अवन्ती नगरी में धन नाम का श्रेष्ठी निवास करता था । उसकी पत्नी का नाम कमलश्री था । कमलश्री ने आठ पुत्रों के बाद एक पुत्री को जन्म दिया। आठ पुत्रों के बाद पुत्री होने से माता-पिता को बहुत खुशी हुई। आठों भाई फूले न समाये। श्रेष्ठी ने उसका नाम भट्टा रखा । भट्टा पिता को इतनी प्यारी थी कि उसने सबसे कह दिया- इसे कोई ’तू’ कहकर नहीं पुकारेगा। इसलिए उसका नाम अतूंकारी भट्टा पड़ गया।
माता-पिता और भाईयों के लाड़-प्यार में अतूंकारी भट्टा बढ़ने लगी। उसने स्त्रियोचित ६४ कलाएँ पढ़ीं। उसका रूप रति-रंभा जैसा था। लेकिन अतिशय लाड़-प्यार से उसके अन्दर अहंकार का दुर्गुण प्रवेश कर गया था। वह अपनी ओर से किसी को ’तू’ कहती नहीं थी और किसी से ’तू’ सुनना भी नहीं चाहती थी। साथ ही वह चाहती थी कि सभी उसकी आज्ञा का पालन करें। यद्यपि वह किसी को अनुचित आज्ञा नहीं देती थी, लेकिन अपनी आज्ञा की अवहेलना भी नहीं सह सकती थी । यह दुर्गुण उसमें आयु के साथ-साथ बढ़ता गया।
अतूंकारी भट्टा युवती हो गई। माता-पिता उसके विवाह की चिन्ता में लगे और योग्य वर की खोज करने लगे। इस बात से भट्टा भी अनजान नहीं थी । उसने माता से स्पष्ट शब्दों में कह दिया- ’मैं विवाह उसी वर के साथ करूंगी, जो मेरी आज्ञा का पालन करेगा ।’ ये बात लोक-रीति के विरुद्ध थी । माता ने उसे बहुत समझाया लेकिन वह अपनी हठ पर अड़ी रही । आखिर माता-पिता चुप हो गये। उसकी यह हठ सम्पूर्ण नगरी में विख्यात हो गई, इसलिए कोई उसके साथ विवाह करने को राजी नहीं हुआ। परिणामस्वरूप काफी समय तक वह कुंवारी ही रही, लेकिन फिर भी उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी।
उसकी इस हठ की चर्चा नगर-नरेश जितशत्रु के कानों तक पहुंच गई। उन्होंने यह बात अपने सुबुद्धि नाम के मन्त्री से कही। विचित्रता उत्सुकता की जननी होती ही है। मन्त्री सुबुद्धि अतूंकारी के साथ विवाह करने को उत्सुक हो गया। शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया। एक दिन अतूंकारी ने अपने पति से कहा’ आप राज्यसभा विसर्जित होते ही सीधे घर आ जाया करें। आपका देर से आना मुझे सहन नहीं होता। मन्त्री अब जल्दी ही घर आने लगा। एक दिन राजा से विचार-विमर्श में काफी देर हो गई, यहाँ तक कि आधी रात हो गई। आधी रात के बाद ही मन्त्री अपने घर पहुँचा । आज्ञा की अवहेलना से अतूंकारी तो भरी बैठी ही थी। उसने पति के लिए दरवाजा खोला और स्वयं बाहर निकल गई। पति ने उसे मनाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन उसने उसकी एक न सुनी।
वह क्रोध से भरी हुई जंगल में चली जा रही थी कि उसे चोरों का गिरोह मिल गया। चोरों ने उसे पकड़कर पल्लीपति के सुपुर्द कर दिया। पल्लीपति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा, लेकिन वह पतिव्रता थी। उसने स्पष्ट शब्दों में इन्कार कर दिया। पल्लीपति ने पहले उसे प्यार से समझाया और फिर भयंकर त्रास दिये, पर अतूंकारी टस से मस न हुई। निराश होकर पल्लीपति ने उसे एक रक्त व्यापारी के हाथ बेच दिया। रक्त व्यापारी उसका रक्त निकालकर बेचने लगा। इससे भट्टा पंजर मात्र रह गयी। इस भयंकर वेदना से अतूंकारी का हृदय परिवर्तन हो गया। वह समझ गई, कि क्रोध ही मनुष्य का सबसे प्रबल शत्रु है। उसने क्रोध का त्याग करके क्षमा धारण कर ली। अब वह क्षमा की मूर्ति बन गई। एक बार उसका भाई उस नगरी में पहुँच गया, जहाँ वह रक्त व्यापारी अतूंकारी का रक्त निकालकर बेचा करता था। भाई ने बहिन को पहचान लिया
और बहन ने भाई को। भाई उसे अपने साथ ले आया। अब अतूंकारी अपने पति की अनुगामिनी बनकर रहती और बिल्कुल भी क्रोध नहीं करती थी।
उसकी क्षमाशीलता की प्रशंसा देवराज इन्द्र ने अपनी सभा में की तो एक देव मुनि का वेश रखकर उसकी परीक्षा लेने आया। उसने लक्षपाक तेल माँगा। अतूंकारी की आज्ञा से उसकी दासी लक्षपाक तेल का घड़ा लेकर आयी । लेकिन देव ने अपनी माया से वह घड़ा फोड़ दिया। तदुपरान्त एक के बाद एक इस प्रकार तीन घड़े देव ने अपनी माया से फोड़े। इतनी कीमती वस्तु के नष्ट हो जाने पर भी अतूंकारी को तनिक भी क्रोध न आया । तब देव ने अपना रूप प्रकट किया, कंचन की वर्षा की और उसकी क्षमाशीलता की प्रशंसा करता हुआ चला गया।