी तू ऐसा अनर्थ न करे | पर यदि तू एक काम करे तो बच सकता है | वह यह कि तू अपने मुँह से पहले तो यह कह दे कि ससार में जिनधर्म ही नहीं है और जो कुछ है वह अन्य धर्म है | इसके सिवा पंच नमस्कार मंत्र को जल में लिखकर उसे अपने पॉव से मिटा दे, तब मै तुझे छोड़ सकता हूँ । मिथ्या इष्टि ब्रह्मदत्त ने उसके बहकाने में आकर वही किया जैसा उसे देव ने कहा था | उसका व्यंतर के कहे अनुसार करना था कि उसने चक्रवर्ती को उसी समय मार कर समुद्र में फेंक दिया । अपना वैर उससे निकाल लिया | चक्रवर्ती मरकर मिथ्यात्व के उदय से सातवें नरक गया | सच है मिथ्यात्व अनत दु खाँ का देने वाला है । जिसका जिनधर्म पर विश्वास नहीं, क्या उसे इस अनत दु:ख मय संसार में कभी सुख हुआ है ? नहीं । मिथ्यात्व के समान ससार में और कोई इतना निन्दय नहीं है । उसी से तो चक्रवर्ती
ब्रह्मदत्त सातवें नरक गया | इसलिये आत्महित के चाहने वाले पुरुषों को दूर से ही मिथ्यात्व छोड़कर स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति का कारण सम्यक्त्व ग्रहण करना उचित है |
संसार में सच्चे देव अरहंत भगवान् हैं, जो क्षुधा, तृषा, जन्म, मरण, रोग, शोक, चिंता, भय, आदि दोषों से और धन धान्य, दासी-दास, सोना चोँदी आदि दस प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, जो इन्द्र, चक्रवर्ती, देव, विद्याधरों द्वारा वन्दय हैं, जिनके वचन जीव मात्र को सुख देने वाले और भव समुद्र से तिरने के लिये जहाज समान हैं, उन अरहंत भगवान् का आप पवित्र भावों से सदा ध्यान किया कीजिये कि जिससे वे आपके लिये कल्याण पथ के प्रदर्शक हों |