अन्ध्रदेशान्तर्गत कनकपुर नामक एक प्रसिद्ध और मनोहर शहर था । उसके राजा थे धनदत्त । वे सम्यग्दृष्टि थे गुणवान् थे, और धर्मप्रेमी थे । राजमंत्री का नाम श्रीवन्दक था । वह बौद्धधर्मानुयायी था । परंतु तब भी राजा अपने मंत्री की सहायता से राजकार्य अच्छा चलाते थे । उन्हें किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती थी।
एक दिन राजा और मंत्री राजमहल के ऊपर बैठे हुए कुछ राज्य सम्बन्धी विचार कर रहे थे कि राजा को आकाश मार्ग से दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों के दर्शन हुए । राजा ने हर्ष के साथ उठकर मुनिराज को बड़े विनय से नमस्कार किया और अपने महल में उनका आह्वान किया । ठीक भी है--’साधुसंगः सतां प्रियः’ अर्थात्--साधुओकी संगति सज्जनों को बहुत प्रीतिकर जान पड़ती है।
इसके बाद राजा के प्रार्थना करने पर मुनिरज ने उसे धर्मोपदेश दिया और चलते समय वे श्रीवन्दक मंत्री को अपने साथ लिवा ले गये । लेजाकर उन्होंने उसे समझाया और आत्महित की इच्छा से उसके प्रार्थना करने पर उसे श्रावक के व्रत दे दिये । श्रीवन्दक अपने स्थान लौट आया । इसके पहले श्रीवन्दक अपने बुद्धगुरु की वन्दनाभक्ति करने को प्रतिदिन उनके पास जाया करता था । सो जब उसने श्रावक व्रत ग्रहण कर लिये तब से वह नहीं जाने लगा । यह देख बौद्धगुरु ने उसे बुलाया पर जब श्रीवन्दक ने आकर भी उसे नमस्कार नहीं किया तब संघश्री ने उससे पूछा--क्यों आज तुमने मुझे नमस्कार नहीं किया ? उत्तर में मंत्री ने मुनि आने, उपदेश करने और अपने व्रत ग्रहण करने का सब हाल संघश्री से कह सुनाया । सुनकर संघश्री बड़े दु:ख के साथ बोला--हाय ! तू ठगा गया, पापियों ने तुझे बड़ा धोखा दिया । क्या कभी यह संभव है निराश्रय आकाश में भी कोई चल सकता है ? जान पडता है तम्हारा राजा बड़ा कपटी और ऐन्द्रजालिक है । इसीलिये उसने तु॒म्हे ऐसा आश्चर्य दिखला कर अपने धर्म में शामिल कर लिया । तुम तो भगवान् के इतने विश्वासी थे, फिर भी तुम उस पापी राजा की बहकावट में आ गये ? इस तरह उसे बहुत कुछ ऊँचा नीचासमझाकर संघश्री ने कहा--अब तुम कभी राजसभा में नहीं जाना और जाना भी पड़ें तो यह आज का हाल राजा से नहीं कहना । कारण वह जैनी है । सो बुद्धधर्म पर स्वभाव से ही उसे प्रेम नहीं होगा । इसलिये क्या मालूम कब वह बुद्धधर्म का अनिष्ट करने को तैयार हो जाये ? बेचारा श्रीवन्दक फिर संघश्री की चिकनी चुपड़ी बातों में आ गया । उसने श्रावक धर्म को भी उसी समय तिलाञजलि दे दी । बहुत ठीक कहा गया है-
स्वयं ये पापिनी लोके परं कुर्वन्ति पापिनम् ।
यथा संतप्तमानोसौ दहत्यग्निर्न संशयः ॥
-ब्रह्म नेमिदत्त
अर्थात--जो स्वयं पापी होते हैं वे औरो को भी पापी बना डालते हैं । यह उनका स्वभाव ही होता है। जैसे अग्नि स्वयं भी गरम होती है और दूसरों को भी जला देती है ।
दूसरे दिन धनदत्त ने राज्यसभा में बडे आनन्द और धर्म प्रेम के साथ चारण मुनि का हाल सुनाया । उनमें प्रायः लोगो को जो कि जैन नहीं थे, बहुत आश्चर्य हुआ । उनका विश्वास राजा के कथन पर नहीं जमा । सब आश्चर्य भरी दृष्टि से राजा के मुह की ओर देखेंने लगे । राजा को जान पडा कि मेरे कहने पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ । तब उन्होंने अपनी गंभीरता को हँसी के रूप में परिवर्तित कर झट से कहा, हाँ मैं यह कहना तो भूल ही गया कि उस समय हमारे मंत्री महाशय भी मेरे पास ही थे । यह कहकर ही मंत्री पर नजर दौडाई पर वे उन्हें नहीं दीख पड़े । तब राजा ने उसी समय सैनिको को भेजकर श्रीवन्दक को बुलवाया । उसके आते ही राजा ने अपने कथन की सत्यता प्रमाणित करने के लिये उससे कहा--मंत्रीजी, कल दोपहर का हाल तो इन सबको सुनाइये कि वे चारण मुनि कैसे थे ? तब बौद्धगुरु का बहकाया हुआ पापी श्रीवन्दक बोल उठा कि महाराज मैंने तो उन्हें नहीं देखा और न यह सम्भव ही है कि आकाश में कोई चल सके ? पापी श्रीवन्दक के मुँह से उक्त वाक्यों का निकलना था कि उसी समय उसकी दोनों आँखें मुनि निंदा के तीव्र पाप के उदय से फूट गईं । सच है-
प्रभावी जिनधर्मस्य सूर्यस्येव जगत्त्रये ।
नैव संछाद्यते केन धूकप्रायेण पापिना ॥
-ब्रह्म नेमिदत्त
जैसे संसार में फैले हुए सुर्य के प्रभाव को उल्लू नहीं रोक सकता, ठीक उसी प्रकार पापी लोग पवित्र जैन धर्म के प्रभाव को कभी नहीं रोक सकते । उक्त घटना को देखकर राजा वगैरह ने जिनधर्म की खूब प्रशंसा की और श्रावक धर्म स्वीकार कर वे उपासक बन गये । इस प्रकार निर्मल और देवादि के द्वारा पूज्य जिनशासन का प्रभाव देखकर भव्य पुरुषों को उचित है कि वे निर्भ्रांत होकर सुख के खजाने और स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले पवित्र जिनधर्म की और अपनी निर्मल और मनोवाँछित को देने वाली बुद्धि को लगावें।